ज्यादातर ट्रेन के डिब्बे नीले रंग के क्यों होते हैं? जानिए लाल और भूरे रंग की ट्रेन कितनी तेज चलती है
लाल रंग के कोच नीले वाले से थोड़े खास होते हैं. साल 2000 में इन्हें जर्मनी से भारत लाया गया था. लाल रंग के इन खास डिब्बों को लिंक हॉफमेन बुश कहा जाता है.
भारतीय रेलवे की तरफ से पूरे भारत में कई ट्रेने चलती हैं. लेकिन ज्यादातर ट्रेनों के अंदर का रंग नीला होता है. वहीं कुछ ट्रेनों के डिब्बों के बाहर का रंग भी नीला होता है. क्या आपने कभी जानने की कोशिश की कि आखिर ऐसा क्यों होता है. क्यों देश की ज्यादातर ट्रेनों का रंग भीतर और बाहर से नीला होता है. आज इस आर्टिकल में हम आपको इसी से जुड़े सवालों का जवाब देंगे. इसके साथ ही आपको यह भी बताएंगे कि आखिर किन ट्रेनों के भीतर लाल और भूरे रंग का इस्तेमाल किया गया है.
ज्यादातर डिब्बे नीले रंग के क्यों होते हैं?
आपने देखा होगा कि रेलवे में ज्यादातर डिब्बों के अंदर का रंग नीला होता है. यहां तक कि कई डिब्बे तो बाहर से भी नीले होते हैं. इन डिब्बों को इंटीग्रल कोच कहते हैं. ये खास डिब्बे तमिलनाडु के चेन्नई वाली फैक्ट्री में तैयार होते हैं. जितनी भी ट्रेनों में नीले रंग के कोच लगे होते हैं, वो ज्यादातर ट्रेनें 70 से 140 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से चलती हैं. कुल मिलाकर कहें तो ट्रेन के डिब्बों का रंग ट्रेन की स्पीड को भी बताता है.
लाल रंग के डिब्बों की कहानी क्या है?
लाल रंग के कोच नीले वाले से थोड़े खास होते हैं. साल 2000 में इन्हें जर्मनी से भारत लाया गया था. लाल रंग के इन खास डिब्बों को लिंक हॉफमेन बुश कहा जाता है. ये कोच लोहे के नहीं बल्कि एल्युमीनियम के बने होते हैं और नीले डिब्बों को मुकाबले हल्के होते हैं. इन्हें एलएचबी कोच कहते हैं. ये कोच उन्हीं ट्रेनों में लगाए जाते हैं जिनकी स्पीड अच्छी होती है. एलएचबी कोच वाली ट्रेनों की रफ्तार 160 किलोमीटर प्रतिघंटे से 200 किलोमीटर प्रतिघंटे के बीच होती है.
भूरे रंग के कोच की कहानी?
आपने कई ट्रेनों के कोच को भूरे रंग का देखा होगा. इन ट्रेनों के अंदर का रंग और सीटों का रंग भी भूरा होता है. इन्हें मीटर गेज ट्रेन कहा जाता है. वहीं कुछ ट्रेनों का रंग हरा होता है, हरे रंग के कोच का इस्तेमाल आपको इस वक्त ज्यादातर गरीबरथ में मिलेगा. एक्सपर्ट्स की मानें तो अब रेलवे रंगों का इस्तेमाल इस नजरिए से करता है कि किन रंगों से यात्रियों को खुशी मिलेगी, जबकि पहले ऐसा नहीं था. पहले हर रंगा एक कोड होता था और इसी कोड के तहत ट्रेनों और उनके डिब्बों का रंग निर्धारित होता था.
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