NATO की सदस्यता पर भारत बहुत सोच-विचार कर ही करेगा फैसला, वैश्विक राजनीति के दो पलड़ों पर बनाना होगा संतुलन
नाटो की सदस्यता के संबंध में एक बड़ी समस्या यह है कि भारत अभी भी रूसी हथियारों पर बहुत अधिक निर्भर है. दूजे, रूस भारत की अमेरिका के साथ नजदीकी को बहुत ठीक निगाह से नहीं देखता है.
NATO यानी नॉर्थ अटलिंटक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन के साथ जुड़ने के लिए भारत को खुला ऑफर मिला है. अमेरिकी राजदूत जूलियन स्मिथ ने एक बयान में कहा है कि भारत चाहे तो नाटो में उसके लिए दरवाजे खुले हैं. हालांकि, दुनिया के सबसे बड़े सैन्य संगठन NATO में शामिल होने के अपने नुकसान और फायदे भी हैं. भारत यह कदम बहुत सोच समझकर ही उठाएगा.
NATO Membership for India: अभी हाल ही में फिनलैंड नाटो का 31वां सदस्य देश बना है और उसकी सदस्यता की पूरी प्रक्रिया एक साल के भीतर पूरी कर ली गई. यह सबसे तेज प्रक्रिया मानी जा रही है. फिनलैंड की सदस्यता ने रूस की पेशानी पर बल डाल दिया है, तो अमेरिका अपनी पीठ थपथपा रहा है. अमेरिकी राजदूत स्मिथ की भारत को सदस्यता की खुली पेशकश को भी इसी संदर्भ में देखा जा रहा है. हालांकि, रूस-यूक्रेन युद्ध के एक साल पूरा होने के बाद रूस ने जो अपनी विदेश नीति का खाका तैयार किया है, उसमें यूरोपीय देशों से दूरी और भारत से नजदीकी शामिल है. इसलिए भी भारत बहुत गहन विचार-विमर्श के बाद ही इस पर कोई फैसला लेगा.
पहली बार नहीं मिला है मेंबरशिप का ऑफर
भारत को दरअसल 2011 में ही पहली बार उत्तर अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो की सदस्यता का ऑफर मिला था. अभी जिस तरह जूलियन स्मिथ ने गेंद भारत के पाले में डाल दी है, तब तत्कालीन अमेरिकी प्रतिनिधि इवो डाडलर ने भारत और नाटो के बीच गर्मजोशी वाले रिश्ते को जरूरी बताया था. तब अफगानिस्तान के हालात को देखते हुए अमेरिका चाहता था कि भारत के साथ उसके रणनीतिक रिश्ते और सघन हों.
हालांकि, भारत ने न तो अफगानिस्तान में तब अपनी सेना भेजी थी और न ही नाटो की सदस्यता ही ली थी. उस समय भारत के साथ संपर्क बढ़ाने की इच्छा ने ही डाडलर से यह बयान दिलवाया था कि नाटो और भारत करीब आएं, यह महत्वपूर्ण है, हालांकि यह पूरी तरह से भारत पर निर्भर है कि वह नाटो के साथ रिश्ते चाहता है या नहीं?
इस पर अपनी राय देते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान (SIS) के असोसिएट प्रोफेसर रणविजय ने कहा कि भारत नाटो की सदस्यता लेने में जल्दबाजी और अतिरिक्त उत्साह नहीं दिखाएगा. उन्होंने कहा, ‘भारत की अपनी स्वतंत्र विदेश नीति है और इसमें खासकर किसी भी सैन्य संगठन का सहयोगी बनना शामिल नहीं है. नाटो एक सैन्य साझेदारी है. भारत एक बार मात्र 2001 में यह गलती करने के करीब था, जब वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आक्रमण के समय उसने अमेरिका को भारत में अपना बेस बनाने के लिए कहा था. भारत फिलहाल ऐसी कोई गलती नहीं करेगा. वह नाटो जैसे सैन्य संगठन से बातचीत भले ही करता रहे, लेकिन औपचारिक सदस्यता से दूर रहेगा.’
क्या है नाटो और दुनिया के लिए क्यों है महत्वपूर्ण?
नाटो यानी उत्तर अटलांटिक संधि संगठन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बना एक सैन्य संगठन है, जिसके सदस्य देश एक-दूसरे पर आक्रमण होने की दशा में अपनी सेना लेकर उस सदस्य देश की मदद करते हैं, जिस पर हमला हुआ है. यूक्रेन की मदद नाटो इसलिए ही नहीं कर पा रहा है, क्योंकि वह नाटो का सदस्य देश नहीं है. 1949 में जब इसकी शुरुआत हुई थी तो अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस समेत कुल 12 ही देश इसके सदस्य थे. वर्ष 1991 में जब सोवियत संघ टूटा तो कई यूरोपीय देश जो रूस के साथ वारसॉ संधि के माननेवाले थे, उन्होंने भी नाटो को जॉइन कर लिया. अभी फिनलैंड को 4 अप्रैल को सदस्यता मिली है और इसके साथ ही नाटो के 31 सदस्य हो गए हैं. नाटो का मुखिया देश अमेरिका है. इस रक्षा सहयोग संधि की गतिविधियों को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय संबंधों के कुछ विशेषज्ञ इसे रूस के खिलाफ बना संगठन भी कहते हैं. रूस की भी नाटो की गतिविधियों को लेकर हमेशा सतर्कता और संदेह की नजर बनी रहती है.
भारत के लिए क्या है नाटो की सदस्यता में?
नाटो में शामिल होने का भारत के लिए अपना नफा-नुकसान है. सबसे अहम बात तो यह है कि दुनिया पहले की तरह दो ध्रुवों में बंटी नहीं है, और भारत भी तीसरी दुनिया के देश की छवि से बाहर निकल वैश्विक रंगमंच पर अपनी भूमिका निभाने के लिए उत्सुक दिख रहा है. किसी भी देश के लिए उसके अपने हित सर्वोपरि हैं. यही वजह है कि भारत विश्व व्यापार संगठन में भी है, SCO का भी सदस्य है और क्वाड में भी अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है. अगर नाटो में शामिल होने को लेकर भारत को संजीदगी से सोचना है तो उसे अपने हितों को ही तोलना होगा. एक तात्कालिक और सबसे बड़ा फायदा तो यह होगा कि यदि भविष्य में चीन और पाकिस्तान किसी भी तरफ से हमला हुआ तो नाटो का चार्टर कहता है कि हमले के समय सदस्य देशों की सुरक्षा के लिए सेनाएं आगे होंगी.
वैसे भी, शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद नाटो हो या वारसॉ संधि, इनमें शामिल न होने का तर्क बहुत पुख्ता नहीं रहा. दुनिया अब बहुध्रुवीय है और पल-पल राजनीतिक हालात बदलते रहे हैं. इसमें अगर भारत एशिया की तरफ से एक मजबूत प्लेयर बनना चाहता है, तो उसे नाटो जॉइन करना चाहिए.
रूस के साथ संबंधों में आ सकती है खटास
नाटो की सदस्यता के संबंध में एक बड़ी समस्या यह है कि भारत अभी भी रूसी हथियारों पर बहुत अधिक निर्भर है. दूजे, रूस भारत की अमेरिका के साथ नजदीकी को बहुत ठीक निगाह से नहीं देखता है. तीसरे, भारत दुनिया भर की लड़ाइयों में उलझने को बाध्य होगा, जबकि उसे अभी अपना खुद का घर ठीक करना है, पांचवीं अर्थव्यस्था से तीसरे और फिर उससे भी आगे के स्थान पर जाना है. इसके अलावा नाटो के सदस्य देशों की राय मध्य-पूर्व और चीन पर भी एक नहीं है.
गहन विमर्श के बाद ही भारत करे कोई फैसला
भारत को अपने रणनीतिक और राजनीतिक-आर्थिक हितों पर गहन विचार-विमर्श कर ही नाटो की सदस्यता स्वीकार करने के मसले पर फैसला लेना होगा. फिलहाल की स्थिति में तो आदर्श स्थिति यही है कि नाटो के साथ संबंधों में गति आए, गर्मजोशी आए, लेकिन अभी भारत औपचारिक सदस्यता ग्रहण करने से दूर ही रहे.