सिडनी के उस मंच पर जब ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री अल्बानीज ने प्रधानमंत्री को आमंत्रित करते हुए उनके परिचय में अपने भारी एक्सेंट में कहा, 'मिस्टर मोडी इज बॉस', तो जाहिर था कि भारत की विदेश नीति कम से कम एक चक्र तो पूरा कर ही चुकी है. राजनय यानी डिप्लोमैसी में बॉडी-लैंग्वेज का बड़ा महत्व होता है. अगर हम सिडनी के उस मंच पर ऑस्ट्रेलिया और भारत के प्रधानमंत्रियों की देहभाषा को देखें तो वह खुलेपन की थी, मित्रता की थी और अनौपचारिक औपचारिकता की थी. उनकी हंसी उन्मुक्त थी और मिलना-मिलाना सहज था, कूटनीति और राजनीति के बोझ तले दबा हुआ नहीं था. इसीलिए, जब ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री ने पीएम मोदी की तुलना 'ब्रूस स्प्रिंग्सटीन' से की, तो आम तौर पर गंभीर रहनेवाले विदेश मंत्री एस जयशंकर भी पीछे बैठकर हंस रहे थे. आखिर, एक रॉकस्टार से अपने पीएम की लोकप्रियता की तुलना उस विदेश मंत्री को क्यों न भाएगी, जिस रॉकस्टार के 7 करोड़ से अधिक रिकॉर्ड बिके हैं. आखिर, जयशंकर को अक्खड़ विदेशमंत्री भी तो माना जाता है, तो लोकप्रियता की कोई भी कमाई उनके लिए बोनस ही है.
बदलती विश्व व्यवस्था में 'उत्तिष्ठ भारत'
प्रधानमंत्री मोदी ने कभी कहा था कि भारत न किसी से आंख झुका कर बात करेगा, न आंख दिखाकर बात करेगा, तो अब वही हो रहा है. भारतीय विदेश नीति में बड़ा बदलाव हुआ है. जैसा कि हम जी7 बैठक के लिए हिरोशिमा में पहुंचे पीएम के साथ भी देख सकते हैं. वहां चीन और रूस को जी7 देशों ने खुलकर चेतावनी दी और भारत के हितों को लेकर सहमति जताई. भारत जी20 के अध्यक्ष के नाते वहां शिरकत करने गया था और पूरी मजबूती से उस मंच पर न केवल भारत के, बल्कि उन तमाम देशों की बात कही जो पश्चिमी देशों की अब तक अनदेखी का शिकार रहे हैं. पापुआ न्यू गिनी ने अपनी परंपरा तोड़कर अगर पीएम मोदी का स्वागत किया है, तो उसकी वजह है. अब तक जिन द्वीपीय देशों को भारतीय विदेश नीति में 'बहुत दूर होने' की वजह से छोड़ दिया जाता था, 2014 से उन 14 द्वीपीय देशों को साथ लेकर न केवल FIPIC का निर्माण किया गया, बल्कि अब तक उसके तीन शिखर सम्मेलन भी हो चुके हैं. कोरोना के दौरान की वैक्सीन-डिप्लोमैसी भी इसकी एक बड़ी वजह है. इसीलिए, फिजी और पापुआ न्यू गिनी ने अपने यहां के सर्वोच्च सम्मान से भी भारतीय पीएम को नवाजा है. यह भारतीय विदेशनीति का अभ्युदय-काल है. अब, भारत अपने हितों को लेकर मुखर, एग्रेसिव और प्रोटेक्टिव हो रहा है. भारत की मजबूत हो रही अर्थव्यवस्था इसका एक बड़ा कारण है. इसके अलावा रूस और चीन की गलबंहियां भी एक कारक हैं. यूरोपीय देशों में कई अब भारत को विश्वसनीय पार्टनर की तरह देख रहे हैं और भारत भी उसी तरह बर्ताव कर रहा है. भारत अब मजबूती से अपनी बात रख रहा है. वह अब असर्टिव हो रहा है.
अमेरिका हो या ऑस्ट्रेलिया, कॉमन फैक्टर भारत
एशिया में भारत अब नए ध्रुव की तरह उभर रहा है. इसकी अर्थव्यवस्था मजबूती की ओर है, जबकि अमेरिका समेत यूरोप के कई देशों पर मंदी की छाया है. अमेरिका तो कर्ज के ऐसे दुष्चक्र में फंसा है कि उसके डिफॉल्ट होने का खतरा है. अपनी घरेलू परिस्थितियों को संभालने के लिए उन्हें अपना पापुआ न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया का दौरा रद्द करना पड़ा. भारतीय प्रधानमंत्री ने इसके बावजूद अपना ऑस्ट्रेलिया दौरा बदस्तूर जारी रखा. इससे दो संकेत सीधे तौर पर गए. पहला, तो ये कि जी7 के साइडलाइन्स पर ही क्वाड की भी बैठक हुई, जिससे क्वाड की अहमियत का दुनिया को पता चला औऱ चीन सिवाय बिलबिलाने के और कुछ नहीं कर सका. दूसरे, भारत ने यह साफ कर दिया कि अमेरिका हो या रूस, भारत अब किसी देश का मुहताज नहीं है. वह मुंह देखने के बजाय अपनी अलग चाल चलेगा और जो उसके हित में होगा, उसी तरह की नीतियां भी बनाएगा. यही वजह है कि ईयू के लाख नाक-भौं सिकोड़ने के बाद भी भारत ने रूस से तेल खरीदना बंद नहीं किया, हां हमारे विदेशमंत्री ने समय-समय पर अगल मंचों पर यूरोप के देशों को थोड़ी सी हिस्ट्री और थोड़ी सी डिप्लोमैसी का पाठ जरूर पढ़ाया है. ऑस्ट्रेलिया में प्रधानमंत्री मोदी ने दो दिनों के अपने दौरे में अपने ऑस्ट्रेलियाई समकक्ष अल्बानीज से बातचीत के दौरान क्रिकेट का भी जिक्र किया और वहां के पीएम को क्रिकेट के विश्व कप के लिए आमंत्रित भी किया.
भारत अब दोनों ही पक्षों पर खेल रहा है. वह सांस्कृतिक तौर पर भी अपनी मार्केटिंग कर रहा है, चाहे वह योग-प्राणायाम हो या फिर संगीत और कला. क्रिकेट और फिल्म के जरिए भी भारत के बड़े प्रशंसक और चाहनेवाले तैयार हैं. जैसा कि इंडियन पीएम ने कहा भी कि भारत-ऑस्ट्रेलिया के संबंध सी और डी से होते हुए ई तक पहुंचे हैं, तो उस ई में एनर्जी, इकोनॉमी और एजुकेशन का ही मतलब छिपा था. ये तीनों ही मसले बड़े पैमाने पर युवावर्ग और उनकी आकांक्षा के साथ जुड़े हैं.
इसके साथ ही वह अपनी मजबूत होती अर्थव्यवस्था और बड़े बाजार की वजह से भी बारगेनिंग पावर अधिक रखता है. भारत के पास अंग्रेजी बोलनेवाला, तकनीक में कुशल एक बड़ा युवावर्ग है और साथ में है एक विशाल बाज़ार. इसके साथ भारत के भरोसेमंद होने, शांति का दूत होने और बाकी मसाले मिला लीजिए तो ऐसा ताकतवर दोस्त तैयार होता है, जिसे यूरोप से लेकर अमेरिका और नॉर्डिक देशों से लेकर साउथ पैसिफिक के देश तक अपने साथ रखना चाहते हैं. बदलती भू-राजनैतिक परिस्थितियों में भारत को अब नजरअंदाज करना मुश्किल है. देश की केंद्रीय सत्ता मजबूत और स्थिर है, इसलिए घरेलू हालात भी ऐसे हैं कि विदेश नीति पर पहलकदमी की जाए और बात की जाए. देश में स्थिरता है तो भारत को बाहर की ओर झांकने की फुरसत मिल रही है और अपनी विदेश नीति को नए सिरे से वह तय कर रहा है.