भारत के 60 फीसदी शिशुओं की सिर्फ इस वजह से हो रही है मौत, इन चीजों का रखें ख्याल
इंपीरियल कॉलेज लंदन यूके के एक रिसर्च में खुलासा किया गया है कि 60 प्रतिशत भारतीय शिशुओं की मौत ब्रेन में चोट लगने के कारण होती है.
एक रिसर्च में खुलासा किया गया है कि 60 प्रतिशत भारतीय शिशुओं की मौत ब्रेन में चोट लगने के कारण होती है. अब इस रिसर्च में यह भी कहा गया है कि एक सिंपल सा ब्लड टेस्ट के जरिए आसानी से चोट का पता लगाया जा सकता है. साथ ही चोट लगने के कारण क्या है इसका भी पता लगाया जा सकता है. यह भारत में एक घातक बीमारी की स्थिति में पहुंचती जा रही है. इस रिसर्च में कई कारण बताए गए हैं जिसमें से एक कारण हाइपोक्सिक-इस्केमिक एन्सेफैलोपैथी (एचआईई). इस प्रकार की मस्तिष्क की चोट तब होती है जब बच्चे को जन्म से पहले या जन्म के तुरंत बाद उतनी ऑक्सीजन नहीं मिल पाती है. जितनी उन्हें मिलनी चाहिए.
हाइपोक्सिक-इस्केमिक एन्सेफैलोपैथी (एचआईई) के कारण
एचआईई की स्थिति में जन्म लेने वाले शिशुओं में मृत्यु और विकलांगता का एक प्रमुख कारण है, जो हर साल लगभग 3 मिलियन को प्रभावित करता है. इंपीरियल कॉलेज लंदन यूके के रिसर्चर ने पाया कि जीन अभिव्यक्ति के पैटर्न जो रक्त में पता लगाए जा सकते हैं. चोट के कारण का संकेत दे सकते हैं और डॉक्टरों को बता सकते हैं कि क्या नवजात शिशु का इलाज किया जा सकता है.
ऑक्सीजन की कमी के कारण दिमाग पर गहरा असर पड़ता है
शोधकर्ताओं ने कहा कि ऑक्सीजन की कमी के कारण मस्तिष्क की चोट घंटों से लेकर महीनों तक में बढ़ सकती है और मस्तिष्क के विभिन्न पार्ट को प्रभावित कर सकती है. जिसके परिणामस्वरूप सिर में दर्द, मिर्गी, बहरापन या अंधापन जैसी विभिन्न संभावित न्यूरोडिसेबिलिटीज हो सकती हैं.इस रिसर्च में आगे कहा गया है कि दक्षिण एशिया और विशेष रूप से भारत में इस बीमारी का बोझ सबसे अधिक है. दुनिया में एचआईई से संबंधित सभी मौतों में से 60 प्रतिशत मौतें इसी देश में होती हैं.
इंपीरियल कॉलेज लंदन यूके के रिसर्चर ने पाया कि जीन अभिव्यक्ति के पैटर्न जो रक्त में पता लगाए जा सकते हैं. चोट के कारण का संकेत दे सकते हैं और डॉक्टरों को बता सकते हैं कि क्या नवजात शिशु का इलाज किया जा सकता है. उपचार का जवाब दे सकता है, जिसका उपयोग आमतौर पर मस्तिष्क की चोट के इलाज के लिए किया जाता है.
'जर्नल जेएएमए नेटवर्क ओपन' में पब्लिश के मुताबिक नवजात शिशुओं में मस्तिष्क की चोट का शीघ्र निदान करने और उपचार निर्णयों में मदद करने के लिए एक सरल परीक्षण का कारण बन सकते हैं. अध्ययन में निम्न और मध्यम आय वाले देशों (एलएमआईसी) के साथ-साथ उच्च आय वाले देशों (एचआईसी) के बच्चों को भी शामिल किया गया. दोनों समूहों के बीच जीन अभिव्यक्ति में एक नाटकीय विचलन था जो मस्तिष्क की चोट के एक अलग अंतर्निहित कारण का सुझाव देता है. इंपीरियल कॉलेज लंदन के प्रोफेसर सुधीन थायिल ने कहा,हालांकि शिशुओं में मस्तिष्क की चोट के मामले एक जैसे दिखाई दे सकते हैं, लेकिन जैसा कि हमारे अध्ययन से पता चलता है, वे काफी भिन्न हो सकते हैं.एलएमआईसी से शिशुओं में हमने जो जीन अभिव्यक्ति पैटर्न देखा, वह वैसा ही था जैसा आप स्लीप एपनिया वाले लोगों में देखते हैं, जिससे पता चलता है कि उन्हें गर्भ में और जन्म के समय रुक-रुक कर हाइपोक्सिया का अनुभव हुआ था.
शोधकर्ताओं का मानना है कि यह गर्भावस्था के दौरान कई पुराने तनावों जैसे खराब पोषण या संक्रमण, साथ ही सामान्य प्रसव प्रक्रिया और गर्भाशय संकुचन के कारण होता है. जो आगे हाइपोक्सिया का कारण बनता है. जिसके कारण बच्चे के मस्तिष्क को चोट पहुंचाता है.दूसरी ओर, एचआईसी के शिशुओं में जीन अभिव्यक्ति पैटर्न ने मस्तिष्क की चोट का एक ही गंभीर कारण सुझाया. उदाहरण के लिए जन्म के दौरान मातृ रक्तस्राव जैसी जटिलताएं. जिससे भ्रूण में रक्त ऑक्सीजन के स्तर में अचानक गिरावट आई.मुख्य रूप से एचआईसी में किए गए पिछले अध्ययनों से पता चला है कि पूरे शरीर को ठंडा करने से एचआईई वाले शिशुओं के परिणामों में सुधार हो सकता है. परिणामस्वरूप, यह कई एचआईसी में मानक अभ्यास बन गया है और दक्षिण एशिया के कुछ अस्पतालों में भी इसका उपयोग किया जाता है.
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