जलवायु के बदलते मिजाज और मौसम की चरम परिस्थितियों के कारण हमारे शहरों का बाढ़ और सूखे जैसे स्थितियों के लिए लगातार सुर्खियों में रहना एक वार्षिक मामला बन गया है. इस मायने में दक्षिण भारत के तटीय शहर चेन्नई को एक केस स्टडी के तौर पर देख सकते हैं. इसे इस रूप में समझा जा सकता है कि कैसे आधुनिक विकास के रूप में बेतहाशा औद्योगीकरण, बेतरतीब शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन जनित चरम मौसम की तीनों  परिस्थितियां जब  एक साथ आते हैं तो शहर डूबता चला जाता है. इसे ऐसे भी देखना चाहिए कि कैसे एक पुराना शहर जो तेजी से बढ़ता महानगर बनता है, बदलते दौर के साथ कदमताल नहीं कर पाता है. वह अपने फैलाव के क्रम में नए घरों, कारखानों, सड़कों, हवाई अड्डों और कार्यालयों की मांग को पूरा करने के लिए अपने बाढ़ के मैदानों, नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों  और जलमार्गों पर बसता और फैलता चला जाता है.


नहीं है किसी एक शहर की बात


इस बार चेन्नई बाढ़ में डूबा, तो हमारे कान खड़े हुए, लेकिन हालत कमोबेश हर भारतीय शहरों की यही हो चली है, जो बिना किसी अन्तराल के बरसात में मौसम में या बेमौसम बरसात में सुर्खियों में रहते आये हैं. चाहे मुंबई हो, गुरुग्राम हो, चेन्नई हो या पटना; इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, जरुरत है शहर, पानी, नदी, जलग्रहण क्षेत्र और पानी के निकास के अंतर्संबंधो को समझने की ताकि शहर सभ्यता की थाती बने रहें ना कि आपदा और तबाही के केंद्र बन जाएं. जलवायु परिवर्तन जनित बाढ़ का शिकार केवल तटीय शहर ही नहीं बल्कि देश के अंदर बसे शहर भी हुए हैं और वे डूबने-उतराने लगे हैं. पहाड़ी नगर भू-स्खलन का शिकार होने लगे हैं. पिछला मानसून खास कर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड पर तो कहर ही बरपा गए, तो वहीं चक्रवात मिचौंग कोरोमंडल तट -मुख्य रूप से चेन्नई- को एक बार फिर डूबो गया. इसके पहले भी 2015 में लौटते हुए मानसून के विकराल रूप के कारण पहली बार चेन्नई ने बाढ़ की तबाही देखी थी. जलवायु परिवर्तन जनित चरम मौसम की परिस्थितियाँ शहरी बाढ़ का एक प्रमुख कारण जरूर है, पर शहरी भूमि के जल-ग्रहण और जल-निकास में तेजी से आए बदलाव आपदा को और विकराल बना रहे हैं.



जल स्रोतों की करनी होगी रक्षा


परंपरागत रूप से हमारे शहर पानी के स्रोतों जैसे तालाब, झील, नदी और वेटलैंड के आसपास बसे और समय के साथ-साथ हर शहर ने जरूरी पानी की उपलब्धता और जल निकास प्रणाली विकसित कर ली. ये जल-स्रोत -जैसे शहर के अंदर की झील और बाहर के वेटलैंड- स्पंज के समान मानसून का सारा पानी सोख लेते हैं और बरसात के अलावा वर्ष भर सतही और भू-जल की उपलब्धता सुनिश्चित करते हैं.  भारत में बेतरतीब शहरीकरण जल-ग्रहण क्षेत्र के फैलाव पर बस रहा है, जिसके कारण बाढ़ और मौसम की चरम स्थिति में पानी के निस्तारण की क्षमता तेजी से घट रही है. साथ ही साथ छद्म आधुनिक और अवैज्ञानिक तरीके से शहर का खुला क्षेत्र कंक्रीट से हम पाट दे रहे हैं  जिससे सतही जल का एक हिस्सा जो भू-जल को रिचार्ज करता है, वो भी शहरी बाढ़ जिसे फ्लैश फ्लड भी कहते हैं, में शामिल हो जाता है.  दूसरी तरफ बरसात के अलावा शहरी क्षेत्र से पर्याप्त भू-जल रिचार्ज ना हो पाने के कारण जलस्तर सालों साल नीचे जा रहा है और खास कर गर्मी में पानी की उपलब्धता तेजी से कम हो रही है. यानी ना सिर्फ सालाना बाढ़ अपितु सूखा भी भरतीय शहरों की नियति बनती जा रही है. इसके अलावा शहर के अंदर और बाहर की सिकुड़ती आर्द्र भूमि यानी वेटलैंड शहरी जल-मल के सर्व सुलभ निस्तारण क्षेत्र बन गये हैं. ऐसे सिकुड़ते वेटलैंड उच्च जैव प्रदूषक और ऑक्सीजन की कमी के कारण मिथेन गैस के प्रमुख उत्सर्जक क्षेत्र बन गए हैं.


शहरों का बनाना होगा खुद का जलतंत्र


मौजूदा समय में शहरों के उसके खुद के जलतंत्र, जो कि एक लम्बे अरसे में विकसित हुआ होता है, से विलगाव  के कारण ना सिर्फ बाढ़ और सुखाड़ की स्थिति बन जा रही है बल्कि शहर के सिकुड़ते और प्रदूषित वेटलैंड सहित अन्य जलस्रोत ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के एक नये स्रोत के रूप में भी बदल जा रहे हैं. ये जलवायु संकट को बढ़ाने में और मददगार हैं. शहर और उसके जलतंत्र के रिश्तों को समझने के लिए चेन्नई एक बढ़िया केस स्टडी है, और पिछले कुछ दशकों से इसमें नकरामक रूप से बदलाव आया है. चेन्नई का जल-निकाय पल्लीकरनई कजुवेली या दलदल जो परंपरागत रूप से शहर से बरसात और बाढ़ का अधिक पानी सोख कर शहर को बचाता आया है. पिछले पांच दशकों में यह जलनिकाय सिकुड़कर एक-तिहाई रह गया है. 1893 से अब तक शहर के तीन-चौथाई जल निकायों पर आईटी गलियारा सहित विकास के दूसरे चिह्न पैर पसार चुके हैं. एक अनुमान के मुताबिक सतह के कंक्रीटीकरण के कारण लगभग 80℅ बरसात का पानी बर्बाद होकर जलभराव करता है. शहरी विकास का बुलडोजर शहर से होकर बहने वाली अड्यार नदी पर भी चला और उसके पाट को ढंक के हवाई जहाज के लिए उड़ान पट्टी बना दी गयी. चेन्नई के जल निकायों, जिसमें पल्लीकरनई कजुवेली ने 2005 की सुनामी से शहर को बचाने में महती योगदान दिया था, पर अब बड़ी तेजी से अतिक्रमण और कूड़ा घर बनाए जा रहे हैं. यहां तक कि 2015 के भयानक बारिश से उपजे तबाही के बाद भी जल निकायों की बदहाली जारी है.


छोटे-बड़े शहरों की स्याह हकीकत


लगभग सिकुड़ते और प्रदूषित होते शहरी जल निकाय भारत के बड़े से छोटे शहरों तक की स्याह हकीकत बन गयी है. जलवायु संकट से उपजी चरम मौसमी स्थितियों से बचाव के कृत्रिम उपादान नाकाफी  साबित हो रहे हैं, ऐसे में प्राकृतिक उपादान जिसमें शहर के जलतंत्र शामिल है का सम्यक उपयोग एक बेहतरीन विकल्प हो सकता है. मौजूदा दौर में शहरी नियोजन, शहर का उसके जल निकायों के साथ के अंतर्सम्बंधों को समझने में विफल रहा है, तभी तो लगभग सभी शहरों की नदी, तालाब, झील और दलदली जमीन सिकुड़ रही है. जैसे दिल्ली में यमुना नदी की दुर्दशा है वैसे ही हर शहर की अपनी-अपनी यमुना है; मुंबई की मीठी, ग्वालियर की मोरारका, रांची की स्वर्णरेखा, मोतिहारी की मोतीझील, दरभंगा की बागमती-सबके सब मानवीय विकास के दंश से पीड़ित हैं. वहीं तटीय  क्षेत्रों में चरम मौसम के इतर बढ़ते समुद्री जल स्तर का सामना है. एक शोध के मुताबिक भारत के विषुवतीय क्षेत्र में होने के कारण समुद्र के जलस्तर में वृद्धि की प्राययिकता (प्रायोरिटी) उच्च अक्षांश के देशों के मुकाबले बहुत ज्यादा है. चेन्नई, कोच्चि और विशाखापट्टनम सहित एक दर्जन तटीय शहर सदी के अंत तक समुद्र के जलस्तर के तीन फीट बढ़ने से उत्पन्न स्तिथियों का सामना कर रहे होंगे. 


जरूरत है कि तटीय और तट से अंदर बसे शहर के नियोजन में जल निकायों के सम्यक प्रबंधन पर जोर दिया जाये, जो ना सिर्फ शहर को बाढ़ और सुखाड़ से बचा सकते हैं, अपितु यह कार्बन के बड़े सिंक के रूप में कारगर हो सकते हैं. ये शहरी मल और जल के प्राकृतिक शोधक तंत्र के रूप काम कर सकते हैं. ईस्ट कलकत्ता वेटलैंड ना सिर्फ शहर के अपशिष्ट जल का शोधन और निस्तारण में सहायक है बल्कि शहर के लिए स्थानीय मछली का उत्पादक भी और हज़ारों स्थानीय लोगो के लिए रोजगार का साधन भी. अब समय आ गया है शहर के जल निकायों को ईस्ट कोलकाता वेटलैंड की तर्ज पर शहरी नियोजन का मुख्य स्तंभ बनाते हुए जलवायु-परिवर्तन से प्रतिरोधी और विकास के सम्यक शहर बसाये जायं!



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