पीएम मोदी 15वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में हिस्सा शामिल होने के लिए मंगलवार की सुबह दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग के लिए रवाना हो गए. उन्होंने जाते हुए ये विश्वास जताया कि ब्रिक्स सम्मेलन सदस्य देशों को भविष्य के सहयोग के क्षेत्रों की पहचान करने और संस्थागत विकास का जायजा लेने का उपयोगी अवसर देगा. प्रधानमंत्री की तरफ से जारी बयान में उन्होंने कहा कि ब्रिक्स देश विभिन्न क्षेत्रों में एक मजबूत सहयोग एजेंडा अपना रहे हैं. इसके साथ ही, उन्होंने कहा कि “हम मानते हैं कि ब्रिक्स विकास संबंधी अनिवार्यताओं और बहुपक्षीय प्रणाली में सुधार सहित पूरे ‘ग्लोबल साउथ’ के लिए चिंता का सबब बने विभिन्न मुद्दों पर चर्चा और विचार-विमर्श करने का मंच बन गया है.”


हालांकि, बाद में पीएम मोदी ने सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर पोस्ट करते हुए कहा, “जोहानिसबर्ग में आयोजित होने वाले ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए दक्षिण अफ्रीका रवाना हो रहा हूं. मैं ‘ब्रिक्स-अफ्रीका आउटरीच’ और ‘ब्रिक्स प्लस डायलॉग’ कार्यक्रमों में भी शामिल होऊंगा. ब्रिक्स शिखर सम्मेलन ‘ग्लोबल साउथ’ के लिए चिंता का सबब बने विभिन्न मुद्दों और विकास के अन्य क्षेत्रों पर चर्चा करने के वास्ते मंच प्रदान करेगा.”


ब्रिक्स सम्मेलन क्यों खास?


यह साल 2019 के बाद ब्रिक्स नेताओं का पहला आमने-सामने का शिखर सम्मेलन होगा. ब्रिक्स देशों में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं. ब्रिक्स सम्मेलन इस बार कई मायने में खास है और पूरी दुनिया की इस पर नजर लगी रहेगी. जानकारों की मानें तो चीन ब्रिक्स का विस्तार कर इसे पश्चिमी देशों के सामने इसे खड़ा करना चाहता है, जो उसे चुनौती दे पाए. इसके लिए यूएई से लेकर पाकिस्तान तक कई देशों ने ब्रिक्स में शामिल होने की अपनी इच्छा जताई है.


एबीपी की डिजिटल टीम के साथ बात करते हुए अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफेसर हर्ष वी. पंत बताते हैं कि ब्रिक्स के विस्तार को लेकर इस वक्त टेंशन तो चल रहा है. इस समय रूस-चीन की जो विदेश नीति है, वो मुख्य रूप से एंटी वेस्ट है. दोनों ही देशों की पश्चिमी देशों, ख़ासकर अमेरिका, के साथ तनातनी बनी हुई है. रूस और चीन एक-दूसरे के बहुत ही करीब आते जा रहे हैं.


उनका ये मानना है कि ब्रिक्स जहां शुरू हुआ था, उसमें भारत जैसे देश के लिए ये आशा थी कि अगर चीन जैसा प्रभावशाली देश उसके अंदर है तो ये भारतीय हितों के लिए अच्छा होगा. ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को भी आशा होगी कि ब्रिक्स के अंदर चीन को कैसे बैलेंस कर पाएंगे. ब्रिक्स का जो सिद्धांत है वो कन्सेन्शूअल बेस्ड है. सर्वसम्मति से फैसला होता है. चीन को जो विस्तारवादी और आक्रामक रवैया रहता है, उसको कंट्रोल किया जा सकता है ब्रिक्स के जरिए, ऐसी आशा भारत के साथ ही ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका की भी रही होगी.



यूक्रेन से युद्ध शुरू होने के बाद रूस की जो स्थिति बनी है, उसमें उसे चीन के एक जूनियर पार्टनर के तौर पर देखा जा रहा है. दोनों ही देश एक-दूसरे के करीब आ रहे हैं. उनकी विदेश नीति में पश्चिमी विरोध बहुत ज्यादा है.


एंटी वेस्ट एजेंडा


हर्ष वी. पंत का ये कहना है कि जब ब्रिक्स की शुरुआत हुई थी, तो ये माना गया था कि ये दुनिया की बढ़ती हुई.. उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं हैं और इन अर्थव्यवस्थाओं को वैश्विक संस्थानों ...ख़ासकर वित्तीय संस्थानों ...में ज्यादा प्रतिनिधित्व और महत्व मिलना चाहिए.


अगर हम शुरू का ब्रिक्स का एजेंडा देखें तो वो ज्यादा इसी पर था कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के ऊपर पश्चिमी देशों की जो मोनोपॉली है, कैसे उसको तोड़ा जा सके. अब ब्रिक्स के अंदर दूसरी समस्या आ गई है. चीन काफी प्रभावशाली हो गया. रूस और चीन के संबंध इतने अच्छे हो गए हैं कि दोनों देश ब्रिक्स को एंटी वेस्टर्न मंच दिखाने की कोशिश जरूर करेंगे. भारत और बाकी देश ब्राजील, साउथ अफ्रीका चाहेंगे कि ब्रिक्स को इस तरह से प्रोजेक्ट नहीं किया जाए.



ब्रिक्स में अभी 5 देश हैं और उनके अंदर परेशानियां बढ़ रही हैं. भारत और चीन के बीच विवाद है. रूस और चीन समूह को एंटी वेस्टर्न पहचान देना चाहते हैं, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ऐसा नहीं चाहते हैं. 5 ही देश है, फिर भी अंदर से विस्तार से जुड़े कुछ मुद्दों को लेकर मतभेद बने हुए हैं.जब तक वे मतभेद सुलझ नहीं जाते मुझे लगता है कि तब तक ब्रिक्स का विस्तार करना सही नीति नहीं होगी.