RLV-LEX का सफल परीक्षण नासा सहित Space X जैसे प्राइवेट खिलाड़ियों को भी करेगा बाहर, भारत की नजर अब अंतरिक्ष पर्यटन पर
इसरो का रीयूजेबल लांच वीकल नासा के स्पेस शटल की तरह ही है. 2030 तक यह पृथ्वी की निचली कक्षा में 10 हजार किलोग्राम तक का वजन भी ले जा सकता है.
भारत रीयूजेबल स्पेसक्राफ्ट के परीक्षण के साथ ही दुनिया के गिने-चुने देशों में शामिल हो गया है. नासा के साथ ही यह मस्क और स्पेस एक्स जैसे प्राइवेट यानी निजी खिलाड़ियों के लिए भी चुनौती है, जो अंतरिक्ष के टूरिज्म पर आंख गड़ाए बैठे हैं. (ब्लर्ब) भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी ISRO ने रविवार 2 अप्रैल को अपने रीयूजेबल यान आरएलवी एलईएक्स का सफलतापूर्वक परीक्षण पूरा किया है. यह परीक्षण कर्नाटक के चित्रदुर्ग में हुआ। भारत ने पहली बार इस तरह का काम किया है, जब 4.5 किमी की ऊंचाई पर ले जाकर किसी बॉडी को रनवे पर ऑटोनोमस लैंडिंग के लिए छोड़ा है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें कोई भी मैनुअल काम नहीं था, यानी यह काम पूरी तरह मशीनों के सहारे हुआ है. यह सचमुच ऐतिहासिक है. ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी भी विंग बॉडी को हेलीकॉप्टर के जिरए 4.5 किलोमीटर की ऊंचाई पर ले जाकर रनवे पर खुद है लैंड करने के लिए छोड़ दिया गया.
आपको पता है कल्पना चावला की कहानी?
अब आपको कल्पना चावला की कहानी बताते हैं. इनका नाम तो आपने सुना ही होगा. ये एक अंतरिक्ष यात्री थीं- भारतीय-अमेरिकी. अमेरिका के कैनेडी स्पेस सेंटर के लांच पैड से स्पेस शटल कोलंबिया ने जब 16 जनवरी 2003 को उड़ान भरी तो उसमें कल्पना समेत सात और एस्ट्रोनॉट यानी अंतरिक्ष यात्री सवार थे. 16 दिनों तक उन्होंने स्पेस में प्रयोग किए और फिर जब 1 फरवरी को उन्हें पृथ्वी पर लौटना था तो पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करते ही उनका शटल जलकर राख हो गया. सभी की मौत हो गई. हादसे का कारण बस एक छोटा सा फोम का टुकड़ा था.
नासा से टक्कर ले रहा है इसरो का ये स्पेस शटल
इसरो का रीयूजेबल लांच वीकल नासा के स्पेस शटल की तरह ही है। 2030 तक यह पृथ्वी की निचली कक्षा में 10 हजार किलोग्राम तक का वजन भी ले जा सकता है. इस पर बात करते हुए अंतरिक्ष विज्ञानी अमिताभ पांडेय कहते हैं, ‘देखिए, स्पेस शटल प्रोग्राम अब तक का रूस और अमेरिका का बेहद सफल रहा है. हां, हमने जो पहला कदम उठाया, वह सफल रहा. यह ऑटोमेटिक लैंडिग जो है, वह बहुत महत्वपूर्ण है. इंसानों का जो काम है, वो रोबोटिक इंस्ट्रूमेंट बनाना है, सेल्फ-गाइडेड सारी चीजें करना है. हां, हाइपरसोनिक वीकल से लेकर अभी तक का जो सक्सेसफुल लैंडिंग वाला मामला है, वह एक सक्सेसफुल और माइलस्टोन वाली बात है.’
भारत के लिए स्पेस स्टेशन के साथ अनंत संभावनाएं
अमिताभ बताते हैं कि यह कदम भारत के लिए बहुत जरूरी है. वह कहते हैं, ‘देखिए, चीन के पास भी अपना स्पेस स्टेशन बनाने वाली तकनीक है. हमने भी इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया है. मुझे कहने में कोई हिचक नहीं कि पहले लग रहा था कि हम पिछ़ड रहे हैं. अब लग रहा है कि हमें छोटे और मॉडुलर कंटेंट की जरूरत है, जो सेल्फ-गाइडेड हों और हम उस पर काम कर सकें. इससे स्पेस एक्स जैसी प्राइवेट कंपनियों को जवाब मिलेगा।’
एलन मस्क को भी मिलेगी चुनौती
अब जरा समझिए कि रॉकेट मिशन की आधारभूत बातें और ये रीयूजेबल तकनीक क्या है? रॉकेट के साथ ही उस पर लगा स्पेसक्राफ्ट आप यूं समझिए कि रॉकेट का काम स्पेसक्राफ्ट को अंतरिक्ष में पहुंचाना होता है, फिर उसको समंदर में गिरा देते हैं. पूरी दुनिया में यही काम होता था. यहीं रीयूजेबल तकनीक काम आई. यहीं दुनिया के सबसे अमीर कारोबारी एलन मस्क की कंपनी स्पेसएक्स ने सबसे पहले ऐसे 9 रॉकेट बनाए.
इसरो की तकनीक नई है
हालांकि, कुछ विद्वानों का सवाल है कि जिस स्पेसशटल पर अमेरिका और रूस वर्षों पहले काम करना बंद कर चुके हैं, उस पर अब हम क्यों काम कर रहे हैं. इसका जवाब यह है कि उनकी तकनीक पुरानी यानी 20वीं सदी की थी, हम 21वीं सदी के तरीके से काम कर रहे हैं. साथ ही, यह जरूरी नहीं कि रूस-अमेरिका ने जो किया, वही सत्य हो, वरना रूस दर्जनों टुकड़ों में ही नहीं बंटता. बात यह है कि इसरो रॉकेट के ऊपरी हिस्से को बचाने पर काम कर रहा है, जो काफी महंगा होता है. इससे हमारी लागत में कमी आएगी.
हम स्पेस की दुनिया में ताकत हैं
इस लांच के साथ ही भारत स्पेस टूरिज्म की ओर भी देखेगा. भारत का यह वीकल 2030 तक तैयार हो जाएगा, उसके बाद स्पेस टूरिज्म के लिए भारत भी अपने दरवाजे खोल सकता है. अभी एक अंतरिक्ष यात्री को लगभग 6 करोड़ रुपए लगते हैं. हालांकि, भारत की कम लागत वाली योजना की वजह से यह आने वाले साल में बहुत कम भी हो सकती है.