ऐतिहासिक रूप से भारत  ‘‘पर्याप्त संसाधन के बावजूद पर्याप्त गरीबी’’ का परिचय देता रहा है और इसे ही कुछ लोग संसाधनों की कमी, अपर्याप्तता या अभिशाप के तौर पर भी देखते हैं. प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद कम आय और कम आर्थिक विकास हमारी पहचान रहा है. कई बार भारत में कमजोर लोकतंत्र की भी बात की जाती है और इसे विकास संकेतकों में खराब प्रदर्शन करने वाली अर्थव्यवस्था भी करार दिया जाता रहा है. हालांकि, भारतीय अर्थव्यवस्था को ऐसी एकरेखीय सैद्धांतिक बातों के जरिए नहीं बयान किया जा सकता है. यह विषय काफी जटिल है, और भारत के पूरे इतिहास में हमेशा से ही अविकसित और विकसित क्षेत्र दोनों ही मौजूद रहे हैं. वैसे, अभी भारत के आर्थिक विकास के मोर्च पर अच्छी खबर ये है कि पिछले दशक में विकास की गति को विस्तार मिला है और इसकी सूरत और सीरत दोनों ही बदली है. 


सुधारों से बदली विकास की तस्वीर 


2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कार्यभार संभालते ही खुद लीड ली और उसके बाद उनकी टीम ने व्यवसाय समर्थक सुधारों को शुरू करने में मदद की है. इसने ऋण के विस्तार को सुविधाजनक बनाया और साथ ही फॉर्मल सेक्टर में अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से को खींचना चाहा है, जिससे विकास को गति मिली है. मोदी के नेतृत्व में आधार, जीएसटी, यूपीआई यानी यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस जैसे कई अहम सुधारों के जरिए पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी और तेज बनाया गया है. भारत में बुनियादी ढांचे की कमी भारत की विकास गाथा में एक बड़ा रोड़ा रहा है. अब सरकार इस पर ध्यान दे रही है. अमेरिका की वित्तीय प्रबंधन कंपनी कैपिटल ग्रुप ने अपने विश्लेषण में पाया है कि भारत में बुनियादी ढांचे के साथ ही किफायती दरों पर आवास का भी निर्माण हो रहा है और  पिछले पांच वर्षों में सरकार ने सड़कों, रेलमार्गों, हवाई अड्डों और बंदरगाहों के निर्माण में अरबों डॉलर खर्च किए हैं. भारत ने जैसे ही अपनी व्यवस्था को डिजिटल मोड में किया है तो इस व्यवस्था से कच्चे माल से लेकर सर्विसेज तक को ट्रैक करने में आसानी हुई.



साथ ही फॉर्मल मैन्युफैक्चरिंग और इंडस्ट्रियल सेक्टर का हिस्सा और दायरा बढ़ा. यूपीआई से भुगतान आसान और पारदर्शी हुआ. बैंकों से लेकर आम जन तक ने इसे खूब अपनाया. घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार ने पीएलआई यानी प्रोडक्शन लिंक्ड इनसेन्टिव योजना चलाई और इससे भी इकोनॉमी ने गति पकड़ी. इन सब का ही नतीजा है कि अब आईएमएफ यह भी कह रहा है कि 2027 तक भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी बन सकता है. नितिन गडकरी के नेतृत्व में सड़कों में जबर्दस्त और व्यापक सुधार हुआ है. करीबन एक दशक पहले जिन दूरियों को तय करने में 12 घंटे लगते थे, आज उनका समय 6 घंटे हो गया है.


चीन से आगे निकल सकता है भारत 


फिलहाल, भारत सरकार के लिए दोहरी भूमिका निभाने का अवसर है. वह घरेलू आबादी की क्षमता बढ़ा सकती है और निर्यात के बाजार में एक बड़ा खिलाड़ी बन कर उभरना चाहती है. सरकार इसीलिए कंप्यूटर, दूरसंचार उपकरण, मोबाइल फोन और घरेलू उपकरणों के लिए मैन्युफैक्चरिंग कैपिसिटी बढ़ाने पर जोर दे रही है और बढ़ा रही है. पीएम मोदी की पिछले एक महीने में अमेरिका, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और यूएई जैसे देशों के दौरे और उस दौरान हुए डील्स से यह बिल्कुल साफ दिखता है कि भारत वैश्विक पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है. भारत की पेशेवर टीम जापान से लेकर अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से ताइवान तक की कंपनियों को निवेश के लिए बुलाने और प्रोत्साहित करने का काम कर रही हैं.


एपल भारत में आईफोन 14 का उत्पादन कर रहा है, तो जापान की कंपनियां मित्सुबिशी हों या डायकिन, वे एसी से लेकर तमाम तरह के उपकरण और कलपुर्जे बनाने के लिए निवेश कर रहे हैं. अमेरिकी फर्म कैपिटल ग्रुप ने अपने अध्ययन की शुरुआत ही इसी सवाल से की थी कि क्या यह दशक भारत के चमकने और जगमगाने का है. इसके पीछे उसके विश्लेषण से जो तमाम बातें उभरती हैं, उसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन के बाहर अपनी सप्लाई-चेन में जो भी विविधता चाहने वाली कंपनियां हैं, उनके लिए भारत एक पसंदीदा स्थान बनकर उभरेगा. कोविड के दौरान पूरी दुनिया ने सप्लाई-चेन के फेल होने का असर भी देखा है और भारत किस तरह एक भरोसेमंद देश की तरह काम करता है, यह भी पूरी दुनिया जानती है. इस रणनीति को वैसे भी चीन प्लस वन के तौर पर जाना जाता है. 


पश्चिमी देश अभी चीन प्लस वन की रणनीति खोजने में सबसे आगे हैं. भारत में आर्थिक विकास का बड़ा हिस्सा घरेलू उपभोग और निवेश से भी आएगा. पश्चिमी देश अपने लिए चीन के अलावा एक और ऐसा स्रोत चाहेत हैं, जहां से वह केमिकल सप्लाई ले सकें. यही वजह है कि पिछले दशक में कई केमिकल कंपनियों ने भारत का रुख किया है. भारत की ओर सेमीकंडक्टर से लेकर इलेक्ट्रिक गाड़ियों की बैटरी तक के लिए उम्मीद लगाई जा रही है. हो सकता है कि भारत चीन के लिए चुनौती बनने में कई वर्ष लगाए, लेकिन फिलहाल यह सबके लिए फायदे का सौदा है. भारत के साथ एक और फायदा इसकी जनसांख्यिकी का है. भारत की औसत उम्र 29 है जो देखा जाए तो सबसे आकर्षक पॉपुलेशन प्रोफाइल है और भारत अपनी उत्पादक क्षमता से भी लाभ उठा सकता है, शर्त केवल एक है कि सही नीतियां लागू की जाएं. भारतीय कंपनियां ग्रीन हाइड्रोजन के मोर्चे पर चीन के साथ प्रतिस्पर्द्धा कर रही हैं और ऊर्जा की जितनी जरूरत और आवश्यकता भारत को है, उसमें उसे ऊर्जा के नए स्वरूप खोजने ही होंगे. तेल और गैस हमारी बहुत बड़ी बाध्यता हैं, जिसके हम आयातक हैं तो अगर वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों पर काम किया जाए, तो इकोनॉमी और अधिक ऊर्जा-स्वतंत्र हो सकती है. 


शेयर बाजार की तेजी भी बता रही है कुछ 


आज की तारीख में चीन के साथ ही भारत की सबसे बड़ी व्यापारिक प्रतिद्वंदिता है. चाइना प्लस वन पॉलिसी के तहत दुनिया की बड़ी दिग्गज कंपनियां जो चीन में पहले से मौजूद हैं, वे भारत में भी अपना निवेश तेजी से बढ़ा रहे हैं. यहां तक कि शेयर बाजार के निवेशक भी चीन से निकलकर भारतीय शेयर बाजार में निवेश कर रहे हैं. विदेशी निवेशकों के बढ़ते निवेश के चलते सेंसेक्स 66,000 तो निफ्टी 19500 के ऐतिहासिक आंकड़े को पार करने में सफल रहा है. वहीं, चीन की जीडीपी के आंकड़े के सामने आने के बाद वहां के शेयर बाजार में गिरावट देखने को मिली है. आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में अगर राजनीतिक स्थिरता रही और इसने सही नीतियां लागू कीं तो आनेवाले समय में चीन को पीछे छोड़ना या उसके साथ मुकाबला करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं होगी.