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नए साल में भारतीय विदेश नीति की नयी चुनौतियाँ, दूर के ढोल तो सुहावने लेकिन पड़ोसियों से ठनी है रार

मालदीव के साथ भारत का पिछले कई वर्षों से बहुत नजदीकी संबंध चल रहा था, लेकिन नए प्रधानमंत्री मुइज्जू तो भारत-विरोध के नारे पर ही सत्ता में आए हैं. वहां चीन का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है.

भारत के लिए विदेश नीति के लिहाज से बीता साल बिल्कुल तनी रस्सी पर चलने सरीखा रहा. एक ओर दुनिया रूस और यूक्रेन के युद्ध से त्रस्त थी ही, जो अब तो अपने दूसरे साल में है, वहीं अक्टूबर में ही हमास और इजरायल के बीच संघर्ष भी शुरू हो गया. भारत को इनमें से किसी भी एक गुट या देश का साथ देना महंगा पड़ता क्योंकि एक तरफ अमेरिका औऱ उसके साथी देश थे, तो दूसरी ओर रूस और उसके गिने-चुने साथी. इजरायल और हमास के संघर्ष में वही बैलेंसिंग एक्ट एक बार फिर करना था, क्योंकि पूरे मध्य-पूर्व को देखना है. इस साल की शुरुआत होते ही ईरान ने पाकिस्तान पर हमला बोल दिया और युद्ध बिल्कुल ही भारत के पड़ोस में आ गया. वहीं, ताइवान में नयी सरकार बनने से लेकर मालदीव में चीन के पिट्ठू मोइज्जु की सरकार का बनना और लक्षद्वीप के मसले पर बवाल होना भी भारत की परेशानी का बायस है. 

ताइवान और बांग्लादेश का चुनाव

ताइवान में डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी सत्ता में वापस आ गयी है और पूर्व उप-राष्ट्रपति लाइ चिंग ते अब राष्ट्रपति के तौर पर मई 2024 में सत्ता संभालेंगे. उनका चीन-विरोधी स्टैंड किसी से छिपा नहीं है और यह एक आश्चर्य की बात है कि भारत ने अभी तक उनको बधाई का संदेश नहीं भेजा है. वह ताइवान की स्वतंत्रता के कट्टर पक्षधर हैं और इसीलिए चीन उनको अलगाववादी बोलता है. यहां तक कि दलाई लामा ने भी ताइवान के राष्ट्रपति को बधाई दी और उसे उन देशों के लिए मिसाल बताया जो स्वतंत्रता और स्वायत्तता के लिए लड़ रहे हैं. यहां यह बता देना जरूरी है कि दलाई लामा लगातार तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष रत हैं और 1950 के दशक से ही वह भारत में शरण लिए हुए हैं. यहां तक कि भारत से ही तिब्बत की निर्वासित सरकार भी चलती है. भारत ने हालांकि पांच दिनों बाद बहुत ही सधी हुई प्रतिक्रिया 18 जनवरी को दी और कहा कि भारत हालिया घटनाओं पर नजदीक से नजर रख रहा है और वह करीब से इसे देखेगा. डिप्लोमैसी की भाषा में समझें तो यह बड़ा ही जलेबीनुमा बयान है, हालांकि क्वाड के सदस्यों में भारत ही एक ऐसा देश है, जिसने ताइवान को बधाई नहीं दी है, बाकी जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका ने बधाई दी. अमेरिका ने तो तुरंत ही एक प्रतिनिधिमंडल भी चुनाव के बाद ताइवान भेज दिया. चीन ने इन सभी देशों की भर्त्सना की है और कहा है कि ताइवान का चुनाव उसका आंतरिक मसला है और वह इससे अधिक दूसरे देशों को उसमें घुसने की इजाजत नहीं देता है. 

चीन के साथ भारत की तनातनी

दरअसल, भारत ने इस मुद्दे पर जो मौन साधा है, उसकी एक वजह भी है. भारत लंबे समय से 'वन चाइना' की नीति का समर्थन करता रहा है, ताकि चीन से उसे कुछ सद्भाव मिल जाए. यह बात अलग है कि 1962 से लेकर गलवान तक चीन से हमें केवल धोखा ही मिला है. ऐसा भी नहीं है कि भारत ने अपनी विदेश नीति में नए प्रयोग नहीं किए हैं. खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर की जोड़ी ने तो हमास-इजरायल संघर्ष से लेकर जी-20 के समापन तक कई ऐसे कदम उठाए हैं, जो 'पारंपरिक' और 'औपचारिक' नहीं थे, लीक से हटकर थे. भारत को अगर यह डर भी है कि ताइवान का समर्थन करने से फिर चीन अरुणाचल प्रदेश का मुद्दा उठा सकता है, भूटान और म्यांमार की सीमा पर बदमाशी कर सकता है, पाकिस्तान के साथ मिलकर आतंकवाद को प्रश्रय दे सकता है, तो वह तो आज भी हम झेल रहे हैं. पाकिस्तान ने सीपेक के नाम पर बलूचिस्तान के पास का हिस्सा चीन को दे ही दिया है, अक्साई चिन उसको बेच ही दिया है. इसलिए, यह शायद नए साल का पहला काम है कि भारत चीन के साथ अपने संबंधों को लेकर नए तरीके से सोचे. 

मालदीव के साथ पड़ोसी देशों को साधें

मालदीव के साथ भारत का पिछले कई वर्षों से बहुत नजदीकी संबंध चल रहा था, लेकिन नए प्रधानमंत्री मुइज्जू तो भारत-विरोध के नारे पर ही सत्ता में आए हैं. वहां चीन का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है और इससे हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत की चिंता बढ़ेगी. वहां के राष्ट्रपति मोइज्जु अभी तो 'इंडिया आउट' के नारे के साथ ही सत्ता में ही आए हैं और उन्होंने पहली यात्रा ही तुर्की की की थी. उसके बाद वह चीन गए और दर्जनों समझौते किए. भारत के जो सैनिक वहां केवल मेंटेनेंस के लिए थे, उनको भी उन्होंने टाइमलाइन दे दिया है. मोइज्जु के इरादे बिल्कुल साफ हैं और प्रधानमंत्री मोदी की लक्षद्वीप यात्रा के बाद वहां के तीन मंत्रियों ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया, वह बहुत चिंताजनक है, भले ही मोइज्जु ने उन तीनों को हटा दिया है. बांग्लादेश में फिलहाल भारत के मित्र सरकार की वापसी हो गयी है और शेख हसीना वहां प्रधानमंत्री बन चुकी हैं, लेकिन मुख्य विपक्षी पार्टी बीएनपी ने भी वहां अब 'इंडिया आउट' का नारा बुलंद कर दिया है. मालदीव की तरह ही खालिदा जिया की बीएनपी भी इस्लामी कट्टरपंथ को बढ़ावा देती है और भारत की विरोधी पार्टी है. 

पाकिस्तान खुद फटेहाल है, लेकिन भारत-विरोध से बाज नहीं आता. अभी एकाध दिनों से उसकी ईरान के साथ तनातनी चल रही थी, जो अब युद्ध में बदल गयी है. यानी, मामला अब पूरा भारत के पड़ोस में आ गया है. यानी, भारत को अब अपनी विदेश नीति के लिए बिल्कुल सतर्क और चौकस रहना होगा. भले ही यूरोप और अफ्रीका में भारत के चाहनेवालों की संख्या बढ़ रही हो, लेकिन अब भारत को अपने पड़ोस में झांकने और दुरुस्त करने की जरूरत है. 

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