India-China Border: भारत को तेजी से सैनिकों और सैन्य उपकरणों को जल्द से जल्द एलएसी तक पहुंचाने के लिए एक फीडर रोड नेटवर्क की जरूरत थी. जिसकी पूर्ति भारत-चीन सीमा की 73 सड़क कर रही हैं. इन सड़कों की वजह से अब तेजी से भारतीय सैनिक और सैन्य उपकरण एलएसी (LAC) पर पहुंच जाते हैं. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्रांसीसी प्रधानमंत्री जॉर्जेस बेंजामिन क्लेमेंस्यू ने कहा था कि युद्ध के दौरान हालात काफी गंभीर होते हैं. युद्ध के मामलों को जनरलों पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए. इतिहास गवाह भी है अगर सेना के जनरलों से सलाह नहीं ली गई. या उनके बिना योजनाएं तैयार की गईं तो अच्छी से अच्छी रणनीतियां भी विफल हो जाती हैं. 1962 में भारत-चीन युद्ध से मिली हार में हमने यही देखा था.


नेहरू को भी नहीं दिखाई गई थी थोराट योजना


पूर्वी कमान के तत्कालीन सेना कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एसपीपी थोराट ने 1959 में ही अरुणाचल के उत्तर पूर्व सीमांत या नेफा की रक्षा के लिए थोराट योजना तैयार की थी. 8 अक्टूबर 1959 को थोराट योजना को सेना के मुख्यालय भेज दिया गया था. जहां सेनाध्यक्ष जनरल केएस थिमैया ने इसे मंजूरी भी दी थी. उन्होंने व्यक्तिगत रूप से तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन को इसे दिखाया था. इसके साथ ही सभी जरूरतों की जानकारी भी दी थी. दुर्भाग्य से, मेनन ने इस योजना को खतरनाक और अनावश्यक बताते हुए खारिज कर दिया. उन्होंने दावा किया था कि उन्हें कूटनीति के साथ चीनियों को अपने दम पर रोकने का भरोसा है. थोराट योजना भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी नहीं दिखाई गई. भारतीय नेताओं ने जॉर्ज क्लेमेंस्यू के उन शब्दों को एक सुंदर समाचार के रूप में लिया था. क्योंकि उन्होंने बड़ी गड़बड़ी की थी.


1962 की हार के बाद लिया गया थोराट योजना को लागू करने का फैसला 


जब 20 नवंबर 1962 को चीनियों की ओर से युद्धविराम की घोषणा की गई थी, तब चीन से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) तेजपुर से कुछ किलोमीटर दूर तलहटी में मौजूद थी. सूचना देर से पहुंची और 22 नवंबर तक असम का तेजपुर एक भूतिया शहर था. पीएलए के आगे बढ़ने पर लोगों को शहर से भागना पड़ा. भारतीय सुरक्षा ध्वस्त हो गई थी और सेना रूट पर थी. देश को भारी हार का सामना करना पड़ा. इस पराजय के निशान आज भी कहीं न कहीं भारतीय मानस पर दिखाई देते हैं. चीनी नेफा में वाटरशेड से आगे हट गए, लेकिन पूर्वी लद्दाख में रुके रहे.


नेफा को वापस भारतीय हाथों में लाने और चीनियों की वापसी के लिए सड़क के बुनियादी ढांचे की जरूरत थी. जमीन पर कब्जा करने के लिए अग्नि शक्ति और रसद पूर्ति की खातिर सड़कों की जरूरत थी. खराब चीनी अर्थव्यवस्था और क्रूर सेना ने सामरिक लाभ बनाए रखना असंभव बना दिया. पीएलए जमीन पर फैला हुआ था. भारतीय सेना बहुत तेजी से उनकी उम्मीदों से परे ही ढह गई थी. उन्होंने शायद इस तरह के परिणाम के बारे में सोचा नहीं था. युद्ध समाप्त होने के बाद भारत ने नेफा (NEFA) की रक्षा के लिए उसी थोराट योजना को लागू करने का निर्णय लिया. जिसे एक बार मेनन ने खारिज कर दिया था.


लद्दाख क्यों था अलग?


लद्दाख का भूगोल अलग था, यही यहां की वास्तविकता थी. तिब्बती पठार का विस्तार होने के कारण लद्दाख में आगे का क्षेत्र चीनियों के लिए आसानी से क्रॉस-कंट्री गतिशीलता प्रदान करता था. जबकि भारतीय क्षेत्र ऊबड़-खाबड़ और पहाड़ी होने के कारण इलाके में घर्षण की पेशकश करता था. जो भारतीय रक्षकों के लिए फायदेमंद था. अक्साई चीन के माध्यम से चीनी सड़क ( शिनजियांग प्रांत को तिब्बत से जोड़ने वाली और सीमा के समानांतर कथित चलने वाली सड़क) पर तैयार की गई रणनीतिक गणना को बदल दिया गया. यूं तो तेजी से सैनिकों की तैनाती और रसद ने चीनियों को एक बड़ा लाभ दिया. जबकि हमें ऊंचे पहाड़ों का फायदा मिल रहा था. इसलिए हमने थोराट योजना के समान ही अपने बचाव को ढाला.


इन सालों में जब भी भारत ने अपनी सड़कों और बुनियादी ढांचे को विकसित करने की कोशिश की. चीन के भारी दबाव ने हमें वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया. 1960 के दशक से 1990 के दशक तक भारत एक कमजोर अर्थव्यवस्था थी. 1965 और 1971 में पाकिस्तान से सैन्य चुनौतियों के लिए भोजन की कमी से जूझते हुए भारत ने विरोधियों के खिलाफ अपनी मजबूत सुरक्षा बनाए रखने और संतुलन बनाने के लिए काफी कड़ी मेहनत की है. जैसे कि समग्र आर्थिक विकास देश को करनी चाहिए. संसाधनों की कमी के कारण रक्षा रणनीति के हिस्से के रूप में नेफा के बुनियादी ढांचे को अविकसित रखने का निर्णय लिया गया. वास्तविक नियंत्रण रेखा पर मजबूत सामरिक मुद्दा बनाए रखते हुए हिमालय की सीमाओं पर चीन को रोकने का विचार था.


चीनी अर्थव्यवस्था ने भारत के सामने पैदा की असमानता!


हालांकि, चीन क्षेत्र में अस्सी के दशक से तेजी से बदलाव हुए. देंग शियाओपिंग के नेतृत्व में चीनी अर्थव्यवस्था ने बड़ी छलांग लगाई. इसने भारत के सामने एक असमानता पैदा कर दी. जो 90 के दशक की शुरुआत में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने के बावजूद तीन दशकों के बाद भी अपूर्णीय बनी हुई है.


तिब्बत में चीनी बुनियादी ढांचे को बड़े पैमाने पर सुधारा गया. इसके बाद आर्थिक उछाल आया. उन्होंने 1956 किमी लंबी किंघई-तिब्बत रेलवे (क्यूटीआर) का निर्माण किया. जो ल्हासा को बीजिंग, चेंगदू, चूंगचिंग, ग्वांगझोउ, शंघाई, जिनिंग और लान्झू से जोड़ता था. सामरिक दृष्टि से सभी प्रमुख चीनी सैन्य क्षेत्र इस रेलवे नेटवर्क के माध्यम से ही ल्हासा से जुड़े थे. आगे की सेना की आवाजाही के लिए हाल ही में 2021 में एक रेलवे लिंक का उद्घाटन किया गया था. जो ल्हासा को निंगची से जोड़ता है. जो एलएसी से सिर्फ 50 किमी दूर है. व्यापक सड़क नेटवर्क, हवाई क्षेत्र और भंडारण सुविधाएं कम से कम समय में सैनिकों और सैन्य उपकरणों को केंद्रित करने में सक्षम बनाती हैं. तिब्बत में 1,18,800 किमी की कुल लंबाई का एक प्रभावशाली सड़क नेटवर्क है. भारतीय सेना 90 के दशक के उत्तरार्ध से इन चिंताओं को दूर कर रही है, लेकिन बहुत कम ध्यान दिया गया. डोकलाम गतिरोध के बाद 2017 से काफी बदलाव हुए हैं.


डोकलाम में क्या हुआ और उसके क्या लिया गया सबक


भारत ने 2010 के बाद से एलएसी पार पीएलए के बढ़ते उल्लंघनों को देखना शुरू कर दिया था. पीएलए सैनिकों ने 4,000 किलोमीटर (एलएसी के इस तरफ) के विभिन्न भारतीय क्षेत्रों में घुसपैठ कर दी थी. 2010 और 2013 के बीच तीन साल की छोटी अवधि में 500 से अधिक घुसपैठ हुईं. 1962 के युद्ध की समाप्ति के बाद भारत को अप्रैल 2013 में चीन से सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा. पीएलए ने हमारे पूर्वी लद्दाख के क्षेत्र में देपसांग के मैदानों पर 10 किमी अंदर तक घुसपैठ कर दी थी. चीनियों की देखभाल और आपूर्ति हेलीकॉप्टरों से होती थी. जो कि बेहतर बुनियादी ढांचे के लिए काफी कारगर था. इसने हमारे योजनाकारों को सतर्क कर दिया, लेकिन इससे भी बुरा अभी आना बाकी रह गया था.


2017 में 73 दिनों तक भारतीय सैनिकों को भूटान और चीन (तिब्बत) के बीच हिमालयी ट्राइजंक्शन के एक दूर सुदूर क्षेत्र में चीनी सेना का सामना करना पड़ा. समस्या उस वर्ष जून से शुरू हुई थी. जब चीनी सेना के इंजीनियरों ने डोकलाम पठार के माध्यम से एक सड़क बनाने का प्रयास किया. जिस पर चीन और भूटान दोनों का दावा है. सामरिक जलपाईगुड़ी गलियारे की सुरक्षा के लिए यह क्षेत्र महत्वपूर्ण होने के कारण भारतीय सैनिकों ने हस्तक्षेप किया और चीनी चालक दल को उनके ट्रैक में रोक दिया. जिसके परिणामस्वरूप दो एशियाई दिग्गजों के बीच एक गंभीर गतिरोध पैदा हो गया.


15 जून 2020 को 45 साल बाद भारत-चीन सैनिकों के बीच हुई झड़प


हफ्तों की बातचीत के बाद दिल्ली और बीजिंग ने अपने सैनिकों को उनकी मूल स्थिति में वापस तैनात करने पर सहमति दी. इससे चीन बौखला गया था, क्योंकि उसकी योजनाएं निष्फल हो गई थीं. हालांकि उन्होंने चुपचाप सैनिकों को तैनात करना और क्षेत्र में नए बुनियादी ढांचे का निर्माण करना जारी रखा. धीरे-धीरे ही सही, वह लगातार इस विवादित क्षेत्र में अपनी योजनाओं को अंजाम दे रहे थे. ठीक तीन साल बाद भारतीय और चीनी सेना में एक बार फिर आमने-सामने से भिड़ंत हुई. 15 जून 2020 को गलवान घाटी में लगभग 45 साल बाद पहली बार भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हिंसक झड़प की सूचना मिली. जिसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षों से कई जानें भी चली गईं. बड़े पैमाने पर लामबंदी और सैनिकों की एकाग्रता ने दोनों देशों को कोविड -19 महामारी के बीच युद्ध के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया था.


उन झड़पों के बाद से उत्तरी हिमालय की सीमाएं चाकू की धार पर बनी हुई हैं. दोनों पक्ष सैनिकों और उपकरणों को तैनात रखने और अपने बुनियादी ढांचे को उन्नत करने में व्यस्त हैं. साथ ही दोनों सरकारों ने एक-दूसरे के दावों को चुनौती देते हुए कूटनीतिक रूप से भी कई काम किये हैं. लेकिन अंतिम रूप से स्थिति छोड़ने में विफल रहे हैं.


भारतीय सीमा पर सीमा इन्फ्रा बूम


डोकलाम संकट के बाद भारत ने पिछले पांच वर्षों में 3,500 किलोमीटर से अधिक सड़कों का निर्माण किया है. इसी के अनुरूप चीन ने तिब्बत में सैन्य अवसंरचना का निर्माण किया है. जिसमें 60,000 किलोमीटर रेल और सड़क नेटवर्क शामिल है. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारतीय पक्ष ऊबड़-खाबड़ और पहाड़ी है. जबकि चीनियों को एक समतल और बजरी वाले तिब्बती पठार का लाभ मिलता है.


चीनी एक एक्सप्रेसवे G-695 बनाने की योजना बना रहे हैं. जो तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र को शिनजियांग से जोड़ने वाले एलएसी के समानांतर चल रहा है. यह पीएलए को भारत के सामने सीमावर्ती क्षेत्रों में सैनिकों और भारी सैन्य उपकरणों को तेजी से लाने-ले-जाने का नया मार्ग होगा. चीनी खारे झील के उत्तरी और दक्षिणी किनारे के बीच बेहतर संपर्क के लिए पैंगोंग त्सो में एक दूसरे पुल का निर्माण कर रहे हैं.


चीजों को बेहतर परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए भारत के पास पहले से ही एक व्यापक रेल और सड़क नेटवर्क है. जो जम्मू उत्तर-पश्चिम में उधमपुर से लेकर सुदूर पूर्व में असम के तिनसुकिया तक हिमालय के समानांतर चल रहा है. यह रेल नेटवर्क 4,000 किमी से अधिक फैला हुआ है. भारत को जल्द से जल्द सैनिकों और उपकरणों को तेजी से पहाड़ों और एलएसी तक ले जाने के लिए एक फीडर रोड नेटवर्क की जरूरत थी. कम से कम समय में एलएसी तक सैनिकों और उपकरणों को तेजी से पहाड़ों तक ले जाने के लिए एक फीडर रोड नेटवर्क की जरूरत थी. 73 आईसीबीआर (भारतीय-चीन सीमा सड़क) ठीक यही काम आ रहे हैं.


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