भारत की विदेश नीति अभी संभवतः वह जहाज है, जिस पर कैप्टन की भूमिका में होना और उसे कंट्रोल करना बहुत मुश्किल है. पिछले साल से चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत की भूमिका अभी स्कैनर के नीचे थी ही, कि इजरायल और हमास के बीच पिछले एक महीन से चल रहे संघर्ष ने फिर से भारतीय कूटनीति की अग्निपरीक्षा सामने ला दी है. 7 अक्टूबर को जब आतंकी संगठन हमास ने इजरायल के ऊपर हमला किया और हजार से भी अधिक इजरायली नागरिकों को हलाक कर दिया था, तो भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिना किसी दुविधा के इजरायल के साथ खड़े रहने और आतंकी हमास की निंदा करने का काम किया था. उसके बाद इजरायल के जवाबी हमले में जब गाजा में नागरिक सेवाओं की हालत खराब हुई तो भारत ने वहां मानवीय सहायता भेजने में देर भी नहीं की. भारत के इजरायल को बेशर्त समर्थन से देश और विदेश में यह भ्रामक स्थिति पैदा हुई कि भारत शायद अब पूरी तरह इजरायल के साथ खड़ा है और फिलीस्तीन को भूल चुका है, हालांकि ऐसी कोई बात नहीं है और भारत ने बारहां इस बात को दोहराया है कि वह अभी भी टू-स्टेट (यानी फिलीस्तीन औऱ इजरायल) बनने के पक्ष में खड़ा है. 


भारतीय विदेश नीति अभी भी निर्गुट


भारत के प्रधानंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ईरानी समकक्ष इब्राहिम रईसी के साथ सोमवार यानी 6 नवंबर को लंबी बातचीत की. यह बातचीत इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि अगले रविवार यानी 12 नवंबर को इस्लामिक देशों के संगठन की बैठक हो रही है और उसमें सउदी अरब और ईरान आपसी मतभेद भुलाकर लगभग 12 वर्षों के बाद एक मंच पर इकट्ठा हो रहे हैं. इससे एक दिन पहले ही विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अपने ईरानी समकक्ष हुसैन आमिर अब्दुल्लाहियान से बात की थी. 7 अक्टूबर को हमास के आतंकी हमले के बाद पीएम मोदी के ट्वीट को फिलीस्तीन पर भारत के रुख में बदलाव से जोड़ा जाने लगा था. वैसे, भारत ये कई बार कह चुका है कि फिलीस्तीन को लेकर वह टू-नेशन स्टेट वाले समाधान का ही समर्थक है. इस बीच हमास के आतंकियों ने वेस्ट बैंक में चल रही फिलीस्तीन सरकार के मुखिया महमूद अब्बास पर हमला भी किया है, उससे पहले भारतीय प्रधानमंत्री ने गाजा में मानवीय सहायता भी भेजी है और फिलीस्तीनी राष्ट्रपति से बातचीत भी की है. ईरान वह एकमात्र देश है, जिसने खुलकर हमास के आतंकियों का समर्थन किया है और उनको मदद देने की बात भी स्वीकारी है. ईरान की शह के बाद ही हिजबुल्ला ने इजरायल पर दूसरा मोर्चा भी खोला है और सीरिया व यमन में अमेरिकी ठिकानों पर हमला भी हुआ है. 



ईरान है पश्चिम-विरोध की धुरी 





ईरान के राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सोमवार यानी 6 नवंबर को हुई बातचीत के दौरान कहा कि उनका देश तुरंत युद्ध विराम और गाजा के लोगों को मदद पहुंचाने के लिए पूरी दुनिया के संयुक्त प्रयासों के पक्ष में है. रईसी ने मोदी को यह भी याद दिलाया कि भारत ने पश्चिमी उपनिवेशवाद के खिलाफ कैसा संघर्ष किया है और वह गुटनिरपेक्ष आंदोलन का भी संस्थापक रहा है. ईरानी ने इस बातचीत में भी अपने आक्रामक रुख को बरकरार रखा और कहा कि फिलीस्तीनी जनता को यहूदीवादी आक्रमण को रोकने के लिए हर संभव प्रयास करने का अधिकार है.


भारत की समस्या ये है कि यहां सबसे अधिक मुसलमान भी हैं और मुस्लिमों के जो दो विशेष समुदाय शिया और सुन्नी हैं, उसमें से ईरान सबसे बड़ा शिया मुल्क है, उसके बाद भारत में ही सबसे अधिक शिया रहते हैं. हालांकि,  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गाजा में हालात बेकाबू होने से रोकने और मानवीय मदद पहुंचाने के लिए प्रयास जारी रखने पर जोर दिया, लेकिन उनको भी यह पता है कि इस्लाम के नाम पर जिस तरह अरब देश लामबंद हो रहे हैं और भारत में जितनी मुस्लिम जनसंख्या है, बहुत दिनों तक उनके छिपे आक्रोश को सड़कों पर प्रदर्शित होने से रोकना संभव नहीं होगा.





भारत इजरायल के हो रहा है करीब




मोदी सरकार आने के बाद इजरायल और भारत भी करीब आते गए हैं. अभी दोनों देशों के बीच हरेक मामले में, चाहे वह रक्षा हो, तकनीक हो या साइबर मामले हों सहयोग बढ़ा है. भारत और ईरान के बीच यह संवाद दो लहजों से महत्वपूर्ण है. एक तो यह दिखाता है कि भारत ने अरब देशों के साथ जो अच्छे संबंध बनाए हैं, उसको वह खोना नहीं चाहता, दूसरे आतंक के मसले पर वह कोई समझौता नहीं करेगा. वह ये भी दर्शाता है कि गाजा के संकट से सभी देशों का सब्र टूट रहा है.ये संघर्ष बड़े क्षेत्रीय संकट में बदला तो इससे प्रभावित होने वाले देशों में भारत ज़रूर होगा. भारत को ईरान या इजरायल में से किसी एक को चुनना नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी को चार अरब देश अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाज चुके हैं.


इसमें मिस्र, बहरीन, यूएई, सऊदी अरब और फिलीस्तान भी शामिल हैं. इसके अलावा अगर इस्लामिक देशों की बात करें तो अफगानिस्तान और मालदीव भी भारत के प्रधानमंत्री को अपने यहां का सर्वोच्च सम्मान दे चुके हैं. भारत को अपनी तेल की जरूरतें भी पूरी करनी हैं, आतंक का समर्थन भी नहीं करना है और ईरान से भी संबंध बनाए रखने हैं. यहां यह याद करना होगा कि डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका ने ईरान पर कई प्रतिबंध लगाए थे. इसके कारण भारत को वर्ष 2019 में ईरान से तेल आयात बंद करना पड़ा था. इससे दोनों देशों के बीच संबंधों में उतार-चढ़ाव जरूर आया था. 


आगे की राह


भारत के लिए अभी तो मामला दोधारी तलवार पर चलने सरीखा है. खासकर, विदेश नीति के मामले में तो ऐसा ही लग रहा है. ईरान खुले तौर पर हमास के समर्थन में है. स्थितियां कुछ ऐसी बन रही हैं कि हमास को फिलीस्तीन का पर्याय दिखाया जा रहा है, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है. भारत अपनी गुटनिरपेक्षता की नीति को बरकरार रखे हुए है, लेकिन देश में एक दक्षिणपंथी झुकाव वाली सरकार होने और 20 फीसदी मुस्लिम जनसंख्या के कारण भारत के लिए यह परीक्षा की घड़ी है. यह सचमुच कठिन परीक्षा है कि आप एक साथ दो दुश्मनों को साधें और उन्हें अपने पाले में भी रखें.