Parts of Mind: अपनी डेली लाइफ में हम बहुत से ऐसे काम करते हैं जिनके लिए हमें कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ती है. इनमें सुबह उठकर ब्रश करना, चाय पीना, अख़बार पढ़ना आदि काम शामिल हैं. ऐसे कामों को रोज-रोज करने से हमें ऐसी आदत पड़ जाती है कि इनमें जरा भी दिमाग नहीं लगाना पड़ता है. हम ये काम कैसे करते हैं, यह बात हमारे ​दिमाग के सर्वर में अच्छे से फीड हो जाती है. बहुत से काम तो ऐसे भी होते हैं जिन्हें हम आंखें बंद करके भी निपटा सकते हैं जैसे सांस लेना, पानी पीना या मुंह पर हाथ फेरना आदि. आइए समझते हैं कि ऐसा कैसे होता है और हमारे दिमाग का सर्वर हमारी आदतों को लेकर कैसे काम करता है...


नया काम करता है कॉन्शस माइंड 
कुछ नए काम करने के या नई आदत डालने के लिए हमारे दिमाग को काफी मशक्कत करनी पड़ती है, लेकिन फिर भी रोजाना की प्रैक्टिस से हम इन नई चीजों की आदत डाल ही लेते हैं. काम करने को लेकर वैज्ञानिकों ने दिमाग को दो हिस्सों में बांटा है. जो हैं चेतन दिमाग या कॉन्शस माइंड और अवचेतन मन. जो काम हम ​रोजाना करते हैं, हमारे अवचेतन मन में वो काम अच्छे से बैठ जाते हैं. वहीं, कोई भी नया काम करने के लिए कॉन्शस माइंड को मेहनत करनी पड़ती है.


प्रयोग भी किया गया
न्यूरोसाइंटिस्ट डेविड ईगल मैन ने बीबीसी की एक टीवी सीरीज़ में कप को तरतीब से लगाने वाले दस साल के रिकॉर्ड होल्डर ऑस्टिन नेबर के साथ मुकाबला किया. मुकाबले के दौरान दोनों के ​दिमाग पर ईईजी यानी इलेक्ट्रोएन्सेफेलोग्राफी से नज़र रखी गई.


ऑस्टिन ने महज़ पांच सेकेंड में ही कप्स को कई बार तरतीब से लगा दिया, जबकि ईगल मैन ने इसके लिए अच्छी खासी मेहनत की. ​मुकाबले के दौरान ऑस्टिन का ​दिमाग बिल्कुल शांत था और ईगल मैन के जेहन में खलबली मची हुई थी. इसका कारण था, क़रीब तीन साल अभ्यास करने से ऑस्टिन के ​दिमाग को कप्स को तरतीब से लगाने की आदत हो चुकी थी. इसीलिए इसमें उसके ​दिमाग को कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी. वहीं ईगल मैन के लिए यह काम बिल्कुल नया इसलिए उनके ​दिमाग को अच्छी खासी मशक्कत करनी पड़ी. दोनों के काम करने में फर्क ये था कि ऑस्टिन कप सजाने का काम अवचेतन मन से कर रहा था और ईगल मैन यही काम अपने कॉन्शस माइंड से कर रहे थे.


अवचेतन मन से करते हैं ज्यादातर काम
हम ​रोजमर्रा के बहुत सारे काम अवचेतन ​दिमाग से ही करते हैं. उदाहरण के तौर पर कोई बल्लेबाज़ तेज़ रफ़्तार बाउंसर को हिट करके छक्का मारता है. अगर खिलाड़ी को इसकी आदत नहीं होगी तो वो चेतन मन या कॉन्शस माइंड से ये काम करेगा और जब तक उसका हाथ तेज़ी से आ रही गेंद को मारने के लिए उठेगा तब तक गेंद उसे चोटिल कर चुकी होगी.


खिलाड़ी इसके लिए ही बार-बार अभ्यास करते हैं ताकि उनके ​दिमाग में खेल खेलने की प्रक्रिया अच्छे से बैठ जाए. वैसे बहुत से महीन काम हम ऐसी ही ​दिमागी हालत में करते हैं. जैसे विपरीत लिंग को लुभाने का काम, गणित के सवाल हल करने का काम या अपनी विचारधारा को सियासी बनाने का काम. ये सभी काम अवचेतन ​दिमाग से ही होते हैं.


माइंड सेट का है सारा खेल
आपको जानकर हैरानी होगी लेकिन आप जो डिजाइन या विज्ञापन देखते हैं दरअसल, उसका उद्देश्य हमारे अवचेतन ​दिमाग को कंट्रोल करना ही होता है. विज्ञापन वाले अपने विज्ञापनों के जरिए ग्राहकों के मन में चाव पैदा करने की कोशिश करते हैं, जिससे जब भी आप मार्केट जाएं तो ऑटोमेटिकली आपका हाथ उनके प्रोडक्ट पर ही पड़े. शहर में ज्यादा सावधानी से गाड़ी चलाना भी अवचेतन ​दिमाग की हालत का ही उदाहरण है. अगर अपने ​दिमाग में हम कोई भी बात अच्छे से बैठा लें तो आगे चलकर बहुत से फैसले लेने में या कोई काम करने में हमें ज्यादा ​दिमाग नहीं लगाना पड़ता है.


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