भारतीय नौसेना लम्बे समय से अपने संसाधनों और उपकरणों के लिए सरकारों से कहती रही है. दशकों पहले से रक्षा रणनीतिकार चीन को मलक्का जलडमरूमध्य में घेरने की बात करते रहे, लेकिन भारत की नौसेना हथियार और तकनीक के मामले में चीनी नौसेना से पीछे छूटती गयी. इसका मुख्य कारण नीति निर्माताओं की अनदेखी के साथ इतिहास था. आज़ादी के बाद से भारत का हमलों और युद्धों से सामना उत्तरी सीमाओं से होता था, वहीं चीन के साथ 1962 का युद्ध भी जमीन पर लड़ा गया, उस समय भारत का कद और भूमिका वैश्विक पटल पर इतनी बड़ी नहीं थी. भारतीय नौसेना का निर्माण केवल पाकिस्तान को ध्यान में रखकर किया गया.
5 से 6 विमानवाहक पोतों का निर्माण
आज भारत प्रशांत महासागर में अपने हित और प्रभाव को सुरक्षित और बढ़ाने के लिए काम कर रहा है. उसी का उदाहरण है प्रशांत महासागर में तटीय देशों के साथ भारतीय नौसेना के करार, जिसके बाद भारत के नौसैनिक जहाज ओमान, तंज़ानिया, सिंगापुर जैसे देशों में जाकर ईंधन, खाने, पानी की आपूर्ति कर सकते हैं. इसी क्रम में भारत के विमानवाहक पोत के निर्माण को लेकर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, ''भारत जल्द ही अपना तीसरा हवाई जहाज कैरियर का निर्माण करेगा और भविष्य में पांच या छह और बनाने की योजना है''. फिलहाल भारतीय नौसेना के पास 45,000 टन वजनी दो विमानवाहक पोत हैं, INS विक्रमादित्य और INS विक्रांत. इसमें से INS विक्रांत को सितंबर 2022 में प्रधानमंत्री मोदी की उपस्थिति में भारतीय नौसेना में कमीशन किया गया. युद्धपोतों का वजन उसके प्रभाव और दक्षता को दर्शाता है. जैसे हाल ही में चीन ने फज्जान नाम के विमानवाहक पोत का परीक्षण किया. उसका वजन 80 हज़ार टन है. पोत में जितना वजन होगा, उतना वह विमान और गोला बारूद ढो पाएगा. भारत के पूर्व नौसेना अध्यक्ष एडमिरल करमबीर सिंह ने एक साक्षात्कार के दौरान 65,000 टन वजनी विमानवाहक पोत की जरूरत की बात कही थी. इसी क्रम में रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत का तीसरा विमानवाहक पोत 65,000 टन वजनी ही होगा.
विशाल होगा भारत का प्रभाव
रक्षामंत्री के बयान में युद्धपोतों की समय-सीमा का कोई जिक्र नहीं था. भारत दो के बाद अपने तीसरे विमानवाहक पोत आईएनएस विशाल का इंतजार कर रहा है, जो साल 2030 तक नौसेना में शामिल होगा. वहीं ये पोत पारंपरिक रूप से संचालित होगा. जब भारत के पास तीसरा पोत आएगा, तो 2030 तक चीन के पास 5 विमानवाहक पोत होंगे. वर्तमान में दुनिया में सबसे ज्यादा युद्धपोत वाला देश अमेरिका है, जिसके पास 11 युद्धपोत हैं. चीन के पास वैसे तो दो विमानवाहक पोत हैं, पर हाल ही में तीसरे पोत का परीक्षण चीन कर चुका है. जल्द ही चीन के पास तीन पोत हो जाएंगे. भारत और इंग्लैंड के पास दो-दो विमानवाहक पोत हैं. कई हथियार और रक्षा में रुचि रखने वाले व्यक्ति विमानवाहक पोतों के निर्माण को खर्चे के हिसाब से उतना कारगर नहीं मानते हैं. उनके कई तर्क होते हैं. भारत जैसा विकासशील देश जिसके पास संसाधन सीमित हैं और खतरे चारों तरफ से ऐसे में युद्धपोत संसाधनों पर बोझ तो बनता ही है पर युद्ध के दौरान युद्धपोतों को निशाना बनाना बड़ा आसान होता है. कुछ लाख डॉलर की मिसाइलें अरबों के विमानवाहक पोतों को पानी में डुबो सकती है. इसलिए विमानवाहक पोत भारत के लिए उपयुक्त नहीं है.
दूसरा तर्क है कि भारत अपने अंडमान निकोबार और लक्षद्वीप द्वीप समूह का उपयोग विमानवाहक पोत की तरह कर सकता हैं.उदाहरण के तौर पर पोर्ट ब्लेयर में स्थित वीर सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का उपयोग भारतीय वायु सेना के लिए पोत की तर्ज पर कर सकते हैं. Su-30 MKI भारतीय वायुसेना का लड़ाकू विमान है. इसकी परिचालन क्षमता 1500 किलोमीटर है, वहीं हवा में ईंधन भरने से ये 2 हज़ार किलोमीटर तक जा सकता है. इस से भारत की पहुंच अंडमान निकोबार के द्वीपों से 1 हजार किलोमिटर से ज्यादा हो जाएगी . ये दोनों तर्क अपनी जगह सही हैं पर इन तर्कों को जमीन पर उतारा गया तो वह अपनी सेना को सीमित करना होगा. जैसे द्वीप समूह पर पूरी तरह निर्भरता हमें उस 2 हज़ार किलोमीटर तक सीमित कर देगी और हमारी सेना रक्षात्मक मोड में आएगी. वहीं आक्रामक बचाव के साथ जवाबी कार्रवाई में ये द्वीप समूह उतने मददगार साबित नहीं होंगे. वहीं युद्धपोत इस सब में मददगार साबित होगा. भारत के चीन के पड़ोसी और तटीय देशों के साथ बढ़ते रक्षा सम्बन्ध के साथ विमानवाहक पोतों की बढ़ती संख्या जितनी बढ़ेगी, उतनी हमारी पहुंच चीन के गले यानी चीन के मुख्य भूभाग तक पहुंचेगी, पर भारत को इन युद्धपोतों का निर्माण तेजी से करना होगा, जिससे भारत इस क्षेत्र में चीन का मुक़ाबला करने में सक्षम हो.