सरकार ने 2047 तक के लिए एक 'विजन डॉक्युमेंट' बनाने और जारी करने का ऐलान किया है. यह भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने और मिडल-इनकम ट्रैप में फंसने से बचाने के लक्ष्य को लेकर बनाया जा रहा है. इस डॉक्युमेंट के लिए भारत और दुनिया के बड़े उद्योगपतियों और कॉृरपोरेट बॉसेज से भी विचार-विमर्श होगा. हालांकि, सवाल यह उठ रहा है कि भारत के असमान विकास और अमीरी-गरीबों के बीच की खाई को पालने में यह दस्तावेज कितना मददगार होगा?


विजन डॉक्युमेंट बहुत अहम दस्तावेज


किसी भी देश के लिए 'विजन डॉक्युमेंट' बहुत जरूरी और महत्वपूर्ण दस्तावेज है. इससे हमें चीजों को व्यवस्थित करने में मदद मिलती है. देश अगर राजनीतिक व्यवस्था से चल रहा है तो उस 'विजन डॉक्युमेंट' से वह निरंतरता और स्थिरता हमें देखने को मिलती है. तो, अगर किसी सरकार ने कोई पॉलिसी बनायी है, इस तरह का डॉक्युमेंट बनाया है- अगले 20-30 वर्षों को ध्यान में रखते हुए, तो आने वाली दूसरी सरकारों के लिए भी वह एक गाइड की तरह काम करता है. इसलिए, इस दस्तावेज पर काफी मेहनत होनी चाहिए, सोच-समझकर काम होना चाहिए और हरेक पहलू को ध्यान में रखते हुए इसे बनाना चाहिए. ये दस्तावेज देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण बने, इसकी कोशिश हो.



यह दस्तावजे चूंकि इकोनॉमी से संबंधित है, तो उसी की बातें इसमें होंगी. किसी भी देश की इकोनॉमी दो-तीन बातों पर निर्भर करती है. उसमें पहला आउटपुट यानी टोटल प्रोडक्शन है. हमारी कुल क्षमता क्या है, हम क्या-क्या उत्पादन कर सकते हैं, और उत्पादन हमारी सबसे बड़ी ड्राइविंग-फोर्स होती है. तो, उसका कितना ग्रोथ होगा, उसी हिसाब से देश की बाकी चीजें भी निर्धारित होती हैं. क्या-क्या चीजें हमें प्रोड्यूस करनी हैं, क्या नहीं, यह हम जान सकते हैं और उस मुताबिक काम कर सकते हैं. 


मिडल इनकम ट्रैप


जब किसी भी इकोनॉमी में थोड़ी ग्रोथ होती है, तो कुछ समय बाद वह ग्रोथ स्थिर हो जाती है. इसका कारण है. पहले हमें ये समझना होगा कि अर्थव्यवस्था का विकास जब होता है तो लोगों की आय बढ़ती है, आय बढ़ने से उनकी मजदूरी बढ़ती है, वे खर्च अधिक करते हैं. समस्या तब आती है, जब आपकी उत्पादकता मैच नहीं कर पाती. एक समय आपकी उत्पादकता कम हो जाती है. आपकी उत्पादन की लागत बढ़ जाती है. जब लोगों की आय बढ़ती है, तो फिर हरेक रिसोर्स का प्राइस बढ़ता है, लेकिन अगर उत्पादन नहीं बढ़ता है, तो आपकी कांपिटीटिवनेस भी घट जाती है. दूसरी बात, इंस्टीट्यूशन की. हमारे इकोनॉमिक व्यवस्था को स्ट्रक्चर तो इंस्टीट्यूशन ही करता है. लोगों को नया निवेश, नया इनोवेशन करने में  रुचि नहीं रह जाती है और आप फंस जाते हैं उस ट्रैप में, जिसे मिडल इनकम ट्रैप कहते हैं. अर्जेंटीना इसका क्लासिक उदाहरण है, लेकिन और भी देश हैं. जैसे, ब्राजील है, मेक्सिको है. अर्जेंटीना को तो तबाही वाली अर्थव्यवस्था कहा जाता है, क्योंकि वह 1900 ईस्वी में ही उतनी थी, जितने से वह अभी खराब हो गयी है. तो, ये क्लासिक उदाहरण है. ब्राजील और मेक्सिको की बात इसलिए कि उन्होंने पोटेंशियल दिखाया था, लेकिन अब उसको कायम नहीं रख पा रहे हैं. भारत इसमें न फंसे, इसलिए ही यह विजन डॉक्युमेंट तैयार कर रहा है. 



भारत में असमान विकास है मुद्दा


मैक्रो-इकोनॉमी लेवल पर तो असमानता मिटाना बहुत आसान दिखता है. भारत में जैसे ये नॉर्थ-साउथ का जो डिवाइड है, उसमें एक तो रिसोर्स की बात है, दूसरी जनसंख्या की बात है. घनत्व जनसंख्या का देखने की बात है. उत्तर में शिक्षा और कौशल-विकास पर बहुत कम पैसा और दिमाग खर्च किया गया है. शिक्षा में मान लीजिए कि आपने बहुत अच्छे संस्थान बना लिए, लेकिन वहां बेहतरीन प्रोफेसर और शिक्षकों को आप कैसे लाएंगे. उनके परिवार के लिए उचित सुविधा नहीं है. उत्तर और पूरब में अभी भी इंफ्रास्ट्रक्चर पर बहुत काम करना होगा. वहां की सड़कें, रेल नेटवर्क, रोजगार के अवसर, टेलीकॉम इन सबको सुधारेंगे, तभी ये असमान विकास दूर होगा. विजन डॉक्युमेंट में इस पर चर्चा जरूर होनी चाहिए.


इसमें एक चीज पर तो बहुत ध्यान देने की जरूरत है कि जो भी कंसल्टैंसी फर्म हैं जो दुनिया को बताते हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में उन्हें किस तरह काम करने की जरूरत है, तो अधिकांश जो ऐसी कंसल्टैंसी-फर्म हैं, आप देखेंगे कि अधिकांश या तो अमेरिका से हैं या यूरोप से हैं. इसका कारण है कि उनके यहां का यूनिवर्सिटी सिस्टम बहुत शानदार है. हम अपने यहां के आईआईटी की दुहाई देते हैं, लेकिन देखना होगा कि ये इंस्टीट्यूट भी कहां पर हैं? उनका आउटपुट क्या है? अधिकांश बच्चे या तो बाहर चले जाते हैं या फिर सर्विस बदल देते हैं. इंजीनियरिंग तो उनके लाइफ से ही चला जाता है. अगर आपको बड़ा बनना है, विशाल बनना है, उसके लिए उच्च शिक्षा को तो तय करना ही होगा. कैसे करना है, ये अलग मसला है, निजीकरण करना है, सरकारी फंडिंग से करना है, इस पर बात हो सकती है, लेकिन उच्च शिक्षा को दुरुस्त करना है, इतना तो तय है. 


हमेशा गलत नहीं कॉरपोरेट होना


कॉरपोरेट होना हमेशा गलत नहीं होता. पूंजीवाद को हमेशा नकारात्मक ढंग से देखा जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है. यह जरूरी नहीं कि कैपिटलिज्म से हमेशा शोषण का ही मसला बने. हमारे पड़ोसी ताइवान हैं, सिंगापुर हैं, सबने पूंजीवाद अपनाया और उसके फायदे आप देख सकते हैं. दक्षिण कोरिया को आप देख सकते हैं कैपिटलिज्म का मतलब ये है कि जो रिसोर्स इस्तेमाल हो रहे हैं, उनको इन्सेन्टिव सही मिले. अगर यह बिंदु संभल गया तो फिर पूंजीवाद के फायदे ही फायदे हैं. कॉरपोरेटाइजेशन का मतलब केवल बिजनेस-प्रॉफिट नहीं है, उसमें थोड़ा सा सोशल-प्रॉफिट कम है. यूएस का अगर आप देखें तो सीएसआर पर वहां कहने की बहुत जरूरत नहीं होती है. वहां लगता है कि अगर एक की कमाई से सौ का फायदा नहीं है तो वह कमाई काफी नहीं है. भारत में अभी ऐसा नहीं है और इसी वजह से कॉरपोरेट को संदेह से देखा जाता है. ऐसे विजन डॉक्युमेंट में सोश्योलॉजिस्ट, पॉलिटिकल इकोनॉमिस्ट और इकोनॉमिस्ट की बेहद सख्त जरूरत है. इन लोगों की राय के बाद अगर विजन डॉक्युमेंट बनता है तो वह सामाजिक तौर पर भी कारगर होगा.