जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों के मुहानों पर बैठी दुनिया के लिए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन सीओपी 27 कई मायनों में खास रहा है. मिस्र के शर्म अल-शेख में  20 नवंबर को यूएन ने जलवायु समझौते का फाइनल मसौदा पेश किया और ये पल भारत के लिए यादगार बन गया.


इसकी वजह रही समझौते के अमल में लाए जाने वाले 16 भागों (Clause) में से एक में भारत के दिए दो सुझावों का शामिल होना. मसौदे के मिटिगैशन क्लॉज (Mitigation Clause) में ये दोनों सुझाव हैं. मिटिगैशन का मतलब किसी अनहोनी से होने वाले नुकसान या नुकसान की मात्रा में कमी लाना है, ताकि कम से कम नुकसान हो.


यहां मसौदे के इस हिस्से का मतलब जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करने वाली कोशिशों से हैं. जिसमें कार्बनडाइऑक्साइड (सीओ 2), मीथेन (सीएच 4),नाइट्रस ऑक्साइड (एन 2ओ), हाइड्रोफ्लूरोकार्बन (एचएफसी) जैसी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने की कोशिशें शामिल हैं, जिससे धरती के बढ़ते तापमान पर काबू पाया जा सके.


ये गैसें ही धरती का तापमान बढ़ाने के लिए जवाबदेह है. सीओपी27 में भारत के दिए पहले सुझाव में ऊर्जा लिए बेतहाशा इस्तेमाल होने वाले कोल पॉवर में कमी लाने  की कोशिशों में चरणबद्ध तरीके से तेजी लाना और दूसरे में अप्रभावी जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से खत्म के किए जाने की बात की गई है.


इसके साथ ही दूसरे सुझाव में राष्ट्रीय परिस्थितियों के मुताबिक सबसे गरीब और कमजोर लोगों को योजनाबद्ध मदद दिए जाने का भी जिक्र है. इसमें जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाली आपदाओं के प्रति संवेदनशील देशों को आर्थिक मदद दी जाएगी. इस अहम मसौदे में भारत के सुझावों का शामिल होना साबित करता है कि दुनिया में देश का कद लगातार बढ़ रहा है.


सीओपी 27 के मसौदे में भारत की अहमियत


यूएन के जलवायु समझौते के मसौदे में शामिल मिटिगेशन वाला हिस्सा जलवायु परिवर्तन की वजह से बदलाव के दौर से गुजर रही दुनिया में हरित अर्थव्यवस्थाओं यानी जस्ट ट्रांजिशन (Just Transition) का समर्थन करने पर जोर देता है. जस्ट ट्रांजिशन का मतलब सभी को साथ लेकर काम के अच्छे अवसर पैदा कर अर्थव्यवस्था को सही तरीके से हरा-भरा करने की प्रक्रिया से है. इसमें धरती की अर्थव्यवस्थाओं को सोच-समझकर ग्रीन अर्थव्यवस्थाओं में तब्दील करने की बात की गई है, जिससे किसी भी तरह का नुकसान न हो.


ये जस्ट ट्रांजिशन खास तौर पर प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन वाली अर्थव्यवस्थाओं को सुधार वाली अर्थव्यवस्थाओं में तब्दील कर राजनीतिक और आर्थिक ताकत बनने की वकालत करता है. इस तरह की अर्थव्यवस्थाओं के लिए उत्पादन और खपत चक्रों को पूरी तरह से वेस्ट-फ्री करना जरूरी है और इसमें सबसे बड़ी बाधा जीवाश्म ईंधन सब्सिडी है. आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) और अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए)  के मुताबिक वैश्विक स्तर पर 2021 में जीवाश्म ईंधन सब्सिडी दोगुनी हो गई है. ये जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में एक बड़ी रुकावट है.


दुनिया की अहम अर्थव्यवस्थाएं जीवाश्म ईंधन  कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस के उत्पादन और खपत को बड़े पैमाने पर समर्थन दे रही है. ये जीवाश्म ईंधन सब्सिडी सरकार की तरफ से इस तरह के ईंधन के लिए दी गई माली सरकारी मदद (धनराशि) है. ये सब्सिडी जीवाश्म ईंधन से होने वाले ऊर्जा उत्पादन की लागत को कम करती है, ऊर्जा उत्पादकों को मिलने वाली कीमतों में बढ़ोतरी करती है और ऊर्जा का इस्तेमाल करने वाले उपभोक्ताओं की भुगतान कीमतों में कमी लाती है. इसकी वजह से जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए जरूरी "अधिकतम मौजूद संसाधनों" का फंड इस सब्सिडी को चला जाता है और नतीजा ये होता है कि सब्सिडी मिलने से जीवाश्म ईंधन की असली लागत पर किसी का ध्यान नहींं जाता. कुछ जलवायु परिवर्तन विश्लेषकों का मानना है कि जीवाश्म ईंधनों की छिपी हुई लागत जैसे  एयर पॉल्यूशन और ग्लोबल वार्मिंग पर उनके असर को अनदेखा करना भी एक तरह की सब्सिडी है. 


संयुक्त राष्ट्र के जारी शुरुआती मसौदे में कोयले के लिए फेजडाउन की जगह "फेज-आउट" शब्द का इस्तेमाल किया गया था. कोयले को फेज-आउट करने का मतलब कोयले पर पूरी तरह से रोक लगाना है, जबकि फेजडाउन का मतलब कुल ऊर्जा में कोयले के अनुपात को कम करना है. ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट ग्रीनहाउस गैसों के लिए जवाबदेह जीवाश्म ईंधन और कोयले के इस्तेमाल को कम करने की साफ तस्वीर पेश करने वाला पहला जलवायु समझौता रहा. बीते साल सीओपी 26 में साइन हुए इस ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट के मसौदे में पहले कोयले के इस्तेमाल को 'चरणबद्ध तरीके से खत्म करने का वायदा हुआ था, लेकिन भारत की आपत्ति के बाद इसे हटा दिया गया था.


आखिर विकासाशील देशों के कोयले के इस्तेमाल को पूरी तरह खत्म न करके कम करने पर सहमति बनी. इसमें "बेअसर जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने का भी जिक्र था.इस साल संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन सीओपी 27 में "लॉस एंड डैमेज" फंड बनाने पर समझौता हुआ है. "लॉस एंड डैमेज" जलवायु परिवर्तन से आने वाली आपदाओं की वजह से होने वाले विनाश को बताता है. ये सीओपी 27 के अहम मुद्दों में से एक रहा था.


इसमें सबसे गरीब और सबसे कमजोर लोगों को योजनाबद्ध मदद देने पर सहमति भी बनी. इसका मतलब आर्थिक संसाधनों की कमी और जलवायु परिवर्तन से आने वाली आपदाओं के लिए संवेदनशील देशों को जलवायु वित्त यानी फंड दिया जाएगा. भारत सहित गरीब और विकासशील देश लंबे वक्त से  से निपटने के लिए जलवायु फंड की मांग कर रहे थे. ये फंड जलवायु-प्रेरित आपदाओं से प्रभावित देशों को कई तरह से मदद करेगा. इसमें बाढ़ से विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए आवश्यक रकम मुहैया करवाने जैसे काम भी शामिल है. 


यूएन मसौदे में "सभी जीवाश्म ईंधन का फेजडाउन" नहीं शामिल  


सीओपी 27 (COP27) में भारत ने कहा कि वह चाहता है कि दुनिया के देश न केवल कोयले को ही फेज डाउन यानी कुल ऊर्जा के लिए कोयले के अनुपात को ही कम न करें बल्कि सभी जीवाश्म ईंधन को फेज डाउन करने के लिए तैयार हों. हालांकि मसौदे में केवल कोयले के फेज डाउन का जिक्र है. इसमें सभी जीवाश्म ईंधन शामिल नहीं हैं.


सीओपी 27 में पहली बार दुनिया के देशों ने बेतहाशा कोयला शक्ति के इस्तेमाल में चरणबद्ध तरीके से कमी लाने की दिशा में कोशिशों को तेज करने का वादा किया. संयुक्त राष्ट्र के जलवायु विज्ञान पैनल की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए भारत ने कहा  कि 2030 तक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल में पर्याप्त कमी होनी चाहिए. यूएन की इस रिपोर्ट में कहा गया था कि देशों को जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 2030 तक उत्सर्जन को आधा करना चाहिए.


मिटिगैशन क्लॉज के अन्य अहम पहलू


सीओपी 27 के मसौदे के फाइनल यानी निर्णायक मिटिगैशन क्लॉज देशों को प्रौद्योगिकियों के विकास, उन्हें बढ़ाने (अपनाने) और प्रसार में तेजी लाने को कहता है. इसके लिए मसौदा ऐसी नीतियों को अपनाने को कहता जो कम उत्सर्जन ऊर्जा प्रणालियों की तरफ बढ़ने के साथ ही साफ उर्जा उत्पादन (Clean Energy) और ऊर्जा की खपत को कम करने वाले तरीकों को तेजी से लागू करें. इसके साथ ही बेतहाशा इस्तेमाल की जा रही कोल पॉवर (कोयले से पैदा होने वाली बिजली) में चरणबद्ध तरीके से कटौती और बेअसर या अप्रभावी जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को खत्म करने की कोशिशों में तेजी लाना है.


दरअसल 2015 में भारत के साथ ही  दुनिया के 200 से अधिक देशों ने जलवायु परिवर्तन को लेकर पेरिस समझौते पर साइन किए थे. इसमें  दुनिया के तापमान को 1.5 डिग्री से अधिक न बढ़ने देने वायदा किया गया था. इसमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने का भी जिक्र था. इसका मतलब यह है कि इस समझौते पर साइन करने वाले सभी देशों को प्रौद्योगिकियों का विकास, उन्हें बढ़ाना और लागू करना चाहिए और उन नीतियों को अपनाना चाहिए जो उन्हें ऐसी ऊर्जा प्रणालियों की तरफ बढ़ने में मदद करेंगी जो कम मात्रा में प्रदूषण फैलानी वाली गैसों को छोड़ती हैं. ये क्लॉज देशों को उन तरीकों को अपनाने के लिए भी कहता है जो स्वच्छ ऊर्जा पैदा करना संभव बनाते हैं और ऊर्जा खपत कम करने वाले यानी एनर्जी एफिशिएंट हैं.


क्यों खत्म होनी चाहिए अप्रभावी जीवाश्म ईंधन सब्सिडी?


अक्षय उर्जा यानी रिन्यूबल एनर्जी  की तरफ बढ़ने में सबसे बड़ी वित्तीय बाधा जीवाश्म ईंधनों को मिलने वाली सब्सिडी है. दुनिया भर की सरकारें हर साल जीवाश्म ईंधनों के दाम कम रखने के लिए करीबन 5 खरब डॉलर खर्च करती हैं. यह नवीकरणीय ऊर्जा पर किए जाने वाले खर्च से 3 ज्यादा है. इसे खत्म करने के प्रस्तावों बाद भी हालात नहीं बदले हैं. इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईए) ने 2021  की रिपोर्ट के मुताबिक कि नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन के लिए आने वाले वर्षों में सभी सरकारों को जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को खत्म करना होगा. गौरतलब है कि बीते साल सीओपी26 में पीएम नरेंद्र मोदी ने 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन प्राप्त करने का लक्ष्य रखा.


यूएन के मुताबिक नेट जीरो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को जीरो के नजदीक लेकर जाना है और ये तभी संभव है जब कोई भी देश वातावरण में केवल ग्रीन हाउस गैसा का उसके सोखे जाने लायक ही उत्सर्जन करता है. इसके साथ ही भारत का साल 2030 तक 45 फीसदी कार्बन उत्सर्जन कम करने का वादा है. देश ने परंपरागत ऊर्जा क्षमता को 50 फीसदी अक्षय ऊर्जा में बदलने का लक्ष्य भी रखा है. इसके लिए दुनिया के देशों को ऐसे कदम उठाने चाहिए जो बेरोकटोक इस्तेमाल की जा रही कोल पॉवर में चरणबद्ध तरीके से कम करने में मदद करें. इसके साथ ही बेकार की जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से खत्म करें, क्योंकि ये देशों की हरित अर्थव्यवस्था की राह में रोड़ा बनती है.


भारत नहीं डालेगा छोटे किसानों पर बोझ 


संयुक्त राष्ट्र के मसौदे में "लॉस एंड डैमेज फंड" का जिक्र किया गया है. इसे भारत ने  यह कहते हुए "ऐतिहासिक" करार दिया है कि दुनिया ने इसके लिए बहुत लंबा इंतजार किया. भारत के केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने सीओपी 27 के समापन सत्र में कहा कि भारत कृषि और खाद्य सुरक्षा में क्लाइमेट एक्शन पर काम करने के लिए एक 4 साल का कार्यक्रम तैयार कर रहा है.


उन्होंने साफ किया कि कृषि, जो कि लाखों छोटे किसानों की आजीविका का मुख्य साधन है, जलवायु परिवर्तन से बुरी तरह प्रभावित होगी. जिसकी वजह से उन पर कार्बन उत्सर्जन कम करने का बोझ नहीं  डाला जाना चाहिए. यादव ने कहा कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए भारत ने अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) से कृषि में मिटिगैशन को बनाए रखा है, जो पेरिस समझौते का अहम मकसद है. एनडीसी उत्सर्जन में कटौती करने के लिए एक क्लाइमेट एक्शन प्लान है. 


भारत की रिन्यूबल एनर्जी की पहल


केंद्रीय मंत्री यादव ने सीओपी 27 में कहा कि भारत अब तक दुनिया के कुल उत्सर्जन के 4 फीसदी से कम के लिए जिम्मेदार होने के बावजूद जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए पुरजोर कोशिशों को अंजाम दे रहा है. जबकि देश का सालाना प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत का लगभग एक-तिहाई ही है. पर्यावरण मंत्री ने यह भी कहा कि भारत ने वैकल्पिक ऊर्जा संसाधनों के तौर रिन्यूबल एनर्जी, ई- मोबिलिटी, इथेनॉल-मिश्रित ईंधन और हरित हाइड्रोजन में नई पहल की तरफ कदम बढ़ाया है. 


ग्लोबल "जस्ट ट्रांजिशन" कैसे हासिल हो सकता है?


भारत के केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने सीओपी 27 के समापन सत्र में साफ किया कि "जस्ट ट्रांजिशन" को कम कार्बन विकास के साथ जोड़ा जा सकता है. लो-कार्बन विकास, विकास के एक ऐसे पैटर्न को बताता है जिसका मकसद बढ़ती हुई आर्थिक समृद्धि पर असर डाले बगैर एक ही वक्त में  कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को जितना हो सके उतना कम करना है. उन्होंने आखिर में कहा कि विकसित देशों का क्लाइमेट एक्शन की अगुवाई करना ग्लोबल "जस्ट ट्रांजिशन" का एक बेहद अहम पहलू है.