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बदल गयी है भारत की पश्चिम एशिया को लेकर नीति, मोदी सरकार का इजरायल को खुला समर्थन बताता है बहुत कुछ

21वीं सदी और खासकर नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद ये रिश्ते और भी बदले हैं. इजरायल की यात्रा पर गए पहले पीएम नरेंद्र मोदी के पहले भारतीय डिप्लोमैसी इजरायल के साथ संबंधों को बड़ा छिपा कर रखती.

भारत में इजरायल और हमास के बीच युद्ध को लेकर जितनी तेजी से घरेलू मोर्चे खुले, घरेलू राजनीति तेज हुई, उसको लेकर बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए. कांग्रेस कार्यसमिति ने खुले तौर पर भारत सरकार के आधिकारिक स्टैंड के विरुद्ध जाकर प्रस्ताव पारित कर दिया है. वहीं, सत्ताधारी भाजपा ने बिना किसी अगर-मगर के हमास के आतंकी हमले की निंदा की है और इजरायल के साथ खड़े रहने का ऐलान किया है. यह सचमुच अजीब सी बात है कि हजारों किलोमीटर दूर हो रहे इस युद्ध को लेकर भारत की दो प्रमुख पार्टियां आमने-सामने आ गयी हैं. वह भी तब, जब कुछ ही दिनों में आम चुनाव होनेवाले हैं और दोनों ही बड़े दल मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने को भिड़े हुए हैं. क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि मिडिल ईस्ट या वेस्ट एशिया को लेकर भारत की अब तक चली आ रही आधिकारिक लाइन को नरेंद्र मोदी ने बदल दिया है?  या, इसके मायने यह निकाले जाएं कि भारत ने अपनी घरेलू राजनीति को प्रभावित करनेवाले 'अल्पसंख्य कार्ड' का संज्ञान लेना बंद कर दिया है. 

पश्चिम एशिया से रिश्ते बदले 

भारत और मध्य पूर्व या पश्चिम एशिया के बीच के राजनीतिक संबंध लंबे अरसे से और काफी गहरे रहे हैं. दक्षिण एशिया में जब भारत का विभाजन मजहब के आधार पर हुआ, तो उसके बाद से ही मध्य पूर्व से भी हमारे रिश्ते बदलते रहे हैं. हालांकि, 21वीं सदी और खासकर नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद ये रिश्ते और भी बदले हैं. मोदी पहले प्रधानमंत्री थे जो इजरायल की यात्रा पर गए, मध्य पूर्व में भी बदलाव हुए तो भारतीय चिंतन भी बदला है. नरेंद्र मोदी के पहले भारतीय डिप्लोमैसी इजरायल के साथ संबंधों को बड़ा लुका-छिपा कर रखती है. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तो यासर अराफात को अपना भाई ही मानती थीं और संजय गांधी को वे अपना भांजा कहते थे. हालांकि, कांग्रेसी प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ही इजरायल से दूरी रखने को खत्म किया, जिसको एक दूसरे कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने ही पूरे डिप्लोमैटिक रिश्ते बरकरार कर एक नया आयाम दिया.

अटल बिहारी वाजयेपी ने इजरायली प्रधानमंत्री की मेजबानी तो की, लेकिन फिलीस्तीन से रिश्ते बरकरार रखे. यहां तक कि वर्तमान सरकार ने भी हमास को आतंकी संगठन बरकरार करने के मसले पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में एब्सटेन ही किया था, भले ही वह पहले प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने इजरायल की यात्रा की. जो ये कह रहे हैं कि वर्तमान सरकार ने फिलीस्तीन से रिश्ते खत्म कर दिए हैं, उनको हमास और फिलीस्तीन का अंतर समझना चाहिए. फिलीस्तीन अथॉरिटी अब केवल रामल्ला तक सीमित है जबकि आतंकी संगठन हमास ने गजा और वेस्ट बैंक के बहुतेरे हिस्सों प कब्जा कर लिया है. मोदी ने 2018 में रामल्ला का भी दौरा किया था. भारत की आधिकारिक लाइन अब भी वही है कि फिलीस्तीन-इजरायल संकट का हल दो देशों को बनाकर ही होगा. हालांकि, प्रधानमंत्री ने बिना किसी लाग-लपेट के हमास के आतंक का विरोध किया है, जबकि कांग्रेस आतंक को 'मूल कारण' के बहाने ढंक रही है, या फिर फिलीस्तीन कॉज को बहाना बनाकर एक तरह से हमास का समर्थन कर रही है. हमें यह समझना होगा कि हमास और फिलिस्तीन का मसला एक नहीं है. आतंक का जवाब केवल निंदा से ही दिया जा सकता है. 

बदलते समय के साथ कदमताल 

एनडीए सरकार बदलती हुई दुनिया के साथ कदमताल कर रही है. जब हम देख पा रहे हैं कि अरब देश भी इजरायल के साथ शांति स्थापित कर रहे हैं, वह भी बेशर्त तो भला भारत कब तक फिलीस्तीन कॉज का झंडा ढोता रहेगा. हमास जैसे आतंकी और मजहबी उग्रवादी संगठन न केवल इजरायल को थर्रा रहे हैं बल्कि वे मध्य पूर्व के उन अरब देशों को भी धमका रहे हैं, जो समय के साथ बदलना चाहते हैं, शांति स्थापित करना चाहते हैं. भारत सरकार की पश्चिम एशिया संबंधी नीति में एक जो सबसे बड़ा बदलाव आया है, वह भारत में मजहब के आधार पर ब्लैकमेल नहीं होना है. भारतीय उपमहाद्वीप का मजहब के आधार पर विभाजन और पाकिस्तान का तुर्किये से लेकर पूरे मध्य-पूर्व में केवल इस्लाम के नाम पर समर्थन जुटाना ही वह कारण था, जिसकी वजह से भारत की विदेशनीति वहां के लिए जटिल होती गयी. कांग्रेस ने मुस्लिम वोटों को पाने के लिए लगातार इस मसले को एक तरह से मिसहैंडल किया.

प्रतिक्रिया में अतिवादी हिंदुओं ने भी इस पूरे इलाके को धर्म के चश्मे से देखा जबकि उस पूरे इलाके में देशों के अपने अपने स्वार्थ हमेशा ही इस्लामिक पहचान पर भारी पड़ते गए. पश्चिम एशिया में फिलहाल जो संकट है, जो लगातार गहराता जा रहा है, वहां अगर भारत अपने हितों और स्वार्थ के साथ नीति नहीं बनाता है, मजहबी कट्टरता को किसी भी तरह बढ़ावा देता है, तो भारतीय विदेश नीति गहरे संकट में पड़ जाएगी. भारत जिस तरह लगातार अपनी विदेश नीति में परिवर्तन कर रहा है, उसे मध्य पूर्व की अपनी पूरी नीति को घरेलू राजनीति के हिसाब से नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों के हिसाब से देखना होगा. यही भारत के लिए अवसर भी है और एकमात्र मौका भी. 

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