दिव्यदृष्टि बढ़ाने वाली साधनाओं में 'त्राटक' प्रमुख है. इसे बिंदुयोग भी कहते हैं. अस्त-व्यस्त, इधर-उधर भटकने वाली बाह्य और अंत:दृष्टि को किसी बिंदु विशेष पर, लक्ष्य विशेष पर एकाग्र करने को बिंदु साधना कह सकते हैं. त्राटक का उद्देश्य यही है. त्राटक में बाह्य नेत्रों एवं दीपक जैसे साधनों का उपयोग किया जाता है, इसलिए उसकी गणना स्थूल उपचारों में होती है.

बिंदुयोग में ध्यान धारणा के सहारे किसी इष्ट आकृति पर अथवा प्रकाश ज्योति पर एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है. दोनों का उद्देश्य एवं अंतर केवल भौतिक साधनों के प्रयोग करने की आवश्यकता रहने न रहने का है. आरंभिक अभ्यास की दृष्टि से त्राटक को आवश्यक एवं प्रमुख माना गया है. बिंदुयोग साधना की स्थिति आ जाने पर बाह्य त्राटक की आवश्यकता नहीं रहती.

त्राटक साधना में एकाग्र चित्त होकर निश्चल दृष्टि से सूक्ष्म लक्ष्य को तब तक देखा जाता है, जब तक आंखों में से आंसू न आ जाएं.

त्राटक साधना से नेत्र रोग और आलस्य प्रमाद दूर हो जाते हैं. प्राचीन काल में योग साधकों की नेत्रदृष्टि बहुत प्रबल होती थी. इसलिए उन पर अश्रुपात र्पयत (आंखों में से आंसू टपकने तक) देखते रहने का कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता था. इसलिए वैसा करने का निर्देश दिया गया था. आज की स्थिति में नेत्र शक्ति दुर्बल रहने से वैसा न करने की बात कही गई है. फिर भी, एकाग्र दृष्टि के उद्देश्य की पूर्ति प्राचीन और अर्वाचीन दोनों ही मान्यताओं के अनुसार आवश्यक है.

योग साधना में एकाग्रता का अत्यधिक महत्व है. मन:शक्तियों का बिखराव ही उस मनोबल के उत्पन्न होने में सबसे बड़ी बाधा है, जिस पर साधनाओं की सफलता निर्भर करती है.

त्राटक के माध्यम से किया गया एकाग्रता का अभ्यास समाधि की स्थिति तक ले जाता है. समाधि के साथ दिव्यदृष्टि का जागृत होना सर्व विदित है.

त्राटक विधियां अनेक प्रकार की हैं. कुछ लोग सफेद कागज पर काला गोला बनाते हैं. उसके मध्य में श्वेत बिंदु रहने देते हैं. इस पर नेत्रदृष्टि और मानसिक एकाग्रता को केंद्रित किया जाता है. अष्टधातु के बने तश्तरीनुमा पतरे के मध्य में तांबे की कील लगाकर उस मध्य बिंदु को एकाग्र भाव से देखते रहने का भी वैसा ही लाभ बताया जाता है. कहते हैं कि धातु के माध्यम से वेधक दृष्टि की शक्ति और भी अधिक बढ़ती है.

भारतीय योग शास्त्र के अनुसार, इसके लिए चमकते प्रकाश का उपयोग करना उपयुक्त माना गया है. सूर्य, चंद्र, तारे आदि प्राकृतिक प्रकाश पिंडों को या दीपक जैसे मानव कृत प्रकाश साधनों को काम में लाने का विधान है.

त्राटक के लिए एक ही प्रकाश बिंदु चाहिए, कई बिंदु होने पर दृष्टि भटकती है. इन सब कारणों को देखते हुए सिद्धांतत: भले ही सूर्य, चंद्र व तारों की बात कही जाती हो , लेकिन व्यवहारत: ये तीनों ही अनुपयुक्त हैं. यदि इन्हीं का उपयोग करना हो तो एक सेकेंड तक उन्हें देखने के बाद तत्काल नेत्र बंद कर लेने और फिर ध्यान धारणा से ही प्रकाश पर एकाग्रता का अभ्यास करना चाहिए.

त्राटक के अभ्यास में दीपक का प्रयोग ही अधिक उपयुक्त है. घृतदीप का उपयोग कई ²ष्टि से अधिक उपयुक्त माना गया है. पर यह शुद्ध ही होना चाहिए. मिलावटी या नकली घी की अपेक्षा शुद्ध तेल अधिक उत्तम है. मोमबत्ती का उपयोग भी किया जा सकता है. कम पावर के रंगीन बल्ब भी इस प्रयोजन की पूर्ति कर सकते हैं.

इनमें से जो भी उपकरण काम में लाना हो, उसे छाती की सीध में चार से दस फुट तक की दूरी पर रखना चाहिए. पीछे काला, नीला या हरा पर्दा टंगा हो अथवा इन रंगों से दीवार रंगी हों. प्रकाश ज्योति के इर्दगिर्द न्यूनतम वस्तुएं हों, अन्यथा ध्यान उनकी ओर बिखरेगा.

त्राटक के लिए प्रात:काल का समय सर्वोत्तम है, लेकिन इसे रात्रि में भी किया जा सकता है. दिन में सूर्य का प्रकाश फैला रहने से यह साधना का प्रभाव ठीक से नहीं होता. यदि दिन में ही करनी हो तो अंधेरे कमरे का प्रबंध करना चाहिए.

साधना के लिए कमर सीधी, हाथ गोदी में और पालथी मारकर सीधे बैठना चाहिए. वातावरण में घुटन, दरुगध, मक्खी, मच्छर जैसी चित्त में विक्षोभ उत्पन्न करने वाली बाधाएं न हों. यह अभ्यास दस मिनट से आरंभ कर इसे एक-एक मिनट बढ़ाते हुए एक-दो महीने में अधिक से अधिक आधे घंटे तक पहुंचाया जा सकता है. इससे अधिक नहीं किया जाना चाहिए .

खुले नेत्र से प्रकाश ज्योति को दो से पांच सेकेंड तक देखना चाहिए और आंखें बंद कर लेनी चाहिए. जिस स्थान पर दीपक जल रहा है, उसी स्थान पर उस ज्योति को ध्यान नेत्रों से देखने का प्रयत्न करना चाहिए. एक मिनट बाद फिर नेत्र खोल लिए जाएं और पूर्ववत कुछ सेकेंड खुले नेत्रों से ज्योति का दर्शन करके फिर आंखें बंद कर ली जाए. इस प्रकार प्राय: एक-एक मिनट के अंतर से नेत्र खोलने और कुछ सेकेंड देखकर फिर आंखें बंद करने और ध्यान द्वारा उसी स्थान पर ज्योति दर्शन की पुनरावृत्ति करते रहनी चाहिए.

त्राटक का उद्देश्य दीपक पूजा नहीं, बल्कि ध्यान भूमिका में प्रखरता उत्पन्न करना है.

ध्यान के दो रूप हैं-एक साकार, दूसरा निराकार. दोनों को ही प्रकारांतर में दिव्य नेत्रों से किया जाने वाला त्राटक कहा जा सकता है. देव प्रतिमाओं की कल्पना करके उनके साथ तदाकार होने को साकार ध्यान कहते हैं. निराकार उपासना में मनुष्याकृति की देव छवियों को इष्टदेव मानने की आवश्यकता नहीं पड़ती. उस प्रयोजन के लिए प्रकाश ज्योति की स्थापना की जाती है.