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रेत खनन के जरिए नदी की  पेटी नहीं, अपना भविष्य ही खोद रहा है आधुनिक समाज 

असली समस्या है विकास का पश्चिमी एकाकी मॉडल जिसे भारत सहित सभी विकासशील देशों  ने अपने  स्थानीय पर्यावरण और जरुरत के इतर अपना लिया. इसने प्रकृति से विलगाव और प्रकृति के साथ जुड़ाव को अलग कर दिया.

मानव सभ्यता नदियों के किनारे जन्मी, नदी तटों की गोद में फलती-फूलती रही. ये सारी नदियां अपने पेट में हजारों छोटी नदियों का जल समाहित करती थीं. बीते दशक में हमारे देश की हजारों छोटी नदियां लुप्त हो गईं. लगभग यही हाल विश्व के सत्तर से ज्यादा देशों का है,जहाँ दम तोड़ती छोटी नदियों की वजह से बड़ी नदियां भी संकट से दो-चार हैं. नदियों को हमने विकास के वर्तमान प्रारूप के रास्ते में ला खड़ा किया है. नदियों को, अपने अपशिष्ट जल-मल और कचरों के निस्तारण का उपादान बना देने और नदियों से सारा पानी खींच लेने की हमारी प्रवृत्ति ने विश्व भऱ की नदियों के अस्तित्व पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं.

नदियों से बालू निकालने की प्रवृत्ति बेलगाम

इन सब के अलावा पिछले कुछ दशक में निर्माण कार्यो के लिए जल के साथ-साथ नदियों से बालू भी निकाल लेने की प्रवृत्ति बेतहाशा और बिना किसी रोक-टोक के बढ़ी है. मौसमी छोटी नदियों की समाप्ति के मूल में बेतहाशा रेत को निकालना है, जिसकी वजह से उनका अपने उद्गम व बड़ी नदियों से मिलन का रास्ता बंद हो गया और देखते ही देखते वहां का पानी सूखता चला गया. येल स्कूल ऑफ़ एनवायरनमेंट की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक नदी सहित अन्य स्रोतों से बालू खनन का दायरा इस कदर बढ़ा है कि रेत खनन विश्व का सबसे बड़ा खनन व्यवसाय है,और वर्तमान में कुल खनिज खनन में 85% से अधिक योगदान बालू खनन का है. बालू खनन के मौजूदा परिदृश्य को देखे तो ये संभवतः बेतरतीब, क़ानूनी रूप से सबसे कम नियंत्रित और पर्यावरण  के लिए सबसे ज्यादा नुकसानदायक खनन प्रक्रिया है. कहीं-कहीं तो नदियों के प्राकृतिक रूप से रेत जमा करने की गति से पचासों गुना ज्यादा गति से बालू का दोहन हो रहा है. बड़े स्तर पर सर्वव्यापी इस्तेमाल, और इससे पर्यावरण पर होने वाले बड़े पैमाने पर नुकसान  के बाद भी बालू खनन की क़ानूनी प्रक्रिया बहुत ही लचर है, इसके लिए कोई स्थानीय या अंतर्राष्ट्रीय मानदंड भी नहीं है.

रेत का है महत्त्व, पर पर्यावरण का कहीं अधिक   

विकासशील देशों में रेत के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. बालू का उपयोग मुख्य रूप से कंक्रीट, सड़क निर्माण, शीशा उद्योग, और प्राकृतिक गैस और सेल के खनन में होता है, पर अब रेत खनन  कई महत्वपूर्ण रेयर अर्थ मेटल जैसे टाइटेनियम आदि के लिए भी होने लगा है. रेत का सबसे अधिक इस्तेमाल कंक्रीट निर्माण में होता है जहां इसे सीमेंट के मुकाबले छ: से सात गुना ज्यादा जरुरत होती है. कंक्रीट के लिए सबसे उपयुक्त बालू नदी में बहने वाली रेत होती है जो अपने असमान आकार के कारण सीमेंट में अच्छे से मिल कर कंक्रीट को मजबूती देती है. वहीं मरुभूमि की रेत गोलाकार होने और समुद्रतल की रेत घुलनशील होने के कारण सर्वथा अनुपयुक्त होती है. मौजूदा परिदृश्य में विकासशील देशो में जहां कंक्रीट आधारित निर्माण कार्य में अभूतपूर्व रूप से वृद्धि हुई है, वैसे देशों में बालू और सीमेंट की मांग भी उसी अनुरूप बढ़ी है, भारत में ही पिछले दो दशक में ही बालू और सीमेंट की खपत में कम से कम तीन गुनी वृद्धि दर्ज की गयी है. चीन, जिसने वर्तमान सदी में आर्थिक विकास में नए पैमाने गढ़े है, बालू की खपत के मामले में भी कीर्तिमान स्थापित किया है. पिछले तीन साल में ढांचागत निर्माण में इतना अधिक बालू का इस्तेमाल हुआ है जितना पूरी बीसवीं सदी में संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ. यूनाइटेड नेशन एनवायरनमेंट प्रोग्राम के मुताबिक हर साल हम 40 अरब टन से अधिक रेत और बजरी का खनन और उपयोग करते हैं, जिसका अधिकांश हिस्सा अवैध तरीके से हासिल किया जाता है. मांग इतनी अधिक है कि दुनिया भर में नदी तल और समुद्र तट खाली होते जा रहे हैं. आज स्थिति यह है कि पानी के बाद दुनिया में दूसरा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला संसाधन रेत है.

रेत में ही है नदियों की जान

नदियों में पानी के साथ धीरे धीरे बहता रेत, पानी सोख कर उसके तल की गहराई को बनाए रखती थीं. इसी रेत की बदौलत गंगा की विशाल घाटी खेती लायक हिस्सा है जहां खरबूज-तरबूज की मिठास है तो रेतों में दबे कछुओं के अंडे हैं, डॉलफिन और घड़ियाल जैसे लुप्तप्राय जीवो का अस्तित्व है, प्रवासी पक्षियों का डेरा है तो हजारों साल से फलता-फूलता मछली का कारोबार है. नदियों की तली में रेत की मौजूदगी असल में उसके प्रवाह को रोकती है, जिससे पानी को भू-जल के पुनर्भरण के लिए पर्याप्त समय मिलता है, दूसरी तरफ नदी के प्रवाह के साथ बहता बालू जल को शुद्ध रखने की छननी  का काम करता है और नदी के गाद को रोकता है. नदी तटों तक रेत का विस्तार नदी को सांस लेने का अंग होता है, रेत एक तरह से नदियों का फेफड़ा है जो नदियों को स्वस्थ रहने में मदद करता है. और नदी के दोनों तरफ रेत के इन्ही फैलाव में नदी जब चाहे तब विस्तार करती रहती है. इस प्रकार नदी के साथ बहता बालू और तट के इतर फैला रेत नदी के पारिस्थितिकी तंत्र का एक संवेदनशील और महत्वपूर्ण अंग है. समुद्री तट पर जमीन के तरफ का भूमिगत मीठा पानी और समुद्र का खारा पानी घनत्व के अनुसार तट के साथ साथ एक संतुलन में रहते है जिससे खारे पानी का संक्रमण जमीन  की तरफ नहीं हो पाता, पर बालू के अवैध खनन और भू-जल के दोहन के कारण सारा तटीय क्षेत्र खारे पानी के संक्रमण से उजड़ रहे है. आज जब मैदानी और समुद्र तटीय भाग में भूमिगत जल के लिए त्राहिमाम् मचा हुआ है  भूजल पुनर्भरण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बालू को नजरंदाज करना पांव में कुल्हाड़ी मारने के समान है. 

पर्यावरण-प्रतिकूल प्रभाव को होगा रोकना

हालांकि, रेत बनाने के लिए चट्टानों को पीसना अपेक्षाकृत सरल प्रक्रिया है, लेकिन इसके अपने पर्यावरणीय प्रभाव भी हैं. मशीनें बहुत अधिक ऊर्जा की खपत करती हैं, इस प्रक्रिया से ध्वनि, धूल और जल प्रदूषण उत्पन्न होता है साथ ही साथ नदी के रेत के मुकाबले आठ गुणा तक महंगा भी है. समग्रता से देखें तो रेत खनन का समाधान पिछले कुछ दशको में हुए नदियों के साथ हुए व्यापक स्तर पर हुए छेड़छाड़ में भी निहित है और कंक्रीट के इतर स्थानीय और परम्परागत निर्माण के विकेन्द्रित प्रणाली विकसित करने में भी. अनियंत्रित बालू खनन के साथ साथ अनगिनत बांध के कारण नदियों में गाद भरता जा रहा है, हाँलाकि गाद रेत का उपयुक्त विकल्प नहीं है, पर इसमें भी कंक्रीट के लायक बालू का खनन हो सकता है. वही, कंक्रीट जो अब निर्माण कार्य का एक मात्र विकल्प है, के बुरे प्रभाव के कारण, से इतर विकल्पों के प्रति जागरूकता बढ़ी है. इन चुनौतियों में महत्वपूर्ण और प्रभावी समाधान नदी से बालू खनन के अवैज्ञानिक तरीकों  पर तत्काल रोक, बालू खनन के लिए प्रभावी स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनी तंत्र का विकास, और चट्टानों से बनी रेत यानि ‘एम रेत’ को बढ़ावा देने में निहित है. एम रेत के लिए निर्माण कार्य के अपशिष्ट एक अच्छा और सस्ता विकल्प हो सकता है. 

ऐसा नहीं कि नदी या समुद्र तट से रेत खनन का विकल्प नहीं पता, या सूखती और मरती नदियों से हम अनजान हैं, असली समस्या है विकास का पश्चिमी एकाकी मॉडल जिसे भारत सहित सभी विकासशील देशों  ने अपने  स्थानीय पर्यावरण और जरुरत के इतर अपना लिया. इसने प्रकृति से विलगाव और इस विलगाव में शहरों के कंक्रीटीकरण ने हमारी प्रकृति के साथ जुड़ाव को बिल्कुल ही अलग कर दिया. आज रेत का रीतना समय के साथ सभ्यता का बीतना है. विकास और अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करने का खेल समानांतर चल रहा जिसमें बालू की भूमिका बनी हुई है, लेकिन सवाल यह है कि अवैध खनन की आड़ में यह सबकी आँखों के सामने से चल रहा जिसपे हाथ डालना बिल्ली के गले में घंटी बांधने के समान है.

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