BRICS India: दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में होने वाला सालाना शिखर सम्मेलन ब्रिक्स का 15वां समिट होगा. भारत की ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसमें हिस्सा लेंगे. इसके पीएम मोदी 22 से 24 अगस्त के बीच जोहान्सबर्ग की यात्रा पर रहेंगे.


ऐसे तो ब्रिक्स का हर सालाना शिखर सम्मेलन इसके सदस्यों के लिए कूटनीतिक तौर से महत्वपूर्ण होता है, लेकिन इस बार का समिट कई वजहों से बेहद ख़ास है. उसमें भी भारतीय हितों के नजरिए से सोचें, तो भारत के लिए जोहान्सबर्ग समिट का मायने बढ़ जाता है.


2019 के बाद पहली बार साक्षात सम्मेलन


इस बार के समिट की पहली ख़ासियत यही है कि ब्रिक्स देशों के राष्ट्राध्यक्ष या सरकारी प्रमुख वर्चुअल तरीके से नहीं, बल्कि आमने- सामने एक दूसरे से रूबरू होंगे. हालांकि सिर्फ़ रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इस समिट के लिए दक्षिण अफ्रीका नहीं आएंगे. वे वर्चुअली इसका हिस्सा बनेंगे. 2019 के बाद ये पहला मौका होगा, जब ब्रिक्स समिट में सदस्य देशों के प्रतिनिधि व्यक्तिगत रूप से (First in-person) मौजूद रहेंगे.


आखिरी बार नवंबर 2019 में ब्राजील में हुए समिट में सदस्य देशों के राष्ट्र प्रमुख साक्षात मौजूद थे.  कोरोना महामारी की वजह से 2020 और 2021 का  समिट वीडियो वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से हुआ था. उसी तर्ज़ पर जून 2022 में भी चीन की मेजबानी में 14वां ब्रिक्स समिट वर्चुअल तरीके से ही हुआ था. रूस के राष्ट्रपति पुतिन पहले ही जोहान्सबर्ग आने से मना कर चुके हैं. माना जा रहा है कि यूक्रेन से युद्ध को लेकर अंतरराष्ट्रीय क्रिमिनल कोर्ट से पुतिन के खिलाफ वारंट जारी होने की वजह से ऐसा हो रहा है. चूंकि दक्षिण अफ्रीका अंतरराष्ट्रीय क्रिमिनल कोर्ट का सदस्य है. इस वजह से पुतिन दक्षिण अफ्रीका को किसी दुविधा में नहीं डालना चाहते हैं.


मोदी-जिनपिंग होंगे आमने-सामने


समिट वर्चुअल नहीं हो रहा है और रूस को छोड़कर भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और चीन के राष्ट्र प्रमुख या सरकारी प्रमुख जोहान्सबर्ग में एक-दूसरे के आमने-सामने होंगे. ये भारत के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग जोहान्सबर्ग आएंगे. जैसा ही हम सब जानते हैं कि पिछले 3 साल से वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी LAC पर तनाव की वजह से भारत और चीन के रिश्ते काफी खराब हुए हैं. हम कह सकते हैं कि दोनों देशों के बीच संबंध सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है.



हालांकि दोनों ही देश सीमा पर शांति बहाली के उपायों पर अमल करने के लिए अलग-अलग कूटनीतिक चैनलों से संवाद की प्रक्रिया भी जारी रखे हुए हैं.  ऐसे में जोहान्सबर्ग में एक मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का मौजूद होना द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज़ से भी कूटनीतिक मायने रखता है.  कायदे से ये समूह का समिट है और द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज़ इस मंच का कोई ज्यादा संबंध नहीं है, लेकिन समिट से इतर मोदी और जिनपिंग के बीच औपचारिक बातचीत की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. अगर ऐसा हुआ तो सीमा पर तनाव से बिगड़े रिश्ते में थोड़ी सुधार की गुंजाइश बढ़ सकती है.


ब्रिक्स के संभावित विस्तार पर नज़र


ब्रिक्स के 15वें समिट पर न सिर्फ़ इसके सदस्य देशों की निगाहें हैं, इस बार इस समिट पर पूरी दुनिया की नज़र टिकी है. इसका कारण ब्रिक्स के संभावित विस्तार से जुड़ा पहलू है. पिछले कुछ सालों से ब्रिक्स को लेकर दुनिया में आकर्षण बढ़ा है. फिलहाल जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, ब्रिक्स में 5 सदस्य हैं. BRICS का हर लेटर इसके सदस्य देशों के नाम का पहला अक्षर है. इसमें ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन और दक्षिण अफ्रीका सदस्य हैं. लेकिन अब ब्रिक्स के प्रति बढ़ते आकर्षण की वजह से कई देश इसकी सदस्यता चाहते हैं. जोहान्सबर्ग समिट में ब्रिक्स के संभावित विस्तार को लेकर कोई ऐलान हो सकता है. यही वजह है कि अमेरिका समेत यूरोप और बाकी महाद्वीप के देशों की भी नज़र इस पर है. जोहान्सबर्ग में  होने वाले समिट में इस मुद्दे के छाए रहने की पूरी संभावना है.


संभावित विस्तार और भारत की चिंता


ब्रिक्स का संभावित विस्तार ही वो पहलू है, जो भारत के कूटनीतिक हितों के नजरिए से सबसे ख़ास है. अब तक ब्रिक्स का विस्तार कैसे होगा, इसको लेकर कोई सिद्धांत या पैमाना तय नहीं है. यही वो विषय है, जिससे ब्रिक्स के विस्तार का पूरा मामला पेचीदा हो जाता है.



इस समूह के अस्तित्व में आने के बाद अब तक सिर्फ़ एक बार किसी नए देश को स्थायी सदस्य बनाया गया है. BRICS पहले BRIC था. इसमें दक्षिण अफ्रीका शामिल नहीं था. दक्षिण अफ्रीका ने 2010 में इस समूह का स्थायी सदस्य बनने के लिए कोशिश शुरू की. उसके इस समूह का सदस्य बनने की प्रक्रिया की औपचारिक शुरुआत अगस्त 2010 में हुई. दक्षिण अफ्रीका आधिकारिक तौर से 24 दिसंबर 2010 को इस समूह का स्थायी सदस्य बन गया और फिर BRIC से समूह का नाम BRICS हो गया. दक्षिण अफ्रीका का इस समूह का सदस्य बनना पूरी तरह से सर्वसम्मति से निर्धारित हुआ था.


मौजूदा वैश्विक व्यवस्था में कूटनीति


आज के वैश्विक व्यवस्था में अब ब्रिक्स की अहमियत काफी बढ़ गई है. रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू होने के बाद पूरी वैश्विक व्यवस्था में तीन तरह के कूटनीतिक सिद्धांतों का दबाव बनने लगा है. पहला अमेरिका समेत पश्चिम देशों का गुट है, इसमें यूरोप के विकसित देशों के साथ ही जापान, ऑस्ट्रेलिया जैसे देश भी शामिल हैं. इस गुट की मंशा होती है कि वैश्विक व्यवस्था में उन नीतियों को ज्यादा से ज्यादा जगह मिले जिससे रूस और चीन जैसे देशों पर नकेल कसने में मदद मिले. वहीं दूसरा गुट रूस और चीन के साथ ही उसके समर्थन में रहने वाले देशों का है, इनमें कुछ कंबोडिया जैसे देशों के अलावा तुर्की और ईरान जैसे अरब देश  शामिल हैं. इस गुट की मंशा अमेरिका और पश्चिमी देशों को घेरने की रहती है. यानी अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ ही रूस और चीन का मुख्य ज़ोर वैश्विक व्यवस्था को दो ध्रुवीय बनाने पर ज्यादा रहता है.


इन दो गुटों के अलावा वैश्विक व्यवस्था में भारत और उसके जैसी सोच रखने वाले कई एशियाई और अफ्रीकी देशों का भी एक कूटनीतिक सिद्धांत समानांतर तरीके से काम कर रहा है. भारतीय विदेश नीति का आधार दो ध्रुवीय विश्व व्यवस्था नहीं है, बल्कि भारत बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था का हिमायती है. इसके साथ ही वो पश्चिमी गुट और रूस-चीन जैसे देशों के गुटों में तालमेल बनाकर भी चलना चाहता है. ये हमारी विदेश नीति के उस पहलू का हिस्सा है, जिसमें भारतीय हितों को सर्वोच्च मानकर उसके लिहाज़ से किसी देश के साथ संबंधों का निर्धारण होता है.


ब्रिक्स के संभावित विस्तार से जुड़ा जो पहलू है, उस पर गौर करने के लिए वैश्विक व्यवस्था के इन तीन तरह के कूटनीतिक सिद्धांतों को समझने की ज़रूरत है. ब्रिक्स के विस्तार में भारत की चिंता के तार  भी इसी से जुड़े हैं.


ब्रिक्स सदस्यता को लेकर कई देशों की रुचि


विस्तार को लेकर भारत की चिंता और उससे जुड़ी भारतीय हितों को समझने से पहले ये जान लेते हैं कि दुनिया के कौन-कौन से देश ब्रिक्स की सदस्यता को लेकर ज्यादा उत्सुक हैं.  40 से ज्यादा देश सदस्यता हासिल करने में रुचि दिखा रहे हैं. ईरान, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, कजाकिस्तान, इंडोनेशिया और अर्जेंटीना के साथ ही  मिस्र,  बांग्लादेश, क्यूबा, कांगो, कोमोरोस, गैबन और गिनी बिसाऊ भी ब्रिक्स की सदस्यता को लेकर ख़ास इच्छुक नज़र आ रहे हैं. केपटाउन में जून की शुरुआत में हुई ब्रिक्स के विदेश मंत्रियों की बैठक में इन देशों ने या तो अपने प्रतिनिधि भेजे थे या फिर वर्चुअल तरीके से शामिल हुए थे.


इनके अतिरिक्त भी कई देश हैं जो  सदस्यता को लेकर रुचि दिखा रहे हैं. इनमें अल्जीरिया, बहरीन, बेलारूस, मैक्सिको, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, निकारगुआ, नाइजीरिया, ज़िम्बाब्वे, सेनेगल, सूडान, सीरिया, थाईलैंड, ट्यूनीशिया, तुर्किये, वेनेजुएला और उरुग्वे शामिल हैं. ब्रिक्स सदस्यता को लेकर  इतने ज्यादा देशों की रुचि को देखते हुए इस समूह की अहमियत को बखूबी समझा जा सकता है.


ऐसे तो 40 से ज्यादा देश हैं, जिनकी बिक्स की सदस्यता को लेकर रुचि है, लेकिन 8 ऐसे देश हैं, जो इस समूह का हिस्सा बनने फिलहाल ज्यादा प्रयास कर रहे हैं.  इनमें ईरान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कजाकिस्तान, इंडोनेशिया, मिस्र, इथोपिया और अर्जेंटीना शामिल हैं.


विस्तार के विरोध में नहीं है भारत


ब्रिक्स के विस्तार को लेकर 2020 से चर्चा तेज़ हुई है. रूस और चीन विस्तार को लेकर ख़ासे उत्साहित हैं. विस्तार को लेकर रूस और चीन दबाव भी बना रहे हैं. भारत ब्रिक्स के विस्तार के विरोध में नहीं है. भारती की चिंता दूसरी है. ये अलग बात है कि भारतीय चिंता को इस तरह से प्रसारित करने की कोशिश की गई है कि भारत ब्रिक्स का विस्तार नहीं चाहता है. लेकिन इसमें लेशमात्र भी सच्चाई नहीं है. अगस्त की शुरुआत में ही विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने इस तरह की अटकलों को निराधार, बेबुनियाद और मनगंढत बताया था.


विस्तार को लेकर विरोध नहीं, बल्कि चिंता


ये सच है कि भारत ब्रिक्स के विस्तार का विरोध नहीं कर रहा है, लेकिन विस्तार को लेकर भारत की चिंता ज़रूर है. भारत की चिंता का दो पहलू है. पहला विस्तार से ब्रिक्स समूह की प्रासंगिकता न केवल बरकरार रहे, बल्कि मौजूदा वैश्विक जियो पॉलिटिकल हालात में ब्रिक्स की प्रासंगिकता और भी बढ़े. विस्तार के बाद ब्रिक्स को लेकर दुनिया के तमाम मुल्कों में नकारात्मक छवि नहीं जाए, भारतीय चिंता का एक प्रमुख बिंदु यही है. भारतीय चिंता का दूसरा पहलू भारत के हितों से जुड़ा है. भारत ब्रिक्स के विस्तार को किसी ख़ास देश के एजेंडे का हिस्सा नहीं बनना देना चाहता है.  ऐसा होने से भारत के हितों को नुकसान पहुंच सकता है.


भारतीय चिंता की वजह क्या है?


फिलहाल ब्रिक्स में नए सदस्य के तौर पर कौन देश जुड़ सकता है, इसको लेकर कोई तय नीति या सिद्धांत नहीं है.  दक्षिण अफ्रीका को 2010 में जोड़ा गया था. उस वक्त समूह के सभी चार सदस्य देशों की सहमति के आधार पर ये फैसला किया गया था. ब्रिक्स का विस्तार रायशुमारी के बाद सर्वसम्मति के आधार पर होता है. दक्षिण अफ्रीका को सदस्य बनाए जाने में यही कसौटी थी. अब रूस और चीन का ब्रिक्स के विस्तार को लेकर जो उतावलापन है, उसमें भारत की कोशिश ये है कि ब्रिक्स ऐसा संगठन या संस्था न बन जाए, जो दो ध्रुवीय विश्व व्यवस्था को बढ़ावा दे. भारत की चिंताओं से ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका भी इत्तेफाक रखते हैं.


भारत बहुध्रुवीय दुनिया के पक्ष में है. भारतीय विदेश नीति का ये अहम हिस्सा है. भारत अपनी चिंताओं से बस इसे ही सुनिश्चित करना चाहता है. पिछले दो साल में भारत ने अपनी चिंताओं से सदस्य देशों को अलग-अलग तरीके से परिचित भी कराया है. इस साल जून की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका में ही ब्रिक्स के सदस्य देशों की बैठक हुई थी. उसमें भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने विस्तार को लेकर भारत का पक्ष और रुख दोनों ही स्पष्ट तरीके से रख दिया था. भारत के लिए विस्तार में खुले दिमाग और सकारात्मक इरादा सबसे महत्वपूर्ण पहलू है. भारत के लिए ब्रिक्स के विस्तार का मुद्दा संवेदनशील है.


चीन और रूस विस्तार को लेकर उतावले


चीन और रूस विस्तार को लेकर जिस तरह से उतावले दिख रहे हैं, उसमें इसकी संभावना बन सकती है कि ये दोनों ही देश विस्तार के बहाने ब्रिक्स को पश्चिमी देशों के विरोध का एक मंच या ठिकाना बना दे. ऐसे भी ब्रिक्स को लेकर लंबे वक्त से इस तरह की बातें होते रही हैं कि ये समूह वैश्विक व्यवस्था में दुनिया के सबसे मजबूत आर्थिक ताकतों के मंच जी 7 का प्रतिद्वंद्वी है. अब अगर अमेरिका और पश्चिमी देशों की नीतियों की खुलेआम आलोचना करने वाले ईरान जैसे मुल्कों को ब्रिक्स में जगह दे दी गई तो इस समूह पर पश्चिमी देशों के विरोध के लिए एक मंच होने का टैग लग सकता है. ये न तो ब्रिक्स जैसी संस्था के विश्वसनीयता के लिहाज़ से उचित है और न ही भारतीय हितों के नजरिए से उपयुक्त है.


पश्चिमी देशों का विरोधी मंच न बने ब्रिक्स!


भारत के लिए इस वक्त अमेरिका समेत यूरोप के तमाम देश बेहद महत्वपूर्ण हैं. वे चाहे जर्मनी हो या फ्रांस, चाहे ब्रिटेन गो या इटली और नीदरलैंड्स. साथ ही जापान और ऑस्ट्रेलिया इंडो पैसिफिक रीजन में भारत के लिए सामरिक महत्व रखने वाले देश हैं. पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि भारत और अमेरिका की साझेदारी बेहद मजबूत हुई है. चाहे रक्षा सहयोग का क्षेत्र हो या फिर तकनीक सहयोग का विषय..भारत को लेकर अब अमेरिका का नजरिया वैसा नहीं रहा है, जैसा तीन दशक पहले तक हुआ करता था. आर्थिक पहलू से भी अब अमेरिका की अहमियत भारत के लिए काफ़ी ज्यादा है. भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार अमेरिका ही है.  फ्रांस के साथ भी भारत का रक्षा सहयोग काफ़ी बढ़ा है. स्पष्ट तौर से कहें तो रूस की चीन के साथ बढ़ती नजदीकियों को देखते हुए रक्षा सहयोग के संदर्भ में अमेरिका और फ्रांस वर्तमान और भविष्य दोनों के लिहाज़ से भारत की रक्षा जरूरतों के लिए कूटनीति तौर से प्रासंगिक हैं. इन सब पहलुओं को देखते हुए भारत कतई नहीं चाहेगा कि ब्रिक्स पर ऐसा कोई टैग लगे कि ये पश्चिमी देशों का विरोधी मंच है.


इंडो पैसिफिक रीजन में संतुलन


इंडो पैसिफिक रीजन में चीन के विस्तारवादी और आक्रामक रवैया और उससे निपटने की रणनीति में क्वाड के तले अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ साझेदारी भारत के लिए काफ़ी कूटनीतिक मायने रखता है.  रूस और चीन अपने कूटनीतिक हितों को साधने के हिसाब से ब्रिक्स के विस्तार को वैसा रूप न दे, ये इंडो पैसिफिक रीजन में भारतीय हितों को सुरक्षित रखने के लिए जरूरी है. ब्रिक्स की महत्ता अपनी जगह है, लेकिन चीन के खतरे को देखते हुए भारत के लिए इंडो पैसिफिक रीजन में पावर ऑफ बैलेंस को बनाए रखना बेहद जरूरी है. इस नजरिए से भारत के लिए क्वाड समूह का भी उतना ही महत्व है. ब्रिक्स के विस्तार में इस संतुलन को साधने पर भी भारत की नज़र है.


बहुध्रुवीयता का प्रतीक बने ब्रिक्स


भारत का भी ये मानना है कि ब्रिक्स अब कोई विकल्प है. ब्रिक्स अब वैश्विक व्यवस्था में विशेष और सामरिक महत्व रखता है. भारत इसे बहुध्रुवीयता का प्रतीक भी मानता है. जिस तरह से ब्रिक्स के सदस्य देश अंतरराष्ट्रीय पटल पर बड़ी आर्थिक ताकत पर अपना रुतबा स्थापित कर चुके हैं, वैसे में ब्रिक्स अब अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों से निपटने के कई तरीकों की अभिव्यक्ति भी करता है और वैश्विक एजेंडा पर नेतृत्व करने की भी क्षमता भी इस समूह में है. फिलहाल ब्रिक्स देशों में दुनिया की 40 फीसदी से ज्यादा आबादी रहती है. लैंड एरिया कवरेज के हिसाब से समूह में दुनिया का करीब 27 फीसदी लैंड सरफेस आ जाता है. वैश्विक अर्थव्यवस्था में इन देशों का एक बड़ा हिस्सा है. ब्रिक्स देशों का हिस्सा वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में  करीब 30% है.  ब्रिक्स की ताकत इन आंकड़ों से जाहिर है.


विस्तार के हर पहलू पर हो गौर


भारत विस्तार के विरोध में नहीं है. भारत की मंशा विस्तार से पहले कुछ चीज़ों को सुनिश्चित करने की है. भारत चाहता है कि विस्तार से जुड़े हर पहलू पर सदस्य देशों के बीच रायशुमारी उस स्तर तक हो, जिससे हर सदस्य देशों की चिंताओं और कूटनीतिक जरूरतों को महत्व मिल सके. भारत पहले विस्तार के मानकों, मानदंडों और प्रक्रियाओं के साथ ही मार्गदर्शक सिद्धांतों को तय करना चाहता है. भारत की मंशा है कि इस मसले से जुड़े हर पहलू पर गौर हो. साथ ही विस्तार से और किसी ख़ास देश को सदस्य बनाए जाने से वैश्विक व्यवस्था पर किस तरह का असर पड़ेगा, इस पर भी मंथन भारतीय हितों के लिहाज़ से जरूरी है. विस्तार में सदस्य देशों के बीच आपसी सहयोग को लेकर भी कोई सिद्धांत होना चाहिए. भारत इसे भी सुनिश्चित करना चाहता है.


विस्तार में निजी एजेंडा के लिए जगह नहीं


ब्रिक्स के विस्तार से जुड़ा एक और पहलू है, जिसका संबंध भारतीय चिंताओं से है. ब्रिक्स के जो मौजूदा सदस्य हैं, उनका गैर-ब्रिक्स देशों के साथ कैसा संबंध या जुड़ाव है, उस पर भी विचार होना चाहिए. किसी देश के निजी हित या एजेंडे को पूरा करने के लिए विस्तार नहीं होना चाहिए. किसी भी देश का व्यक्तिगत एजेंडा स्वीकार नहीं जाए, भारत इसे सुनिश्चित करना चाहता है. दक्षिण अफ्रीका का भी ऐसा ही मानना है कि विस्तार को लेकर कोई मसौदा जब तक फाइनल न हो जाए, उस पर सभी देशों की सहमति नहीं बन जाए, इस दिशा में आगे बढ़ना समूह के लिए सही नहीं होगा.


अब ये देखना दिलचस्प रहेगा कि जोहान्सबर्ग समिट में इस मसले पर सभी सदस्य देशों के बीच किसी मसौदे पर सहमति बन पाती है या नहीं.  जून में विदेश मंत्रियों की बैठक में दक्षिण अफ्रीका ने कहा भी था कि सालाना शिखर सम्मेलन तक विस्तार से जुड़ी कोई प्रक्रिया या नीति तैयार हो जाती है, तो फिर उस पर विचार किया जाएगा. ब्राजील का भी कमोबेश ऐसा ही नजरिया है.


भारत की चिंताओं से स्पष्ट है कि विस्तार में किसी ख़ास देश को सिर्फ़ इस कारण से शामिल नहीं किया जाए कि उस देश के साथ रूस या चीन के संबंध कितने गहरे हैं. दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील के लिए ये संवेदनशील मसला है.


विस्तार के पीछे रूस-चीन की मंशा


विस्तार पर दो साल ब्रिक्स के शेरपाओं को बीच बातचीत चल रही है. चीन दबाव बना रहा है कि  ईरान और सऊदी अरब को ब्रिक्स का जल्द से जल्द सदस्य बना दिया जाए. इन दोनों देशों के साथ चीन का संबंध पिछले कुछ समय से काफी मजबूत हुआ है. भारत बिक्स को गुटबाजी का केंद्र नहीं बनने देना चाहता है.


रूस और चीन फिलहाल जिस नीति पर आगे बढ़ रहे हैं, अगर ब्रिक्स के विस्तार में वे उस मंशा को पूरा करने में कामयाब हो जाते हैं, तो ये न सिर्फ़ भारत के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. यूक्रेन युद्ध के बाद रूस और चीन के बीच नजदीकियां बढ़ी हैं. वहीं चीन के साथ भारत के रिश्ते में तल्ख़ियां बढ़ी है.


अपने एजेंडे को बढ़ाना चाहते हैं रूस-चीन


वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में एक गुट अमेरिका की अगुवाई में पश्चिमी देशों का नजर आ रहा है, तो दूसरा गुट रूस-चीन की अगुवाई में अपने हितों को साधने में जुटा है. रूस और चीन, पश्चिमी देशों के दबदबे को चुनौती देने की नीति पर आगे बढ़ रहे हैं. यूक्रेन युद्ध के बात इसकी गति और तेज हुई है. दोनों ही देश अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने में जुटे हैं. इसके लिए गोलबंदी करने से भी पीछे नहीं हट रहे हैं. ब्रिक्स के विस्तार में ये पहलू काफी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि रूस के साथ मिलकर चीन चाहेगा कि विस्तार इस तरह से हो कि भविष्य में ब्रिक्स का इस्तेमाल अमेरिकी या पश्चिमी देशों के गुट के प्रभुत्व को कम करने में हो.


सोवियत संघ के विघटन के बाद पिछले 3 दशक में अमेरिका का विश्व व्यवस्था में दबदबा रहा है. रूस और चीन इसी दबदबे को खत्म करने के लिए एक-दूसरे से हर क्षेत्र में सहयोग बढ़ा रहे हैं. सैद्धांतिक तौर से भले ही दोनों देश बहुध्रुवीय दुनिया की बात करते हैं, लेकिन वास्तव में रूस और चीन का जो आक्रामक और विस्तारवादी रवैया है, उससे साफ जाहिर है कि वो दोनों मिलकर पश्चिमी देशों के खिलाफ एक मजबूत गुट बनाना चाहते हैं. ब्रिक्स के विस्तार में भी रूस और चीन की कुछ ऐसी मंशा हो सकती है. चीन, रूस के साथ मिलकर उन देशों को जगह देने की कोशिश करेगा, जो उनके लिए ज्यादा फायदेमंद होंगे.


क्या पूरे हो पाएंगे रूस-चीन के मंसूबे


रूस-चीन के मंसूबों और इरादों को देखते भारत की यही कोशिश रहेगी कि चीन और रूस मिलकर विस्तार के नाम पर ब्रिक्स को पश्चिमी विरोधी गुट न बना दें. ब्रिक्स में ऐसा न हो कि अमेरिकी विरोधी देशों की संख्या बढ़ जाए. अगर ईरान जल्द ब्रिक्स का सदस्य बन जाता है तो इसकी संभावना बढ़ जाती है. भारत का हित जितना रूस के साथ बेहतर संबंध में है, अब अमेरिका भी भारतीय हितों के लिहाज से उतना ही महत्वपूर्ण देश बन गया है या कहें कि कुछ मामलों में रूस से भी ज्यादा महत्व वाला देश होते जा रहा है.


भारत का संतुलन बनाने पर ज़ोर


जिस तरह से ईरान को लेकर चीन और रूस दोनों ही दबाव बढ़ा रहे हैं, भारत संतुलन बनाने पर ज़ोर दे रहा है. दक्षिण अफ्रीका जाने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 18 अगस्त को ईरान के राष्ट्रपति सैय्यद इब्राहिम रायसी से टेलीफोन पर बातचीत की. इस दौरान दोनों नेताओं ने द्विपक्षीय संबंधों की मजबूती के साथ ही  ब्रिक्स के विस्तार के मसले पर भी बात की.


अमेरिका और रूस के बीच संतुलन बनाकर भारत चल रहा है. भारत दो ध्रुवीय दुनिया के पक्ष में कभी नहीं रहा है.  अब तो भारत की स्थिति भी वैश्विक व्यवस्था में इतनी मजबूत है कि वो अपना भी एक ध्रुव बना सकता है. हालांकि भारतीय विदेश नीति में इसके लिए कोई जगह नहीं है.


भारत वैश्विक राजनीति में सबको साथ लेकर चलने में भरोसा करता है. इसी का प्रमाण है कि बतौर जी 20 अध्यक्ष भारत ने  'वन अर्थ, वन फैमिली, वन फ्यूचर' थीम को अपनाया भी है. इसका मतलब ही है कि भारत की विदेश नीति किसी गुट के जरिए ध्रुवीकरण के पक्ष में कभी नहीं रहा है. भारत की नीति सभी गुटों के साथ तालमेल बनाकर चलना है. साथ ही ये भी सुनिश्चित करना चाहता है कि वो किसी गुट का हिस्सा न बन सके या ऐसा कोई संदेश भी न जाए, जिससे दुनिया को ये लगे कि भारत गोलबंदी में लगा है. बस इसी पक्ष को लेकर ब्रिक्स के विस्तार के मसले पर भी भारत आगे बढ़ना चाह रहा है.


डॉलर की बादशाहत को खत्म करने पर ज़ोर


दक्षिण अफ्रीका में होने वाले सालाना समिट में एक और मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण रहेगा. ये मसला अंतरराष्ट्रीय व्यापार और वित्तीय लेन-देन में डॉलर की बादशाहत से जुड़ा है. ब्रिक्स समूह इसी बादशाहत को न्यू डेवलपमेंट बैंक या ब्रिक्स बैंक के जरिए खत्म करना चाहता है. इन देशों का मुख्य ज़ोर अंतरराष्ट्रीय व्यापार में स्थानीय मुद्राओं के प्रचलन पर ज़ोर हो.  ब्रिक्स समूह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की व्यवस्था में सुधार प्रक्रिया को भी जल्द से जल्द पूरा करने पर ज़ोर देता रहा है. ब्रिक्स इस प्रक्रिया को  15 दिसंबर तक पूरा करने के लिए दबाव भी बना रहा है, ताकि आईएमएफ में नया कोटा फॉर्मूला जाए और इसमें अमेरिकी वर्चस्व को कम किया जाए. फिलहाल अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में अमेरिका का कोटा सबसे ज्यादा है. यहीं वजह है कि इस वैश्विक संस्था के निर्णयों में अमेरिकी प्रभुत्व रहता है.


स्थानीय मुद्रा में व्यापार को बढ़ावा


ये भी बात सही है कि भारत समेत एशिया के कई देश डॉलर के प्रभुत्व से परेशान है. यूक्रेन से युद्ध के बाद अमेरिका और पश्चिमी देशों ने रूस के कच्चे तेल के व्यापार में डॉलर से लेनदेन पर पाबंदी लगा रखी है. इससे भारत को भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. भारत भी चाहता है कि स्थानीय मुद्रा में व्यापार को बढ़ावा मिले और डॉलर पर भारतीय अर्थव्यवस्था की निर्भरता धीरे-धीरे कम हो.


जो भी देश ब्रिक्स समूह में शामिल होने की मंशा रखते हैं, उनमें से कई देश ऐसे हैं, जो रूस और चीन के करीबी होने के नाते डॉलर की बजाय दूसरी मुद्राओं में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के हिमायती हैं.  अब बिक्स के संभावित विस्तार के जरिए रूस और चीन दोनों ही चाहेंगे कि भविष्य में डॉलर की बजाय अंतरराष्ट्रीय व्यापार में रूबल और युआन का महत्व बढ़े. भारत भले ही डॉलर पर निर्भरता कम करना चाहता है, लेकिन उसे इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि ब्रिक्स के विस्तार के बहाने रूस और चीन अपने एजेंडे को इस मामले में भी न साध लें.


BRIC से BRICS तक का सफर


ब्रिक्स समूह निवेश के अवसरों को पहचानने और सदस्य देशों के बीच आर्थिक सहयोग को बढ़ाने के मकसद से अस्तित्व में आया था. इस समूह के अस्तित्व में आए हुए दो दशक से ज्यादा का वक्त हो गया है. शुरुआत में  इस समूह में 4 ही देश थे.. ब्राजील, रूस, इंडिया और चीन.  तब समूह का नाम BRIC था.  उस वक्त के सबसे ताकतवर निवेश बैंक  Goldman Sachs में काम करने वाले अर्थशास्त्री जिम ओ'नील ने 2001 में ब्राजील, रूस, इंडिया और चीन इन 4 देशों को ब्रिक समूह के तौर पर वर्गीकृत किया था.  उनका मानना था कि तेजी से उभरती ये 4 अर्थव्यवस्थाएं 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था पर सामूहिक रूप से हावी होंगी.


रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में 2006 में G8 समूह के सालाना सम्मेलन के साथ ही इन 4 देशों के नेताओं के बीच मुलाकात हुई थी. सितंबर 2006 में न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के सालाना बैठक के दौरान इन 4 देशों के विदेश मंत्रियों की औपचारिक बैठक में समूह को BRIC नाम दिया गया. इस समूह का पहला शिखर सम्मेलन जून 2009 में रूस के येकाटेरिंगबर्ग में  हुआ. तब से इसका सालाना समिट होने लगा. 2010 में दक्षिण अफ्रीका के सदस्य बनने से ये समूह BRICS हो गया.


ब्रिक्स समूह का भविष्य बेहद उज्ज्वल


जिस तरह से ब्रिक्स को लेकर बाकी मुल्कों में दिलचस्पी बढ़ते जा रही है, ये कहा जा सकता है कि ब्रिक्स समूह का भविष्य बेहद उज्ज्वल है. एक दौर ऐसा भी आया था जब ब्रिक्स की प्रासंगिकता को लेकर सवाल उठने लगे थे. पिछले दो साल में जिस तरह से कई देशों ने ब्रिक्स की सदस्यता को लेकर इच्छा जाहिर की है, कहा जा सकता है कि भविष्य में ब्रिक्स दुनिया का सबसे ताकतवर मंच बन सकता है.


फिलहाल ब्रिक्स में शामिल सदस्य वो देश हैं जिनमें वैश्विक अर्थव्यवस्था में हलचल होने पर भी घरेलू अर्थव्यवस्था को संभालने और उसमें विकास की गति बनाए रखने की क्षमता और संभावनाएं भी है. साथ ही वैश्विक मांग और आपूर्ति की व्यवस्था को भी संभालने की ताकत है.  यही वजह है कि तमाम अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अगले 3 दशक में ब्रिक्स के मौजूदा सदस्य देश दुनिया में कच्चे माल, उद्योग, विनिर्माण और सेवाओं के सबसे प्रमुख आपूर्तिकर्ता होंगे. भारत और चीन की स्थिति उद्योग, विनिर्माण और सेवाओं के आपूर्ति के मामले में काफी मजबूत है और भविष्य में इसमें और मजबूती आएगी. वहीं कच्चे माल को लेकर रूस और ब्राजील का भविष्य उज्ज्वल है.


विस्तार से वैश्विक व्यवस्था पर असर


ब्रिक्स की अहमियत तो देखते हुए अब पूरी दुनिया की नजर इस पर टिकी है कि जब 22 से 24 अगस्त के बीच सदस्य देशों के राष्ट्र प्रमुख जोहान्सबर्ग में जुटेंगे तो ब्रिक्स के नए प्रारूप को लेकर क्या घोषणा होगी. इतना तो तय है कि भविष्य में ब्रिक्स के विस्तार से वैश्विक व्यवस्था यानी ग्लोबल ऑर्डर में महत्वपूर्ण बदलाव होने जा रहा है क्योंकि विस्तार होने से समूह का दायरा आर्थिक और भौगोलिक के साथ ही मानव संसाधन के नजरिए से और बढ़ेगा. इसके अलावा वैश्विक कूटनीति में ब्रिक्स की भूमिका का भी विस्तार होगा.


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