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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

स्पेस इकोनॉमी में तेजी से बढ़ रहा है भारत का रकबा, चीन को टक्कर देने की राह पर

Space Economy: ग्लोबल स्पेस इकोनॉमी 2025 तक 600 अरब डॉलर हो जाएगा. भारत भी तेजी से इस क्षेत्र में कदम बढ़ा रहा है. कमर्शियल सैटेलाइट लॉन्चिंग में भारत पर भरोसा लगातार बढ़ रहा है.

Space Economy India: अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर हर क्षेत्र का भारत को विकसित बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका है. उन क्षेत्रों में से एक है स्पेस यानी अंतरिक्ष से जुड़ी अर्थव्यवस्था. स्पेस इकोनॉमी में भारत तेजी से अपनी उपस्थिति बढ़ा रहा है.

आने वाले वक्त में भारत स्पेस इकोनॉमी का एक बड़ा खिलाड़ी बनने वाला है और इसके लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो के साथ ही न्यूस्पेस इंडिया लिमिटेड (NSIL) और IN-SPACe जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं.

जिस तरह से इसरो इस दिशा में आगे बढ़ रहा है, भविष्य में भारत वैश्विक वाणिज्यिक प्रक्षेपण सेवा प्रदाता (global commercial launch service provider) के तौर पर दुनिया की अगुवाई करेगा.

सरकारी कंपनी और इसरो की वाणिज्यिक इकाई न्यूस्पेस इंडिया लिमिटेड ने पिछले महीने 26 मार्च को अपने सबसे भारी रॉकेट एलवीएम-3 के जरिए 36 सैटेलाइट को लॉन्च किया था. ये एक कमर्शियल लॉन्चिंग थी, जो उपग्रह संचार कंपनी वनवेब के लिए किया गया था. इसके लिए  न्यूस्पेस इंडिया लिमिटेड ने पिछले साल 23 अक्टूबर को भी 36 उपग्रहों को लॉन्च किया था. ये पूरा करार एक हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का था.  ये करार इसरो के सबसे बड़े उपग्रह प्रक्षेपण वाणिज्यिक ऑर्डर में से एक था.

ये लॉन्च अंतरिक्ष से दुनिया के कोने-कोने तक ब्रॉडबैंड इंटरनेट सेवा पहुंचाने के मिशन से जुड़ा था. आने वाले वक्त में स्पेस से हाई स्पीड इंटरनेट सेवा सुविधा की मांग तेजी से बढ़ने वाली है और इस मकसद से भविष्य में सैटेलाइट लॉन्चिंग एक बड़ा व्यवसाय बनने वाला है. भारत की नजर इस बाज़ार पर भी है. वनवेब के मिशन के लिए पिछले 6 महीने में 72 सैटेलाइट को लॉन्च कर भारत ने इस बाजार पर अपनी दावेदारी मजबूत कर ली है. अंतरिक्ष से वितरित हाई-स्पीड इंटरनेट की मांग ने उपग्रहों को कक्षा में लॉन्च करना एक बड़ा व्यवसाय बना दिया है.

तेजी से बढ़ रही है स्पेस इकोनॉमी

स्पेस इकोनॉमी का आकार बहुत ही तेजी से बढ़ रहा है. अर्न्स्ट एंड यंग की रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में स्पेस इकोनॉमी का आकार 447 अरब डॉलर तक था जिससे 2025 तक 600 अरब डॉलर के पार जाने की उम्मीद है. इंडियन स्पेस एसोसिएशन और अर्न्स्ट एंड यंग की  'डेवलपिंग द स्पेस इको सिस्टम इन इंडिया' के नाम से प्रकाशित रिपोर्ट में भी कहा गया था कि स्पेस लॉन्चिंग का बाजार 2025 तक बहुत ही तेजी से बढ़ेगा. इस रिपोर्ट में भारत में इसके सालाना 13 फीसदी के हिसाब से वृद्धि का अनुमान लगाया गया है. इसके पीछे की मुख्य वजह स्पेस के क्षेत्र में निजी भागीदारी का बढ़ना तो है ही, साथ ही नई-नई तकनीक आने और लॉन्चिंग सेवाओं की लागत में कमी की वजह से भी स्पेस इकोनॉमी तेजी से बढ़ेगी.

भारत में स्पेस इकोनॉमी का बढ़ता दायरा

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 6% की सालाना वृद्धि दर से भारत के स्पेस इकोनॉमी का आकार 13 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है और इसमें निजी उद्योग की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होगी. 2020 में ग्लोबल स्पेस इकोनॉमी में भारत का हिस्सा करीब 2.6% और ये 9.6 अरब डॉलर के बराबर था. ये देश के जीडीपी का 0.5% था. सैटेलाइट सर्विस और एप्लीकेशन सेगमेंट सबसे बड़ा हिस्सा होगा, जो 2025 तक भारतीय स्पेस इकोनॉमी का 36% होगा. 

भारत में है अपार संभावनाएं और क्षमता

स्पेस इकोनॉमी बढ़ाने के लिए जो जिम्मेदार कारक है, उन सभी कारकों में भारत के पास अपार संभावनाएं हैं. भारत की सबसे बड़ी खासियत ये हैं कि इसरो की वाणिज्यिक इकाई के जरिए कमर्शियल सैटेलाइट लॉन्चिंग की लागत विकसित देशों की तुलना में काफी कम है. इसके साथ ही इसरो के वैज्ञानिक उन तकनीकों के विकास पर भी शिद्दत के साथ जुटे हैं.

आधुनिक तकनीक हासिल करने में जुटा इसरो

हमारे देश के वैज्ञानिकों के अथक मेहनत का ही नतीजा है कि भारत ने 2 अप्रैल को  दोबारा उपयोग में लाए जा सकने वाले प्रक्षेपण यान की स्वतः लैंडिंग का मिशन सफलतापूर्वक पूरा कर लिया. इसे Reusable Launch Vehicle Autonomous Landing Mission (RLV LEX) कहा जाता है. इसरो ने ये कामयाबी  डीआरडीओ और इंडियन एयर फोर्स के सहयोग से कर्नाटक में चित्रदुर्ग के एयरोनॉटिकल टेस्ट रेंज (ATR) में  हासिल किया. जब भारत अपने कमर्शियल सैटेलाइट लॉन्चिंग में इन रीयूजेबल लॉन्च व्हीकल का इस्तेमाल करेगा तो यहां से सैटेलाइट लॉन्चिंग और भी सस्ती हो जाएगी. इससे भारत की पकड़ स्पेस इकोनॉमी में मजबूत होगी.

रूस और चीन से दूर हो रहे उपभोक्ता

स्पेस इकोनॉमी में भारत की संभावना इसलिए भी बढ़ रही है कि फिलहाल रूस और चीन जिस तरह की साम्राज्यवादी और विस्तारवादी नीति अपना रहे हैं, उस भू-राजनीतिक अलगाव का लाभ भारत को कमर्शियल स्पेस लॉन्च में मिल सकता है. यही वजह है कि भारत खुद को SpaceX का भरोसेमंद विकल्प बनाने के लिए स्पेस से जुड़े बाजार पर फोकस कर रहा है. उसके हिसाब से नीतियां बन रही है.  SpaceX फिलहाल स्पेस इकोनॉमी में स्पेसक्राफ्ट बनाने, कमर्शियल सैटेलाइट लॉन्चिंग में अग्रणी है, जिसकी स्थापना उद्योगपति एलन मस्क ने की थी.

अब तक एलन मस्क के स्पेसएक्स के साथ ही रूस और चीन वाणिज्यिक तौर से सैटेलाइट लॉन्च करने के बड़े खिलाड़ी रहे हैं. लेकिन पिछले एक साल से भी ज्यादा वक्त से यूक्रेन के साथ जारी युद्ध ने रूस की संभावनाओं को कमजोर किया है. वहीं अमेरिका के साथ चीन के बिगड़ते रिश्तों से भी बहुत सारे देश और निजी उपभोक्ता कमर्शियल स्पेस सर्विस के लिए बीजिंग से दूरी बना रहे हैं. रूस के इनकार के बाद ही वनबेव ने भारत के न्यूस्पेस इंडिया लिमिटेड के साथ अंतरिक्ष से इंटरनेट सेवा मुहैया कराने के मिशन के लिए  72 सैटेलाइट लॉन्च करने का करार किया था.

इस क्षेत्र में फ्रांस भी आगे हैं, लेकिन  फ्रांस के एरियनस्पेस को अपने नए रॉकेट को तैयार करने में परेशानियों से जूझना पड़ रहा है. दूसरी तरफ ब्रिटिश कारोबारी रिचर्ड ब्रैनसन से जुड़ी सैटेलाइट लॉन्च कंपनी वर्जिन ऑर्बिट होल्डिंग्स इंक ने हाल ही में कहा था कि जनवरी में लॉन्च की विफलता के बाद यो अनिश्चित काल के लिए अपने परिचालन बंद कर रहा है.

सैटेलाइट लॉन्चिंग की कम लागत

भारत के पक्ष में एक और बात है कि स्पेसएक्स के लॉन्चिंग मिशन की लागत ज्यादा होती है. इस नजरिए से बहुत सारे देश और निजी उपभोक्ता भारत की ओर रुख करेंगे. कम लागत की वजह से ही सैटेलाइट लॉन्चिंग के लिए भारत काफी पसंद किया जाने वाला विकल्प है. आप सब को याद होगा कि 2013 में भारत ने मंगल ग्रह पर आर्बिटर भेजा था और उस मिशन की लागत इसी साल नासा के प्रोब की तुलना में 10वां हिस्सा था. 

अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन

केंद्र सरकार की ओर से भी इसरो को लगातार प्रोत्साहन के साथ भरपूर समर्थन मिल रहा है, जिससे भारतीय स्पेस एजेंसी ज्यादा बिजनेस फ्रेंडली बन सके. इसके लिए स्पेस के क्षेत्र में स्टार्टअप को भी बढ़ावा दिया जा रहा है. इस दिशा में ही महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए 2020 में केंद्र सरकार ने निजी क्षेत्र की उपग्रह और रॉकेट कंपनियों के लिए नियमों में छूट दी थी. इसके तहत इसरो से अलग प्राइवेट सेक्टर को स्वतंत्र अंतरिक्ष गतिविधियों को करने की अनुमति मिली. साथ इस क्षेत्र के स्टार्टअप के लिए इसरो की सुविधाओं जैसे लॉन्च पैड और प्रयोगशालाओं तक भी पहुंच को मुमकिन बनाया गया.

न्यूस्पेस इंडिया लिमिटेड पर बड़ी जिम्मेदारी

2019 में इसरो की वाणिज्यिक इकाई के तौर न्यूस्पेस इंडिया लिमिटेड का गठन किया गया था. यही इसरो के वाणिज्यिक पहलुओं को संभालता है और स्पेस इकोनॉमी में भारत की पकड़ बढ़ाने के लिए काम करता है. ये लॉन्च व्हीकल के उत्पादन के लिए भी जिम्मेदार है. पिछले वित्तीय वर्ष में इस सरकारी कंपनी ने 17 अरब रुपये का राजस्व हासिल किया था, जिसमें 3 अरब रुपये का लाभ था.  न्यूस्पेस इंडिया लिमिटेड ने इस दौरान 52 अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों के लिए उपग्रह प्रक्षेपण सेवाएं मुहैया कराया.

राह में हैं कई चुनौतियां

स्पेस इकोनॉमी में चीन को पीछे छोड़ना भारत के लिए इतना आसान भी नहीं है. इसके लिए अभी भारत को लंबा सफर तय करना पड़ सकता है. अमेरिकी थिंक टैंक सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज के मुताबिक  मार्च 2020 तक, चीन के पास पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले सभी उपग्रहों का 13.6% हिस्सा था, जबकि भारत के लिए ये आंकड़ा 2.3% था. पिछले साल चीन ने 64 लॉन्च किए थे. वहीं भारत ने 5 लॉन्च ही किए थे. चीन में सैटेलाइट लॉन्चिंग के क्षेत्र में उतरने के लिए निजी कंपनियों तेजी से कदम बढ़ा रही है, वहीं भारत में अभी ये सिर्फ इसरो और उसकी वाणिज्यिक इकाई न्यूस्पेस ही कर रहे हैं. इसके साथ ही भारत को अपने कमर्शियल पहलू को और मजबूत करने के लिए बड़ी संख्या में भारी राकेट यानी हेवी लॉन्च व्हीकल की जरूरत है.

जोखिम दर को कम करने की जरूरत

एक और पहलू है जिस पर भारत को ध्यान देने की जरूरत है. लॉन्चिंग की सफलता दर और रॉकेट की विश्वसनीयता को बढ़ानी होगी.  इस मामले में हाल के वर्षों में भारत की सफलता दर करीब 70% है. वहीं अमेरिका, यूरोप, रूस या चीन से रॉकेट प्रक्षेपण की सफलता दर 90 फीसदी के आसपास है. भारत को इस बात के लिए ज्यादा मेहनत करनी होगी और दुनिया को ये साबित करके दिखाना होगा कि यहां से सैटेलाइट लॉन्चिंग में अब जोखिम बहुत कम रह गया है.

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