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पीएम मोदी और विदेश मंत्री जयशंकर ने मिलकर बदल दी भारतीय विदेश नीति, लगा दिया इसमें रहस्य, रोमांच और एक्शन का तड़का

दुनिया के रंगमंच पर भारत ने अपनी धमक दिखाई और रूस को उसके सामने बैठकर भारतीय प्रधानमंत्री ने नसीहत दी कि यह समय युद्ध का नहीं है. भारतीय विदेशनीति इजरायल और हमास के संघर्ष के समय भी कसौटी पर आयी.

इस साल का अंत होने को है और अगर हम साल भर का लेखाजोखा भारतीय विदेशनीति के संदर्भ में करे, तो यह कहना होगा कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेशमंत्री एस जयशंकर ने भारतीय विदेशनीति को नयी ऊंचाइयाँ दी हैं. इसके साथ ही विदेश नीति से संबंधित कुछ फैसले भले ऐसे हों, जो लीक से हटकर लगें लेकिन तलवार की धार पर चलने की जो आवश्यकता है, उसे भारतीय विदेश नीति ने पूरी तरह हासिल किया. चाहे वह रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान तटस्थता की बात हो या इजरायल-हमास युद्ध के दौरान नयी लकीर खींचने की, भारत ने विदेश नीति को ऐसा बना दिया है कि अब सामान्य भारतीय जनता भी विदेश नीति में रुचि ही नहीं ले रही है, उसमें बेहद दिलचस्पी भी रखने लगी है. 

जी20 से बहुपक्षीय समझौतों तक

भारत ने जी20 के सफलतापूर्वक समापन के साथ ही भारत ने एक बेहद सकारात्मक कदम अपनी विदेशनीति के मार्फत उठाया. यह आशंका जतायी जा रही थी कि रूस के राष्ट्रपति पुतिन इसमें कुछ अड़चन डाल सकते हैं ताकि सर्वसम्मति से कोई प्रस्ताव पारित न हो, लेकिन भारत ने सबको साधते हुए जी-20 के समापन सम्मेलन के बाद न केवल एक सर्वसहमति वाला प्रस्ताव पारित किया, बल्कि रूस और यूक्रेन मामले पर पर्याप्त दूरी भी बनाए रखी और अफ्रीकी समूह को शामिल कर जी-20 को जी-21 भी बना दिया. इसके अलावा वह अमेरिका के न केवल करीब आया, बल्कि कई बहुपक्षीय संधियों का भी हस्ताक्षरकर्ता बना. दुनिया के रंगमंच पर भारत ने अपनी धमक दिखाई और रूस को उसके सामने बैठकर भारतीय प्रधानमंत्री ने नसीहत दी कि यह समय युद्ध का नहीं है.

भारतीय विदेशनीति इजरायल और हमास के संघर्ष के समय भी एक बार कसौटी पर आयी, जब 7 अक्टूबर को हमास के इजरायल पर आतंकी हमले के तुरंत बाद प्रधानमंत्री मोदी ने एक्स (पहले ट्विटर) पर जाकर इस हमले की कड़ी निंदा की और इजरायल के साथ खड़े होने का आश्वासन दिया. जब इजरायल ने जवाबी हमला किया और युद्ध के दौरान नागरिकों की भी हत्या हुई तो भारत पर यह दबाव पड़ा कि वह इजरायल को युद्धविराम के लिए कहे. हालांकि, भारत ने संयुक्त राष्ट्र के ऐसे पहले प्रस्ताव से एब्सेटन किया, लेकिन दूसरे प्रस्ताव पर इजरायल के खिलाफ वोटिंग भी की. भारत पर आरोप लगा कि वह फिलिस्तीन के समर्थन की दशकों पुरानी नीति पलट रहे हैं, हालांकि विदेश मंत्रालय ने इससे इनकार किया और कहा कि वह नीति को पलट नहीं रहा, लेकिन आतंक के खिलाफ समझौता नहीं करेगा. 

पड़ोस को साधने की है जरूरत

भारत भले ही वैश्विक रंगमंच पर अपनी धमक और हनक दिखा रहा है, लेकिन एशिया में उसके पड़ोसियों के साथ संबंध लगातार तनावपूर्ण या खराब बने हुए हैं. चीन के साथ तो गलवान के बाद अभी तक तनातनी है ही और पाकिस्तान 370 के खात्मे के बाद भी कश्मीर राग आलापना बंद नहीं कर रहा. हाल ही में अमेरिका गए पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष मुनीर ने वहां भी यही गाना गाया है. श्रीलंका पूरी तरह चीन के पाले में चला गया था, लेकिन जब वह कर्ज के भंवर में फंसा तो उसे भारत की याद आयी है. मालदीव के साथ भारत का पिछले कई वर्षों से बहुत नजदीकी संबंध चल रहा था, लेकिन नए प्रधानमंत्री मुइज्जू तो भारत-विरोध के नारे पर ही सत्ता में आए हैं. वहां चीन का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है और इससे हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत की चिंता बढ़ेगी.

बांग्लादेश में चुनाव हैं और अगले साल भारत भी लोकसभा चुनाव में जाएगा. नेपाल और भूटान जो सदा से भारत के साथ रहे, वे भी चीन के साथ गलबंहियां कर रहे हैं. भारत को अपने पड़ोस को सुधारने की तत्काल जरूरत है. घरेलू नीतियों का भी प्रभाव विदेश नीति पर पड़ता है और हमें नहीं भूलना चाहिए कि मणिपुर की घटना से म्यांमार के साथ भी संबंध प्रभावित होते हैं. वहीं, शेख हसीना अगर बांग्लादेश में चौथी बार चुनी गयीं तो भारत के साथ संबंध भले ही ठीक रहें, लेकिन अमेरिका उस पर मानवाधिकार को लेकर सख्त है, यह भी ध्यान रखने की जरूरत है. नूपुर शर्मा के एक विवादित बयान के बाद मध्य पूर्व के देश भारत के खिलाफ हो गए थे और अभी इजरायल-हमास युद्ध पर भारत के स्टैंड से भी बहुत खुश नहीं है. इसलिए, भारत को बड़े देशों को साधने के साथ अपनी घरेलू नीति के मुताबिक मुस्लिम देशों और पड़ोसियों को भी साधने की जरूरत है. 

अमेरिका के साथ 'डेटिंग'

भारत और अमेरिका इस बीच एक-दूसरे के बहुत करीब आए हैं और यह जगजाहिर है. भारत में अमेरिकी राजदूत ने तो यहां तक कह दिया है कि भारत और अमेरिका के संबंध किसी फेसबुक स्टेटस की तरह हैं, जहां वे कॉम्प्लिकेटेड से अब डेटिंग की तरफ आ गए हैं. हालांकि, अमेरिका में भी चुनाव होने हैं और बाइडेन की उम्र और स्वास्थ्य की वजह से वो गणतंत्र दिवस 2024 पर मुख्य अतिथि नहीं बन पाएंगे, लेकिन चीन को रोकने के लिए जहां अमेरिका को भारत की जरूरत है, वहीं रूस के अपने मामले में फंसे होने की वजह से भारत को भी अमेरिका की जरूरत है.

भले ही अमेरिका ने भी कनाडा के बाद भारत के एक नागरिक पर खालिस्तानी आतंकी पन्नू -जो अमेरिकी नागरिक है-को मारने की साजिश में शामिल होने का आरोप लगाया, लेकिन वह वहां के जस्टिस डिपार्टमेंट तक ही महदूद रहा है. वहां के किसी राजनीतिज्ञ ने अभी तक भारत को इसमें नहीं घसीटा है. भारत ने भी इस पर सधी हुई प्रतिक्रिया दी है. भारत में अगले गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि शायद फ्रांस के राष्ट्राध्यक्ष मैक्रां बनें और भारत इस बहाने फ्रांस और यूरोप में भी अपनी पैठ बनाना चाहता है. भारत की विदेश नीति अभी भी खड्ग की धार पर चलने सरीखी है और अगले साल के चुनाव को देखते हुए मोदी और जयशंकर की यह अग्नि-परीक्षा होगी कि वह घरेलू मतदाताओं को भी अपने पक्ष में रखते हुए वैश्विक रंगमंच पर भी जलवाफरोज हों. 

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