भारत की विदेश नीति अभी लगातार कसौटी पर कसी जा रही है. एक भू-राजनैतिक समस्या सुलझती नहीं है कि दूसरी समस्या उठ खड़ी होती है. भारत जिस तरह वैश्विक रंगमंच पर अपनी भूमिका को बढ़ाना चाहता है, उसके लिए आवश्यक है कि वह अपनी मौजूदगी भी बढ़ाए जो पिछले कुछ समय से वह कर भी रहा है. अभी फिलहाल तीन समस्याएं ऐसी हैं, जिनसे निबटने में वैश्विक नीति के कर्णधारों की सांसें फूल सकती हैं, लेकिन अच्छी बात यह है कि हमारा विदेश मंत्रालय और विदेश मंत्री काबिले-तारीफ काम कर रहे हैं. जो तीन चुनौतियां भारत के सामने फिलहाल हैं, उनमें से रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत ने पूरी कुशलता से खुद को न्यूट्रल बनाए रखा और एक मजबूत देश की भूमिका निभाई. इजरायल-हमास संघर्ष में भारत ने वही किया, जो मानवता के नाते उसको करना था. उसने अपना स्टैंड भी नहीं बदला और आतंक के खिलाफ भारत के सिद्धांत को पूरी दुनिया के सामने रखा. कनाडा हो या चीन, भारत उनसे उनकी ही भाषा में बात भी कर रहा है, यह सबसे अच्छी बात है. 


इजरायल-अमेरिका का पिछलग्गू नहीं भारत


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज जी20 नेताओं की वर्चुअल मीटिंग की अध्यक्षता करेंगे, जहां 'दिल्ली डेक्लरेशन' के कार्यान्वयन को लेकर चर्चाएं होंगी, चुनौतियों पर बात होगी और वैश्विक प्रशासन के संवेदनशील मुद्दों पर भी बात बढ़ेगी. संयुक्त राष्ट्र की आमसभा के बाद होती यह मीटिंग भी दुनिया के बड़े नेताओं के एक मंच पर इकट्ठा होने की जगह है और इसमें भारत हमेशा की तरह वही करेगा, जो वह लंबे समय से करता आ रहा है. वह ग्लोबल साउथ की समस्याओं और चिंताओं को वैश्विक मंच पर कायदे से उठाएगा ताकि उनको सही तरह से सुना जा सके. अफ्रीकन यूनियन को जी20 का स्थायी सदस्य पहले ही बनाया जा चुका है. इस मीटिंग में शी जिनपिंग को भी शामिल होना था, लेकिन वह इससे किनारा कर रहे हैं.


इसके पहले वह जी20 की बैठक में भी नहीं आए थे. भारत ने भी मंगलवार यानी 21 नवंबर को ब्रिक्स देशों के राष्ट्राध्यक्षों की वर्चुअल मीटिंग में हिस्सा नहीं लिया था. उसके बाद तरह-तरह के कयास लगाए गए थे, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर वहां नहीं गए तो ऐसा नहीं कि वह किसी डर की वजह से नहीं गए, किसी भी देश की घरेलू नीति को भी तवज्जो देनी होती है और प्रधानमंत्री के देश में अभी पांच राज्यों में चुनाव हैं, इसलिए वह नहीं गए. यहां याद दिलाना ठीक होगा कि इसी साल जी7 की मीटिंग को अटेंड कर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी अपने देश लौट गए थे, जबकि आगे उनको दो और देशों की यात्रा करनी थी. वजह ये थी कि अमेरिका में डेट-सीलिंग का मुद्दा गरमाया हुआ था. 



संघर्ष-विराम तो होना ही था


इसके साथ ही ब्रिक्स देशों ने उस मीटिंग में कुछ नया और अनूठा नहीं पा लिया. विदेश नीति की पहली कक्षा का छात्र भी यह जानता या जानती है कि इजरायल बिना अमेरिकी मदद या हामी के कुछ भी नहीं कर सकता है. अमेरिका खुद ही इजरायल के साथ लगकर कतर की मध्यस्थता से इस संकट का हल निकालने की पहल कर रहा था और चार दिनों के संघर्ष-विराम को आखिरकार उसने इजरायल की हामी से पा ही लिया. दोनों ही देशों का लक्ष्य यह था कि हमास को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर ही इस संघर्ष को रोका जाए. बंधकों को छोड़ने के लिए जो चार दिनों का संघर्ष-विराम हुआ है, उसे बढ़ाया भी जा सकता है, लेकिन यह इजरायल पर निर्भर करता है कि वह कितना मुतमइन है कि हमास के आतंकियों को उसने मिट्टी में मिला दिया है. भारत आतंकवाद का भुक्तभोगी देश है, इसलिए 7 अक्टूबर को हमले के कुछ ही देर बाद भारतीय प्रधानमंत्री ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर इस आतंकी हमले की पुरजोर मजम्मत की थी. भारत के विदेश मंत्रालय और मंत्री ने हालांकि बारहां यह साफ किया कि इस मुद्दे पर भारत का स्टैंड नहीं बदला है. वह पहले भी टू-नेशन थियरी में यकीन करता था, अब भी करता है, लेकिन आतंक को किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता है. इसी बिना पर कुछ लोग भले ही भारत को अमेरिका और इजरायल का पिछलग्गू बता रहे हैं, लेकिन सच तो यह है कि भारत अब अपने बूते, अपने हित को देखते हुए, अपनी जनता के लिए, अपनी घरेलू नीति के साथ अपनी विदेश नीति को तय कर रहा है. 



चुनौतियां और भी हैं


भारत के सामने चीन के तौर पर सीधी चुनौती है. वह भारत की सीमाओं पर तो अड़ियल रवैया अपनाता ही है, अरब देशों से लेकर यूरोप तक में अपनी घुसपैठ कर रहा है. जी20 में जब मध्यपूर्व-यूरोप गलियारे पर सहमति बनी, तो जाहिर तौर पर चीन को वह ठीक नहीं लगा. जिनपिंग ने इसी वजह से दूरी भी बनाए रखी. अब ब्रिक्स देशों की मीटिंग में इजरायल-हमास के मुद्दे को उठाकर और लाकर वह फिर से अपनी चौधराहट का सबूत पेश कर रहा है. भारत की चिंता यह है कि वह आर्थिक तौर पर सबल राष्ट्र बने, ताकि चीन जैसों की बांह मरोड़ सके. उसके लिए मध्यपूर्व-यूरोप गलियारे का बनना बेहद जरूरी है. हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भी चीन बौखलाहट में कई अटपटे कदम उठा रहा है.


भारत ने मालदीव के राष्ट्रपति मुइज्जू के शपथ-ग्रहण में किरन रिजेजू को भेजकर चीन को एक अनकहा संकेत दिया है कि वह अरुणाचल प्रदेश पर कितने भी दावे करता रहे, लेकिन भारत अपने हिसाब से ही काम करेगा. कनाडा के मसले पर भी भारत ने जिस तरह तनकर ट्रूडो को आईना दिखाया है, वह भी एक सबक ही है. इसी तरह भारत अब अपने हिस्से के किसी भी भू-राजनैतिक दांव का उसी शिद्दत से काट भी कर रहा है, जैसा करना चाहिए.