प्रधानमंत्री मोदी की हालिया वाशिंगटन और पेरिस यात्रा से यह साफ हो चुका है कि वैश्विक बिरादरी, खासकर विकसित देश भारत को गंभीरता से ले रहे हैं और वे अब भारत को सहयोगी-सहकर्मी की भूमिका में देखते हैं, किसी सबॉर्डिनेट के रोल में नहीं. भारत की मौजूदा सरकार इस बात को बहुत अच्छे से जानती है कि बड़े देशों की राजनीति और क्षेत्रीय भू-राजनीति को मिलाने वाली रेखाएं, अगर लगातार देखभाल में न रखें, तो धुंधली पड़ जाती हैं.
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बढ़ रहा है भारत
मोदी और उनकी टीम को पता है कि अफ्रीका और एशिया को जोड़नेवाले पानी में अगर कुशलता से मौजूदगी नहीं दर्ज कराई, तो ‘चीनी’ तूफान के बढ़ने का खतरा है. इसी का प्रमाण है कि मोदी वाशिंगटन और अबू धाबी से लौटते हुए काहिरा में रुक जाते हैं तो जयशंकर ने अभी लगभग एक सप्ताह तक जकार्ता और बैंकाक की यात्रा पर रहे और पूर्वी एशियाई देशों के साथ कूटनीतिक-रणनीतिक संबंधों की चाशनी में और चीनी लपेटते दिखे. भारत की विदेश नीति हमेशा ही बहुआयामी संबंधों और गुटनिरपेक्षता की रही है. हालिया यूक्रेन युद्ध में किसी भी खेमे के साथ न जाकर भारत ने यह दिखाया है कि कूटनीतिक संतुलन बनाने का खेल वह सीख चुका है. जयशंकर भी आसियान, बिम्सटेक, ईस्ट एशिया सम्मिट, मेकांग गंगा को-ऑपरेशन जैसी कई छोटे-बड़े समूहों-संगठनों के साथ चर्चा करते नजर आए, क्योंकि छोटे देशों को साधना, उनकी मदद करना और उनकी आवाज बनना भारत की नयी विदेश नीति का एक मुख्य अध्याय है.
हिंद महासागर में भारत की महत्वाकांक्षा
अमेरिका और फ्रांस के साथ भी भारत ने रक्षा और तकनीक के क्षेत्र में समझौते करने पर भले जोर दिया, लेकिन उसकी नजरें पड़ोस की घटनाओं से नहीं हटी. फ्रांस के राष्ट्रपति के साथ मोदी ने इसीलिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए एक रोडमैप और उससे जुड़ी घोषणा पर हस्ताक्षर किए. हिंद महासागर में भारत की महत्वाकांक्षाओं को लेकर पश्चिमी देश अब सजग हो रहे हैं और उसी हिसाब से भारत भी अब बरत रहा है. इसके लिए फ्रांस और भारत एक साथ हिंद महासागर में काम कर रहे हैं और यह दशकों पुरानी भारतीय विदेश नीति के उलट है. भारत के साथ यह लगभग ‘अलिखित किंतु पवित्र’ बात लागू होती थी कि ‘बाहरी’ और ‘औपनिवेशिक’ ताकतों के साथ हिंद महासागर में काम नहीं करना है, लेकिन फ्रांस के साथ रणनीतिक समझौते ने इस नियम को भूलने पर मजबूर कर दिया है. इसकी वजह बदली हुई भू-राजनैतिक परिस्थितियां और ड्रैगन की कभी न खत्म होनेवाली भूख भी है.
वाशिंगटन हो या पेरिस, सभी मांगें दिल्ली का साथ
हिंद-प्रशांत क्षेत्र से हिंद महासागर के हरेक किनारे तक सहयोग बढ़ाने का ही कारण है कि मोदी-मैक्रां समझौते में हिंद महासागर के साथ ही ‘प्रशांत’ क्षेत्र को भी जोड़ दिया है और दोनों नेताओं ने यह भी घोषित किया है कि दोनों देश ‘अफ्रीका से लेकर एशिया और दक्षिण एशिया से दक्षिण-पूर्व एशिया, प्रशांत क्षेत्र से हिंद महासागर तक’ विकासात्मक सहयोग बढ़ाएंगे. दोनों ने सहयोगियों के साथ द्विपक्षीय, बहुपक्षीय और बहुआयामी समूहों में काम करने पर भी सहमति जताई है. वाशिंगटन के साथ नयी दिल्ली की बढ़ती सरगोशियां तो विशिष्ट क्षेत्रीय सहयोग पर ही टिकी है, जो कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र है. भारत हमेशा से इस इलाके को अंतरराष्ट्रीय संधियों और नियमों के तहत ही मानता रहा है, ड्रैगन की इस क्षेत्र में बढ़ती हुई महत्वाकांक्षा ने भारत और अमेरिका को एक-दूसरे के करीब किया है. मोदी और बाइडेन के संयुक्त बयान में भी इसकी ताकीद की गयी है. भारत और अमेरिका ने इस इलाके में लगातार मिलकर काम करने की आवश्यकता और सातत्य पर जोर दिया है. क्वाड के जरिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में दोनों देशों का सहयोग बढ़ रहा है और इसी साल होनेवाले शुरुआती इंडियन ओशन सम्मिट पर भी सभी की निगाहें लगी हुई हैं.
भारतीय विदेश नीति का परिवर्तन-काल
जाहिर तौर पर यह एक बड़ा बदलाव है. भारतीय विदेश नीति में एक बड़ा शिफ्ट आया है. भारत अब अपने हितों को प्राथमिकता देता है और उन्हें नए और परस्पर विरोधी संगठनों-समूहों के जरिए पूरा भी करता है. भारत आर्थिक और राजनीतिक तौर पर वर्तमान में स्थिर है और यह पड़ोस पर अपना प्रभाव डालने में सक्षम भी है. यही वजह है कि भारत क्वाड का भी सदस्य है, एससीओ और ब्रिक्स का भी, वह आसियान को भी समर्थन देता है और रूस को भी अमेरिका के साथ साध कर रखता है. विदेशमंत्री एस जयशंकर ने भी जकार्ता में कहा कि क्वाड दरअसल आसियान और उसके चालित संस्थानों का पूरक है.कह सकते हैं कि भारतीय डिप्लोमैसी का यह ‘टैक्टोनिक शिफ्ट’ है, ‘परिवर्तन-काल’ है. आजादी के बाद से ही भारत ने अपने एशियाई पड़ोसियों, छोटे द्वीपों और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की लगभग अनदेखी की. माना जाता था कि अमेरिका और रूस के साथ संबंध बिल्कुल अलग हैं और यह पूरा इलाका बिल्कुल अलग है. नेहरू की आदर्शवादी विदेश-नीति में कई यूटोपियन खयाल भी थे. जैसे- विदेशी और बड़ी ताकतों को इस क्षेत्र से दूर रखना, एशियाई पड़ोसियों को अपने साथ बांधे रखना और एशिया में महाशक्ति दखल नहीं दें.
गुटनिरपेक्ष आंदोलन को पूरी स्पिरिट से केवल भारत ने माना और इसका खामियाजा भी भुगता, जब चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध भारत को केवल अपने दम पर लड़ना पड़ा, जबकि बाकी देश विकसित देशों की मदद भी लेते रहे और भारत की पीठ में छुरा भी घोंपते रहे. इकोनॉमी के खुलने, उदारीकरण के बाद बदली हुई भू-राजनैतिक परिस्थितियों और भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद भारत ने अपने हितों को सबसे ऊंचा रखना शुरू कर दिया है औऱ कई आदर्शवादी-अव्यावहारिक नियमों को भी तोड़ा है. जैसे हम एक साथ अमेरिका और रूस को साध रहे हैं, चीन के साथ तनातनी होने के बाद भी ब्रिक्स और एससीओ में हैं, हमने हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर काम किया है, इजरायल के साथ संयुक्त अरब अमीरात को भी साधा है और अमेरिका के साथ मिलकर पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंध भी घनिष्ठ बना रहा है. यह निश्चित तौर पर भारतीय विदेशनीति का स्वर्णकाल है.