पाँचवें सबसे बड़े तेल उत्पादक देश यूएई में हो रहे कॉप28 से अपेक्षाएं
यह जलवायु को लेकर यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेन्शन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) की कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज की 28वीं बैठक है, इसलिए इसे 'कॉप28' नाम दिया गया है.
![पाँचवें सबसे बड़े तेल उत्पादक देश यूएई में हो रहे कॉप28 से अपेक्षाएं COP28 in Dubai chaired by fifth largest oil producer country United Arab Emirates have highly expectations पाँचवें सबसे बड़े तेल उत्पादक देश यूएई में हो रहे कॉप28 से अपेक्षाएं](https://feeds.abplive.com/onecms/images/uploaded-images/2023/12/04/73f16946dbde25342e29005500c9b6c01701667488672120_original.jpg?impolicy=abp_cdn&imwidth=1200&height=675)
संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की राजधानी दुबई में हो रहे क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस में दुनिया भर के 200 देशों के सरकारी प्रतिनिधि, कार्यकर्ता और सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने, जीवाश्म इंधन पर निर्भरता कम करने और जलवायु परिवर्तन से प्रभावी ढंग से निपटने के तरीकों पर चर्चा कर रहे हैं. बैठक की शुरुआत में ही दो महत्वपूर्ण परिस्थितियाँ स्पष्ट रूप से सामने है कि हम तेज़ी से जलवायु आपदा की तरफ़ बढ़ रहे है और सरकारी स्तर पर इससे निबटने के लिए किए जाने वाले प्रयास नाकाफ़ी है. यह जलवायु को लेकर यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेन्शन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) की कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज की 28वीं बैठक है, इसलिए इसे 'कॉप28' नाम दिया गया है. कॉप की सालाना बैठक की अवधारणा 1992 के रियो पृथ्वी सम्मेलन में बनी और 1995 मे 'कॉप1' के रूप में बर्लिन में वजूद में आया और तब से एक-दो साल छोड़ कर हर साल आयोजित होता रहा है.
इस साल यूएई की अध्यक्षता में 28 नवंबर से 12 दिसंबर तक आयोजित किया गया है. शुरुआती सालों में कॉप का आयोजन छोटे स्तर पे होता था पर जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन की विभीषिका सामने आती गयी और उसके रोकथाम के लिए किये गए प्रयास नाकाफी साबित होते गए, जलवायु परिवर्तन का ये इस सालाना बैठक महत्वपूर्ण होता गया. ऐसी ही शुरुआती दौर में ही एक बैठक ‘कॉप8’ भारत में तात्कालिक प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 2002 में आयोजित हुई थी, जो युरोपियन संघ के क्योटो प्रोटकाल के प्रति नकारात्मक रवैए के लिए जाना जाता है, हालाँकि तब भी मुद्दा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए ज़रूरी कटौती के सवाल पर विकसित और विकासशील देश के बीच विभेदित ज़िम्मेदारी का ही था.
वैश्विक जलवायु संगोष्ठी के विगत 27 संस्करणों में कई महत्वपूर्ण पड़ाव आये जिसमें मुख्य रूप से 'कॉप-3' जहाँ से तत्कालिक क्योटो प्रोटोकॉल और 'कॉप-21' जहाँ से पेरिस जलवायु समझौते का प्रारूप सामने आया. हालाँकि क्योटो प्रोटोकॉल विकसित देशों के अड़ियल रुख और आपसी खींचतान में असफल साबित हुआ. यहाँ तक कि क्योटो प्रोटोकॉल की विफलता के बाद भी पेरिस समझौता भी पश्चिम के नकारात्मक रुख़ का शिकार होता था है, जिसमें 2017 में तात्कालिक अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा समझौते से कदम वापस खींच लेना शामिल है.
वैसे तो पश्चिमी देशों के रुख अभी भी उसी ढर्रे पर है, पर विगत कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों जैसे भीषण गर्मी, जंगल को आग, बाढ़, चक्रवाती तूफ़ान आदि से अब विकसित देश खुद ही बड़े स्तर पर परेशान हो रहे है. वही विकासशील देश बदलते वैश्विक परिदृश्य में जलवायु परिवर्तन के रोकथाम के प्रयास को ‘क्षमता के अनुसार समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्व के सिद्धांत’ के लिए प्रभावी संगठनों जैसे ब्रिक्स, के माध्यम से और मुखर हो रहे है.
इस बैठक में 2015 पेरिस समझौते को लागू करने में वैश्विक प्रगति का पहला आकलन भी हो रहा है. पेरिस समझौते के बाद पिछले आठ सालो में वैश्विक स्तर पर किए गए प्रयासों पर आधारित आकलन के निष्कर्षों के अनुसार दुनिया इस सदी के अंत तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की दिशा में नहीं है. अभी ही तापमान 1.1-1.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है. पेरिस समझौते के बाद से वैश्विक प्रगति के आकलन में स्पष्ट है कि सभी देश अपने अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान के आधार पर भविष्य के लिए योजनाएं बना कर क्रियान्वयन भी कर रहे है लेकिन वैश्विक उष्मन और जलवायु परिवर्तन की गति इतनी तेज है कि, वैश्विक स्तर के प्रयास नाकाफ़ी साबित हो रहे हैं, जिससे समय सीमा के अंदर वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता. हालांकि विकसित देश 'क्षमता के अनुरूप समान परन्तु विभेदित उत्तरदायित्व' सिद्धांत की मनमानी व्याख्या कर विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के लिए गैर- न्यायपूर्ण तरीके ‘अनिवार्य उत्सर्जन’ को भी अपने ‘लक्ज़री उत्सर्जन’ के समकक्ष मान उन्हें जिम्मेदार ठहराते रहे हैं.
दुबई में ‘कॉप28’ वार्ता की शुरुआत जोरदार रही है. इस दौरान कॉप-28 के दौरान अब तक का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण फैसला लिया गया है. विभिन्न देशों ने जलवायु संकट में सबसे कम या नगण्य योगदान देने के बावजूद इसका खामियाजा भुगतने वाले विकासशील और गरीब देशों को नुक़सान और क्षतिपूर्ति कोष के तहत मुआवजा देने के बारे में स्वागत योग्य समझौता हुआ है, जो निश्चित ही इस मंच को महत्वाकांक्षी निर्णयों के लिए एक सशक्त आधार तैयार करता है. सनद रहे कि पिछले साल मिस्र के शर्म अल-शेख में आयोजित ‘कॉप27’ में अमीर देशों ने हानि और क्षति कोष स्थापित करने पर सहमति ज़रूर व्यक्त की थी, पर कोई तकनीकी प्रगति नहीं हो पायी थी. हालांकि, धन आवंटन, लाभार्थियों और अमल के संबंध में निर्णय एक समिति को भेजे गए थे.
नुक़सान और क्षतिपूर्ति कोष पर बनी सहमति के अनुसार कोष के लिए विकसित देश के अलावा निजी पक्ष भी योगदान दे सकते हैं. कोष के आवंटन में जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे अधिक जोखिम वाले देशों को प्राथमिकता दी जाएगी पर कोई भी जलवायु संकट से प्रभावित समुदाय या देश इस कोष का लाभार्थी हो सकता है. विकासशील देश ‘नुक़सान और क्षतिपूर्ति कोष’ के रख रखाव और क्रियान्वयन के लिए एक नयी और स्वतंत्र इकाई चाहते थे पर फ़िलहाल अनिच्छा से ही विश्व बैंक को स्वीकार करना पड़ा. एक साल के भीतर ही .नुक़सान और क्षतिपूर्ति कोष. पर अमली प्रगति इसीलिए भी ख़ास है क्यूँकि पेरिस समझौते के इतने साल बाद भी विकसित देशों द्वारा बनने वाले जलवायु कोष का 100 विलियम डॉलर का लक्ष्य अब तक भी हासिल नहीं किया जा सका है, जो कि गरीब और विकासशील देशों के जलवायु लक्ष्यों के ऊर्जा और तकनीकी बदलाव के लिए ज़रूरी है.
इस बीच अपने संबोधन में भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी विकासशील और ग्लोबल साउथ के देशों की तरफ से बात रखते हुए कहा कि भारत सहित ग्लोबल साउथ के तमाम देशों की जलवायु संकट के विकराल स्वरूप तक आ जाने में भूमिका बहुत कम रही है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव उन पर कहीं अधिक हैं. संसाधनों की कमी के बावजूद ये देश क्लाईमेट एक्शन के लिए प्रतिबद्ध हैं. ग्लोबल साउथ की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जलवायु क़ोष के त्वरित क्रियान्वयन और ज़रूरी तकनीक के स्थानांतरण पर बल दिया और साथ ही साथ विकसित देशों को 2050 तक कार्बन फ़ुट्प्रिंट शून्य करने का लक्ष्य भी याद दिलाया.
निवर्तमान कॉप बैठक एक अलग क़िस्म के विरोधाभास के साये में हो रहा है. कॉप बैठक का मुख्य मुद्दा जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता काम करना रहता है पर पिछले कुछ बैठको में जीवाश्म ईंधन के लिए लॉबी की खबरें भी सामने आयी है. यहाँ तक कि कॉप27 के साथ ही मेज़बान देश पर युरोप के साथ गैस के लिए व्यावसायिक समझौते का इल्ज़ाम लगा. वर्तमान मेज़बान देश यूएई विश्व का पाँचवा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है और कॉप28 के अध्यक्ष खुद सरकारी तेल उत्पादक कम्पनी के मुखिया है जिन्होंने साल 2027 तक तेल उत्पादन में शीर्ष वृद्धि का लक्ष्य निर्धारित कर रखा है. इसके साथ साथ पूरा विश्व रुस-यूक्रेन और इजराइल-हामास युद्ध के कारण अपनी ऊर्जा सुरक्षा के लिए किसी भी क़ीमत पर जीवाश्म इंधन की आपूर्ति सुनिश्चित करना चाहता है.
ऐसी परिस्थिति में मौजूदा बैठक से जीवाश्म इंधन के खपत में कमी सम्बन्धी फ़ैसले की उम्मीद कराना एक चमत्कार की उम्मीद जैसा है. वो अलग बात है कि भारत की अध्यक्षता वाली जी20 समूह पहले ही ग़ैर परम्परागत ऊर्जा उत्पादन को तीन गुना करने की वकालत कर चुका है, हालाँकि वर्तमान मेज़बान देश ने अपनी अध्यक्षा को गंभीर और प्रभावी दिखाने के उदेश्य से ‘नुक़सान और क्षतिपूर्ति कोष’ पर सहमति के तुरंत बाद ही ₹400 मिलियन योगदान की घोषणा कर दीं और साथ ही साथ ‘कॉप28’ में जलवायु परिवर्तन से जुड़े सभी मुद्दों पर चर्चा और आम सहमति बनाने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी दोहराई जिसमें ग्लोबल स्टॉकटेक के आकलन के आधार पर नयी दिशा निर्देश भी शामिल है जिसके आधार पर जलवायु संकट से निबटने के प्रयास तेज किए जा सकें.
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