भारतीय विदेश नीति का यह परीक्षा काल चल रहा है. एक तरफ तो हमास और इजरायल के युद्ध में भारत लगभग दोधारी तलवार पर चल रहा है. दोधारी तलवार इसलिए कि हमास के आतंकी हमले को स्पष्ट शब्दों में नकार कर भारत ने इजरायल का समर्थन किया है. इस बात को कई लोग वर्षों की स्थापित विदेश नीति का विरोध बता रहे हैं. हालांकि, भारत ने फिलीस्तीन के मसले पर अपनी नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया है. अभी भी भारत उन चंद देशों में शामिल है, जिसने गाजा में मानवीय सहायता भेजी है. हां, उसने युद्धविराम तत्काल करने के प्रस्ताव पर वोटिंग करने से मना कर दिया है. दूसरी तरफ, कतर में 8 पूर्व नौसैनिकों को फांसी दिए जाने का मसला भी तूल पकड़ गया है. यह भारतीय विदेशनीति के लिए अहम परीक्षा है कि वह अपने नागरिकों को न केवल फांसी से बचाए, बल्कि उनको वापस घर भी लेकर आए.
पहले भी हुई है ऐसी घटना
ऐसे समय में कुलभूषण जाधव का नाम याद आता है. उन पर भी लगभग वही आरोप थे, जो कतर ने भारतीय नागरिकों पर लगाए हैं. यानी, जासूसी का. पाकिस्तानी अदालत ने कुलभूषण को फांसी की सजा सुनाई थी, लेकिन भारत उसके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय न्यायालय चला गया. पूर्व एटार्नी जनरल हरीश साल्वे ने मात्र एक रुपए की फीस लेकर यह मुकदमा लड़ा था. वैसे, पाकिस्तान ने जाधव का ईरान से अपहरण किया था, और जाधव भी पूर्व नौसैनिक अधिकारी ही थे. कतर ने चूंकि साफ-साफ भारत को यह नहीं बताया है कि उसके 8 नागरिकों पर क्या आरोप हैं, इसलिए कयासबाजी का ही दौर चल रहा है. हालांकि, भारत के कहने पर कुछ महीने पहले कतर ने काउंसलर-एक्सेस उन आठों को दिया था, जबकि पहले उनको एक अकेली कोठरी में सबसे दूर रखा गया था. भारत के ऊपर जाहिर तौर पर दबाव काफी अधिक है, क्योंकि एक नागरिक भी हो, तो दबाव होता ही है.
यहां तो 8 नागरिक हैं और वे भी पूर्व सैन्य अधिकारी. तो, सरकार पर उनके परिवारों के साथ ही सैन्य बलों का भी दबाव रहेगा, राजनीतिक दलों का भी और मीडिया का भी. इस मामले को बहुत करीब से देखा भी जाएगा. इसलिए, भी भारत दबाव में रहेगा. अब भारत के पास विकल्प भी सीमित हैं. पहला विकल्प तो ये है कि कतर की उच्च अदालत में अपील की जाए और नागरिकों को बचाने की कोशिश हो. हालांकि, ये विकल्प उस देश के हिसाब से बहुत मुफीद नहीं है जहां एक व्यक्ति (अमीर) का शासन चल रहा है. वहां यूरोपीय तर्ज की अदालतें नहीं हैं इसलिए यह रास्ता मुश्किल होगा. दूसरा विकल्प अंतरराष्ट्रीय न्यायालय जाने का है और तीसरा रास्ता कूटनीति का है.
कूटनीतिक रास्ता होगा मुफीद
भारत के लिए कूटनीति का रास्ता सबसे आसान इसलिए होगा क्योंकि भारत और कतर के बीच काफी अच्छे संबंध हैं. बीच में बस नूपुर शर्मा वाले प्रकरण में थोड़ी सी दिक्कत हुई है, एक टीवी प्रोग्राम में नूपुर शर्मा की टिप्पणी पर कतर ने आपत्ति जताई और उसके बाद संबंधों में थोड़ी तल्खी आयी थी, लेकिन भारत कतर के लिए सबसे बड़ा बाजार भी है. इसके अलावा कतर की भारत ने 2017 में तब सहायता भी की थी, जब तमाम अरब देशों यूएई, बहरीन, सऊदी अरब और मिस्र ने कतर को आतंक का साथी करार देकर उससे राजनीतिक संबंध तोड़ लिए थे. उस समय कतर में भुखमरी की हालत हो गयी थी. ऐसा इसलिए हुआ कि आयात-निर्यात के लिए उसे करीब के बंदरगाह छोड़कर बहुत दूर के बंदरगाहों पर निर्भर रहना पड़ा था.
भारत ने तब कतर-भारत एक्सप्रेस सर्विस चलाकर उसे बचाया था. कतर को यह घटना याद होनी चाहिए. उसी तरह राजनयिक और अंतरराष्ट्रीय दबाव देकर भी भारत अपना काम बना सकता है. कतर का अमीर साल में दो बार अपराधियों को माफी भी देता है. भारत इसका भी फायदा उठा सकता है. वैसे, राजनय और कूटनीति के विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि कतर की इस हरकत के पीछे जरूरत कोई न कोई लेनदेन की मंशा हो सकती है. कई बार ऐसा भी होता है कि परदे के पीछे दो देशों में डील हो जाती है. भारत और पाकिस्तान के मछुआरे अक्सर एक-दूसरे के सैन्य क्षेत्र में चले जाते हैं, तो आपस में अदला-बदली हो जाती है. उसी तरह कतर की मंशा भी भारत से कुछ सौदेबाजी करने की हो सकती है. भारत सरकार ने जब 8 नागरिकों को काउंसल मुहैया कराया है तो उसे यह भी पता होगा कि कतर को क्या चाहिए और वह उसी के आधार पर आगे बातचीत कर सकती है.
भारतीय स्टेट भी पहले के मुकाबले अभी मजबूत है और भारत की अर्थव्यवस्था भी. कूटनीति में भी हमने बहुत कुछ ऐसे काम किए हैं जो कभी संभव नहीं थे. रूस-यूक्रेन का युद्ध हो या हमास और इजरायल का युद्ध, भारत ने बहुत खूबी से दोनों ही पक्षों के साथ संतुलन साध रखा है. हमास को भले हमने आतंकी माना है, लेकिन फिलीस्तीन से संबंध बदस्तूर कायम हैं. ऐसे में कतर की भारत पर निर्भरता और भारत की सधी कूटनीति को देखते हुए फिलहाल तो यही दिखता है कि भारत इन पूर्व-नौसैनिकों की सजा रद्द करवाने में सक्षम हो जाएगा और इस परीक्षा से भी पार पाएगा.