भारत के लिए पिछला सप्ताह ऊंचाइयों का था. चंद्रयान-3 की 23 अगस्त को सफल लैंडिंग के बाद भारत के इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान) ने 2 सितंबर को सूर्य का अध्ययन करने के लिए भी आदित्य एल1 को सफलतापूर्वक लांच किया. यह पृथ्वी से 15 लाख किलोमीटर की दूरी तक जाएगा और वहां एक बिंदु पर रुकेगा, जिसे वैज्ञानिक एल1 कहते हैं. दरअसल, सूर्य का अध्ययन एल1 जैसे कुछ पॉइंट से ही किया जा सकता है, क्योंकि सूरज के हजारों किलोमीटर दूर रहने पर भी जल जाने का खतरा रहता है. सूर्य की दरअसल सतह ठोस नहीं है, वह गैसीय है और वहां हीलियम जैसे गैस की अधिकता है. वहां इतना अधिक तापमान है जो हमारी सोच से भी बार है. हमलोग 50 डिग्री सेंटीग्रेड पहुंचते ही गर्मी से तबाह हो जाते हैं, जबकि सूर्य की बाहरी सतह का तापमान मिलियन सेंटीग्रेड में है. इसी वजह से मिशन आदित्य उस बिंदु से ही सूरज का अध्ययन करेगा. वह चार महीने में यह दूरी तय कर सूर्य की विभिन्न गतिविधियों, उसके वातावरण और बाकी बातों का अध्ययन करेगा. इससे पहले अमेरिका इसी तरह का एक मिशन दूसरे बिंदु एल2 पर भेज चुका है. 


कम लागत में बड़े काम


भारत का चंद्रयान और आदित्य एल1 अपनी लागत की वजह से भी चर्चा में है. चंद्रयान के लागत की तुलना तो हॉलीवुड की फिल्मों से भी की गयी. यह सच है कि भारत इन बड़ी तकनीकी उपलब्धियों को जिस तरह अपने नाम इतनी कम कीमत में कर रहा है, उससे पूरी दुनिया हैरान है. दरअसल, यहां के वैज्ञानिक अपने संसाधनों का भरपूर इस्तेमाल करते हैं और कई बार तो उसको रिसाइकल करके भी उपयोग कर लेते हैं. यहां यह जानना रोचक होगा कि चंद्रयान-3 में ऑर्बिटर नहीं भेजा गया. ऐसा इसलिए कि चंद्रयान-2 भले ही चांद पर उतरने में कामयाब नहीं रहा, लेकिन उसका ऑर्बिटर सकुशल वहीं मौजूद है, तो इसरो की ऑर्बिटर की लागत पूरी बची. एक कारण और है कि इसरो अपना काम आउटसोर्स बहुत कम करता है. यानी, वह कई सारी तकनीकें खुद ही ईजाद करते हैं, इससे लागत कम होती है और भारत बड़े से बड़े मिशन को अंजाम देता है.


 

भारत ने आजादी के बाद जब 1970 के दशक के आखिरी वर्ष में इसरो के मार्फत अंतरिक्ष अनुसंधान शुरू किया, तो आलम ये था कि हमारे रॉकेट के पुर्जे साइकिल और बैलगाड़ी पर ढोए जाते थे, वाशिंगटन टाइम्स और न्यूयॉर्क टाइम्स बेहद ही खराब रुचि के नस्लीय ग्रंंथि से पीड़ित और अपमानजनक कार्टून छापते थे, जहां पगड़ी-धोती पहने एक भारतीय को गाय के साथ इलीट स्पेस क्लब के दरवाजे पर नॉक करते हुए दिखाया जाता था. आज भारत ने बेहद शांति से इतनी बड़ी लकीर खींच दी है कि अमेरिका हो या रूस, चीन हो या जापान, सभी को यह समझ आ गया है कि भारत अब अंतरिक्ष में एक बड़ी ताकत है. भारत की सफलता ने दुनिया के उभरते देशों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक नया उत्साह और जुनून भी पैदा किया है. ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों को वैसे भी भारत पर पूरा भरोसा है कि चंद्रमा या सूर्य के अनुसंधान और उससे प्राप्त ज्ञान पर किसी एक देश यानी भारत का एकाधिकार नहीं रहेगा. भारत पहले भी दुनिया से अपनी विरासत बांटता रहा है, वह अपने इस ज्ञान को भी बांटेगा और उससे पूरी दुनिया को फायदा होगा. 


 

अंतरिक्ष के बाजार पर भारत का दावा

 

भारत कोई अचानक ही अंतरिक्ष में बड़ी ताकत नहीं बना है. बड़ी ताकतों ने तो 1990 के दशक में क्रायोजेनिक इंजन देने से भी मना कर दिया, हमारे काबिल वैज्ञानिक एम नंबीनारायण को झूठे मुकदमों में फंसाया गया, लेकिन भारत को पता था कि वह क्या करने वाला है? भारत ने अपने दम पर सब कुछ विकसित किया और आज इसरों वह ताकत है, जिसने एक साथ सबसे अधिक उपग्रह विभिन्ने देशों के लिए छोड़ने का भी रिकॉर्ड बनाया है. इसके अलावा भारत ने अंतरिक्ष को निजी कंपनियों के लिए भी खोल दिया है. 2020 में मोदी सरकार ने अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी को निजी कंपनियों के लिए खोला. इसके शानदार परिणाम आए हैं. अभी भी 100 से अधिक स्टार्टअप हमारे देश के अंतरिक्ष अनुसंधान में अपना योगदान दे रहे हैं.

 

इसके साथ ही रूस और चीन चूंकि अपनी राजनीति में उलझे हैं, तो उनके लिए भी यह राह बहुत ध्यान देने की नहीं है. भारत में अभी राजनीतिक स्थिरता है, अर्थव्यवस्था सधी हुई है तो भारत भी अब आगे की राह सोच रहा है. अमेरिका और यूरोप में चूंकि अंतरिक्ष अनुसंधान बहुत महंगा है, तो इसलिए भी विकासशील देश भारत की ओर ही देख रहे हैं. वे केवल इसरो के साथ ही काम नहीं कर रहे हैं, बल्कि अमेरिका और यूरोप की एजेंसियों को भी सहयोग दे रहे हैं. इसरो भी अब इन निजी कंपनियों के सहयोग से नए मिशनों पर अधिक तेजी से काम कर पा रहा है. रूस चूंकि यूक्रेन के साथ युद्ध में फंसा है, चीन भी अपनी अर्थव्यवस्था और दुनिया में खत्म होती साख को लेकर चिंतित है तो भारत के लिए यह शानदार मौका है और भारत इसका पूरा फायदा भी उठा रहा है.