नई दिल्ली: प्राण तत्व एक है. यह ब्रह्मांड में व्यापक रूप से व्याप्त है और इसे ब्रह्माग्नि कहा जाता है. यही पिंड सत्ता में समाया हुआ है और आत्माग्नि कहलाता है. इस प्रकार एक होते हुए भी विस्तार भेद से उसके दो रूप बन गए हैं. आत्माग्नि लघु है और ब्रह्माग्नि विभु.


जिस प्रकार तालाब को भरा पूरा और स्वच्छ रखने के लिए वर्षा जल की आवश्यकता होती है, उसी तरह आत्माग्नि में ब्रह्माग्नि का अनुदान पहुंचाना पड़ता है. इसी का नाम प्राणायाम है.


गहरी सांस लेकर फेफड़े के व्यायाम को भी आरोग्यवर्धक प्राणायाम कहते हैं. इससे शरीर को अधिक ऑक्सीजन मिलती है और श्वास यंत्रों का व्यायाम होता है, पर अध्यात्म शास्त्र का योग प्राणायाम उससे भिन्न है.


प्राण शक्ति के अभिवर्धन में कुंडलिनी जागरण में सूर्यभेधन जैसे प्राणायामों की भी आवश्यकता होती है.


आध्यात्मिक प्राणायाम वे हैं जिनमें ब्रह्मांडीय चेतना को जीव चेतना में सम्मिश्रित करके जीव सत्ता का अंत:तेजस जागृत किया जाता है. कुंडलिनी साधना में इसी स्तर के प्राणयोग की आवश्यकता रहती है.


सूर्यभेधन इसी स्तर का है. उसमें ध्यान धारणा अधिकाधिक गहरी होनी चाहिए और प्रचंड संकल्प शक्ति का पूरा समावेश रहना चाहिए. सांस खींचते समय महाप्राण को विश्वप्राण को पकड़ने और घसीट कर आत्मसत्ता के समीप लाने का प्रयत्न किया जाता है.


सांस में ऑक्सीजन की जितनी अधिक मात्रा होती है, उतनी ही उसे आरोग्यवर्धक माना जाता है. ऑक्सीजन की न्यूनाधिक मात्रा का होना क्षेत्रीय प्रकृति परिस्थितियों पर निर्भर है. लेकिन प्राण तो सर्वत्र समान रूप में संव्याप्त है. उसमें से अभीष्ट मात्रा संकल्प शक्ति के आधार पर उपलब्ध की जा सकती है.


अध्यात्म क्षेत्र में श्रद्धा को ही सबसे प्रबल और फलदायक माना गया है. साधनात्मक कर्मकांडों का फल परिपूर्ण मिलना न मिलना अथवा स्वल्प मिलना कर्मकांडों के विधि विधानों पर नहीं, बल्कि साधक की श्रद्धा पर निर्भर रहता है. श्रद्धा की न्यूनता ही साधनाओं के निष्फल जाने का प्रधान कारण होता है.


सूर्यभेधन के दो भाग हैं- पूर्वार्ध और उत्तरार्ध. पूर्वार्ध में गहरी सांस ली जाती है. सांस लेने के क्रम में अंतरिक्षीय प्राण शीतल होता है. उत्तरार्ध में सांस के लौटते समय अग्नि उद्दीपन, प्राण प्रहार की संघर्ष क्रिया से ऊष्मा बढ़ती और प्राण में सम्मिलित होती है. लौटता हुआ प्राण वायु उष्ण रहता है, इसलिए उसे सूर्य की उपमा दी गई है.


सोई हुई शक्ति का जगाना, लेटी हुई गिरी पड़ी क्षमता को सक्रिय बनाना शक्ति चालन है. इसका प्रयोग भी कुंडलिनी जागरण उपचार में किया जाता है. प्रसुप्त स्थिति की मूच्र्छना जब दूर हो जाती है और प्राण शक्ति प्रखर एवं सक्रिय होती है तो सारे अवसाद दूर हो जाते हैं.


जो योगी सिद्धि की इच्छा से शक्ति चालन का नित्य अभ्यास करता है उसके शरीर में सो रही सर्पिणी कुंडलिनी जागृत होकर स्वयं ही ऊध्र्वमुख हो जाती है. सदा अभ्यास करने पर उसे सिद्धि मिलती है तथा अणिमादि विभूतियां प्राप्त हो जाती हैं.


कुंडली ही मुख्य शक्ति है. ज्ञानी साधक उसका चालन करके दोनों भौहों के मध्य में ले जाता है तो वही शक्ति चालन है. कुंडलिनी को चलाने के दो मुख्य साधन हैं. सरस्वती का चालन और प्राण निरोध. इसके अभ्यास से लिपटी हुई कुंडलिनी सीधी हो जाती है.


नाभि से नीचे कुंडलिनी का निवास है. यह आठ प्रकृति वाली है. इसके आठ कुंडल हैं. यह प्राण वायु को यथावत करती है. अन्न और जल को व्यवस्थित करती है. मुख तथा ब्रह्मरंध्र की अग्नि को प्रकाशित करती है.


मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र तक सूर्य के प्रकाश जैसी सुषुम्ना नाड़ी फैली हुई है. उसी के साथ कमल तंतु से सूक्ष्म कुंडलिनी शक्ति बंधी हुई है. उसी के प्रकाश से अंधकार दूर होता है और पापों की निवृत्ति होती है.


प्राण का अग्नि पर प्रहार कुंडलिनी जागरण की प्रधान प्रक्रिया है. मेरुदंड के वाम भाग के विद्युत प्रवाह को इड़ा कहते हैं. नासिका से वायु खींचते हुए श्वांस को मेरुदंड मार्ग से मूलाधार चक्र तक पहुंचाया जाता है.


इड़ा से गया प्राण मूलाधार की प्रसुप्त सर्पिणी महा अग्नि पर आघात कर पिंगला मार्ग से वापस लौटता है जिसे प्रहार कहते हैं.


अनुलोम और विलोम क्रम कुंडलिनी जागरण के लिए प्रयुक्त होने वाला सूर्यभेदन प्राणायाम है, जिसमें एक बार श्वांस का इड़ा से जाना और पिंगला से लौटना होता है. दूसरी बार पिंगला से जाना और इड़ा से लौटना होता है.


सूर्यभेदन प्राणायाम का महात्म्य बताते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि यह कपाल शोधन, वात रोग निवारण, कृमि दोष विनाशक है. इसलिए सूर्यभेदन प्राणायाम को बार-बार करना चाहिए.