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भारत-अमेरिका की साझेदारी थल और जल से बढ़कर अब अंतरिक्ष में भी, नया और उभरा भारत है बराबर का सहयोगी

1970 से लेकर 1990 तक, अमेरिका ही वह देश था, जिसने भारत को किसी भी तरह की तकनीक के ट्रांसफर से मना कर दिया था. इसी समझौते की वजह से रूस 1990के दशक की शुरुआत में क्रायोजेनिक तकनीक देने से मुकर गया था, जिसने लगभग तीन दशकों तक भारत के अंतरिक्ष शोध को पीछे कर दिया.

भारतीय प्रधानमंत्री का अमेरिका का स्टेट विजिट समाप्त हो चुका है और इस दौरान कई तरह के द्विपक्षाय समझौते हुए हैं. अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंघान संस्थान, इसरो के बीच आर्टिमिस अकॉर्ड नाम का समझौता हुआ है. इस समझौते से भारत उन देशों में शामिल हो गया है, जो अंतरिक्ष के क्षेत्र में अमेरिका के निकट सहयोगी हैं और उनसे तकनीक का भी आदान-प्रदान होगा. इस समझौते से इंडिया को बहुत फायदा पहुंचेगा. भारत ने गुरुवार यानी 22 जून को आर्टिमिस समझौते में शामिल होने का फैसला किया. नासा और इसरो 2024 में एक संयुक्त स्पेस मिशन पर सहमत हुए हैं. आर्टिमस समझौते पर हस्ताक्षर कर भारत ने अंतरिक्ष-अनुसंधान में हमेशा बेहतरीन प्रयासों को ही शामिल करने पर सहमति दे दी है, हालांकि यह तो उस समझौते की सबसे मामूली बात है. भारत आउटर स्पेस ट्रीटी पर पहले ही हस्ताक्षर कर चुका है और उससे जुड़े अंतरराष्ट्रीय सत्ता-संस्थान इन्हीं सिद्धांतों का पालन करते हैं. भारत और अमेरिका के संयुक्त बयान में लिखा है कि "निर्यात पर नियंत्रण औऱ तकनीक हस्तानांतरण को सुगम बनाने" का यह काम करेगा. 

आर्टिमस समझौता मतलब अंतरिक्ष की उड़ान

इस पर हस्तक्षार के साथ ही, भारत अब अमरेकि नेतृत्व वाले उस गठजोड़ का अहम हिस्सा हो गया है, जो अंतरिक्ष के मसलों पर साथ काम करते हैं. यह अलायंस जिसमें फिलहाल रूस औऱ चीन नहीं हैं और शायद भविष्य में नहीं हैं. 1970 से लेकर 1990 तक, अमेरिका ही वह देश था, जिसने भारत को किसी भी तरह की तकनीक के ट्रांसफर से मना कर दिया था. इसी समझौते की वजह से रूस 1990के दशक की शुरुआत में क्रायोजेनिक तकनीक देने से मुकर गया था, जिसने लगभग तीन दशकों तक भारत के अंतरिक्ष शोध को पीछे कर दिया. अमेरिकी प्रशासन ने गुरुवार 22जून को कहा कि भारत आर्टिमस नामक विशेष ग्रुप में शामिल हो गया है और अब भारत-अमेरिका एक साथ मिलकर अंतरिक्ष के रहस्यों को सुलझाएंगे.

आर्टिमस दरअसल नियमों का एक समूह है जिसका पालन करते हुए विभिन्न देश स्पेस की खोज और उपयोग में करते हैं. ये नियम एक पुरानी संधि पर आधारित हैं जिसे आउटर स्पेस ट्रीटी 1967 (OST) कहते हैं. भले ही यह अंतरराष्ट्रीय कानून से बाध्यकारी नहीं है, लेकिन यह एक ऐसे रोडमैप की तरह काम करता, जिससे सारे देश अंतरिक्ष अभियानों में सहयोग करते हैं. इसका नेतृत्व अमेरिका कर रहा है और अमेरिका 2025 तक लोगों को चंद्रमा पर फिर ले जाएगा. यह भविष्य में मंगल ग्रह जैसे अन्य स्थानों का भी पता लगाने और मंगल पर भी जीवन की संभावनाएं तलाशने पर काम कर रहा है. नासा और इसरो मिलकर एक साथ 2024 में संयुक्त अभियान करेंगे. 

भारत के अंतरिक्ष में चौतरफा कदम

भारत अभी अपने स्पेस-मिशन में बहुत कुछ करना चाहता है- जैसे, मानवीय मिशन के साथ ही चांद पर पहुंचना, ग्रहों की खोज, एक स्पेस स्टेशन का निर्माण और ये सारे काम अब तक अमेरिका, रूस औऱ चीन ने ही किया है. यह तो आदर्श स्थिति है कि भारत सैन्य उपकरणों से लेकर अंतरिक्ष तक में आत्मनिर्भर हो जाए. फिलहाल, वह आदर्श स्थित नहीं है. कई बार बिल्कुल नए सिरे से कुछ बनाने में समय भी लगता है और कुछ चूक भी होने का डर होता है, छूट जाने का भय होता है. इसलिए, बुद्धिमानी इसी में है कि पहले से उपलब्ध तकनीक का फायदा उठाया जाए. भारत ने फिलहाल यही बुद्धिमानी की है. उसने अभी तक कोई मानव-मिशन अंतरिक्ष में भेजा है, न ही चंद्रमा पर सैटेलाइट उतारा है तो इसकी वजह यह नहीं कि भारत के पास काबिलियत नहीं थी या विशेषज्ञता नहीं थी. ये तकनीक हस्तानांतरण पर मनाही की वजह से ही हो रहा था. भारत के इस अमेरिकी नेतृत्व वाले समूह में शामिल होने से अंतरिक्ष क्षेत्र में लंबी छलांग लगी है और अगली पीढ़ी की तकनीक भी अब हमारे पास आ सकती है. 

वैसे, इतिहास की बात करें तो रूस ही स्पेस के क्षेत्र में हमारा सबसे पुराना और भरोसेमंद साथी ही था. यहां तक कि गगनयान मिशन में भी रूस ने अपनी सुविधाएं देने की पेशकश की थी. भारत को अब यूक्रेन युद्ध की तरह ही इस मसले पर भी बेहद संतुलित तरीके से काम करना होगा. इसके अलावा भारत और अमेरिकी कंपनियां अब वह इकोसिस्टम बनाने के लिए काम और पार्टनरशिपर करेंगी जो चीन में ही वितरण का पूरा ठिकाना न रखे, बल्कि दूसरे ठिकाने भी बनें, इसका बंदोबस्त करेगी. कंप्यूटर चिप्स बनाने वाली कंपनी माइक्रॉन टेक्नोलॉजी भारत के नेशनल सेमीकंडक्टर मिशन के साथ काम कर रही है और यह पूरा मामला 800 मिलियन डॉलर का है. भारत में इस अद्भुत फैक्टरी पर लगभग 3 अरब डॉलर खर्च होंगे. भारत औऱ अमेरिका के बीच जो जुगलबंदी बीते सात दिनों में देखने को मिली है, वह अगर लगातार चलती रहे, तो कई आर्थिक और सामरिक मामलों में हम बेहद तेजी से बढ़त कायम कर लेंगे.

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