Autism: इस टेस्ट से 2 मिनट में पता चल जाएगा कि आपके बच्चे को ऑटिज्म है या नहीं?
ऑटिज्म एक मानसिक बीमारी है. इसके लक्षण एक से तीन साल के बच्चों में नजर आने लगते हैं. आइए जानें कौन से टेस्ट के जरिए इसका पता लगाना है आसान.
बच्चों में ऑटिज्म का इलाज करना अक्सर मुश्किल होता है क्योंकि इसके शुरुआती लक्षण अलग-अलग बच्चों पर अलग-अलग दिखाई दे सकते हैं. शुरुआत में किसी भी व्यक्ति को लग सकता है कि यह तो नॉर्मल है लेकिन आगे जाकर पता चलता है कि बच्चे को ऑटिज्म की बीमारी है.
ऑटिज्म के शिकार बच्चों में बीमारी के अलग-अलग प्रकार और लक्षण दिखाई देते हैं. जिसे हम 'स्पेक्ट्रम' कह सकते हैं. इसलिए ऐसा कोई एक टेस्ट नहीं है जिससे पता चल जाए कि इस बीमारी में न्यूरोलॉजिकल और विकास संबंधी विकार का इलाज कैसे किया जाए? रिसर्च में यह बात सामने आ चुकी है कि कई बार जब बच्चे बड़े होने लगते हैं तब उनके शरीर में इसके लक्षण दिखाई देते हैं. लेकिन कोई शुरुआती कोई इलाज नहीं है. लेकिन अब एक हालिया रिसर्च में यह पता चला है कि इसका अगर इलाज करना है शुरुआत में ही आंत में पाई जाने वाली बैक्टीरिया के टेस्ट के जरिए किया जा सकता है.
क्या कहता है रिसर्च?
इस रिसर्च में इसके शुरुआती इलाज के लिए आंत के माइक्रोबायोटा या आंत के माइक्रोबायोम को ट्रैक करना चाहिए. जो कि बैक्टीरिया, फंगस, वायरस और उनके जीन सहित सूक्ष्मजीव हैं जो हमारे पाचन तंत्र में रहते हैं. शोधकर्ताओं ने कई जैविक मार्करों की पहचान करने के लिए 1 से 13 साल की आयु के सामान्य और ऑटिस्टिक बच्चों के 1,600 से अधिक स्टूल के नमूनों का विश्लेषण किया है.
ऑटिज्म से जुड़े आंत के माइक्रोबायोम में 31 बदलाव देखे गए
इस रिसर्च में उन्होंने देखा कि ऑटिज्म से जुड़े आंत के माइक्रोबायोम में 31 बदलाव पाए. 'इंडियन एक्सप्रेस' में छपी खबर के मुताबिक बेंगलुरु के SKAN रिसर्च ट्रस्ट के उप निदेशक डॉ. योगेश शौचे कहते हैं. इसका मतलब है कि सही दिशा में इलाज करने के लिए जीनोम अनुक्रमण, चिकित्सा इतिहास और मस्तिष्क स्कैन के साथ या इसके बजाय आंत की जांच का उपयोग किया जा सकता है. उन्होंने कहा, आंत के माइक्रोबायोम में होने वाले बदलाव मोटापे, मधुमेह और पार्किंसंस जैसे नस संबंधी बीमारी से जुड़ी हुई है. इसलिए ऑटिज़्म की बीमारी में भी आंत की बैक्टीरिया के टेस्ट के जरिए इसकी स्थिति का पता लगा सकते हैं.
ऑटिज्म क्या है?
ऑटिज्म एक मानसिक बीमारी है. इसके लक्षण बचपन में ही नजर आने लगते हैं. इस बीमारी से पीड़ित बच्चों का विकास तुलनात्मक रूप से काफी स्लो होता है. यह जन्म से लेकर तीन साल की उम्र में विकसिता होने लगता है. यह बीमारी बच्चे के मानसिक विकास को रोक देता है. फिलहाल इस बीमारी को लेकर कई रिसर्च हो रहे हैं लेकिन कोई निश्चित तरीका, टेस्ट नहीं मिल पाया है.
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