डॉ. पी. वेणुगोपाल भारत के पहले ऐसे डॉक्टर हैं जिन्होंने 1994 में भारत में सबसे पहला सक्सेसफुल हार्ट ट्रांसप्लांट किया था. अब आप सोचेंगे कि हमें तो यह बात पता है तो अचानक से क्यों हम इस पर बात कर रहे हैं? आज हम उनकी किताब ‘हर्टफेल्ट: ए कार्डिएक सर्जन्स पायनियरिंग जर्नी' के बारे में बात करेंगे. इसमें उन्होंने अपनी पहली हार्ट ट्रांसप्लांट सर्जरी 1994 का जिक्र किया है. किताब में उन्होंने सर्जरी वाले दिन हॉस्पिटल और ऑपरेशन थियटर का क्या मंजर था उसपर खुलकर बात की है. यह किताब का प्रकाशन हार्पर कॉलिन्स इंडिया ने किया है. जो उन्होंने अपनी पत्नी प्रिया सरकार के साथ मिलकर लिखी है.
इन दिनों यह किताब खूब सुर्खियां बटोर रही है. पी. वेणुगोपाल अपने समय के AIIMS के हार्ट सर्जरी डिपार्टमेंट के चीफ रह चुके हैं. साथ ही 1994 में भारत में पहली बार सक्सेसफुल हार्ट ट्रांसप्लांट करके इन्होंने पूरी दुनिया में भारत का गौरव बढाया है. सोशल मीडिया पर पी. वेणुगोपाल की किताब में लिखी कुछ खास मेडिकल केस वाली स्टोरीज सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहे हैं और यूजर्स खूब पसंद कर रहे हैं. एक हार्ट सर्जन की जिंदगी कितना उतार-चढ़ाव भरा होता है. यह पढ़ना लोगों को काफी अच्छा लग रहा है.
इस किताब को सोशल मीडिया पर काफी सराहा जा रहा है. आम इंसान को डॉ. पी. वेणुगोपाल की किताब की हर वो कहानी इसलिए खास लग रही है कि क्योंकि एक इतना मशहूर हार्ट सर्जन जो ओटी में बेफिक्री के साथ किसी व्यक्ति के दिल की धड़कन वापस लाता है वो भी अपनी जिंदगी में कुछ मामलों में डर जाता है. उसका भी दिल कभी-कभी तेजी में धड़कने लगता है. यह सब पढ़ना लोगों को काफी अच्छा लग रहा है.
1994 का वो क्षण जब पी.वेणुगोपाल ने भारत में किया था फर्स्ट सक्सेसफुल हार्ट ट्रांसप्लांट
आज हम अपने आर्टिकल में डॉक्टर. वेणुगोपाल पहली हार्ट सर्जरी की पूरी कहानी बताएंगे. जो उन्होंने 1994 में किया था. जिसके बाद भारत ने पूरी दुनिया में एक इतिहास रच दिया. वेणुगोपाल अपने किताब में लिखते हैं कि 1994 का वह दिन. 2 अगस्त 1994 को रात के लगभग 11 बजे थे. मैं अभी भी आईसीयू एरिया के अपने ऑफिस में चुपचाप बैठा हुआ था. आज का दिन काफी ज्यादा हैक्टिक था. पूरे दिन हार्ट सर्जरी के टॉपिक्स को लेकर बातें होती रही. हार्ट डोनर के लेकर मैं काफी दिनों से आसपास के लोगों से बात कर रहा था. और सोच-विचार कर रहा था. लेकिन किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच रहा था. वहीं दूसरी तरफ एक ही टॉपिक पर इतना ज्यादा डिस्कस करने से मेरा मन थकने लगा था. बितते दिनों के साथ मेरी आंखों में आशा की किरण धूमिल हो रही थी और दिन पर दिन दिल टूट रहा था. मैं इस सवाल का जवाब ढूढ़ रहा था कि क्या हार्ट ट्रांसप्लांट करना मुमकिन हो पाएगा. यह सोच-विचार मन में चला रहा था तभी फोन की घंटी बजी. अचानक न्यूरो सर्जन और हार्ट cardiothoracic–vascular surgery centres के बीच लोगों को आवाजाही तेज हो गई.
देवी राम थे पहले मरीज जिनका हुआ था सक्सेफुल हार्ट ट्रांसप्लांट
तभी डॉक्टर आकर कहते हैं कि परिवार दान देने को तैयार. जल्दी करो -जल्दी करो... क्या तुम तैयार हो. नि: संदेह हम तैयार थे. परिवार वालों ने अपनी स्वीकृति दे दी थी. हम सर्जरी की पूरी तैयारी करने में जुट गए. हमारे पास एक मरीज था देवी राम. जिसका दिल पूरी तरह से काम करना बंद कर रहा था. और वह मुश्किल से कुछ दिनों का मेहमान था. 40 साल का वह मरीज ब्लड ग्रुप मैचिंग एबी-पॉजिटिव था. हमने कुछ हफ्ते पहले ही सीटी-5, में बेड नंबर 4 पर एडमिट करवाया था. डोनर के साथ इस मरीज का रहना हमारे लिए वरदान साबित हुआ है. क्योंकि हमें पता था कि इसका हार्ट बीमार होकर एकदम थर्ड स्टेज में पहुंच गया है. यह एक Lathe worker था. यह इसी उम्मीद पर जिंदा था कि शायद इसकी दिल की धड़कन वापस आ जाए.
कुछ ऐसा था OT का पूरा मंजर
देवी राम ऐसा इंसान था जो कि अंदर से बहुत पॉजिटिव था कि उसे पूरा विश्वास था कि हम उसके लिए पक्का कुछ न कुछ कर देंगे. जब भी मैं उसे देखता था तो मेरे अंदर खुशी की लहर महसूस होती थी. जिसके कारण मुझे लगता था कि मैं कर सकता हूं. मैं उसके लिए पक्का कुछ कर सकता हूं. उसे वार्ड से ओटी में ले जाया गया. ओटी में न्यूरोलॉजिस्ट डिपार्टमेंट के कई डॉक्टर मौजूद थे. साथ ही कार्डियक सर्जन और एम्स पैन के कुछ खास डॉक्टर्स भी ओटी में मौजूद थे. हमारी डोनर एक 30 साल की महिला था. जिसे ब्रेन डेड घोषित कर दिया गया था. और शुरुआती चेकअप से वह हार्ट डोनेट करने के लिए फिट थी. लगभग 2 बजे डोनर को ओटी 4 में लाया गया. और मुझे याद है कि भाभा नंदा दास जिस टीम को लीड कर रहे थे. उस टीम ने हार्ट को उस ब्रेन डेड महिला के शरीर से निकालने की सर्जरी शुरू की. ओटी 4 के पास वाले ओटी 1 में मेरी देखरेख में हार्ट ट्रांसप्लांट सर्जरी की तैयारी शुरू कर दी गई थी. जहां पर देवी राम का हार्ट ट्रांसप्लांट किया जाना था. लगभग 3 बजे मैंने देखा कि भाभा नंदा दास हार्ट को बर्फ में पैक करके लेकर आ रहे थे. जिसकी हार्ट ट्रांसप्लांट की सर्जरी शुरू की गई. मैं जानता था कि लोग लगातार इस बारे में बात कर रहे थे कि जोखिम इतना बड़ा है. और फिर भी मैंने स्पष्ट निश्चितता के साथ काम किया.
सर्जरी के दौरान कुछ ऐसा एहसास हुआ
जब मैंने देवी राम के रोगग्रस्त दिल बाहर निकाला तभी मुझे एहसास हुआ कि यह अब बदला नहीं जा सकता है और बेहतर होगा कि मैं इसे वापस से वहीं लगा दूं. मुझे यकीन नहीं हो रहा है कि मेरी शानदार टीम के दिमाग में क्या चल रहा है और उसने यह कैसे किया क्योंकि उन्होंने उस रात मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर. हाथ से हाथ मिलाकर काम किया था. लेकिन ओटी में शांति का माहौल बना हुआ था. यह काफी हद तक एक खुले दिल से किए जाने वाले बाईपास जैसा था जिसे हम हर दिन करते थे. लेकिन मेरे दिमाग में लगातार यह विचार घर कर रहा था.
हमें इसे पूरा करना होगा...हमें सफल होना होगा. अन्यथा यह डर हम पर हावी हो जाएगा. ट्रांसप्लांट करते वक्त 'बैक ऑफ द माइंड' यह चल रहा था कि भारत में कई साल पहले एक हार्ट ट्रांसप्लांट सर्जरी की कोशिश की गई थी. जिसमें रोगी ऑपरेशन टेबल पर ही दम तोड़ दिया था. हम उस घटना से सबक लेते हुए ऐसी किसी भी कीमत पर इसे दोहराना नहीं चाहते थे. दिल को अंदर लाने और बाईपास पर काम करने में पूरे उनतालीस मिनट लगे. और फिर यह अपने आप धड़कने लगा. दिल लगते ही जब दिल धड़कने लगा तो वह पहली टिक-टॉक आज भी मेरे लिए खास है.
पांच घंटे बाद, हमें पता चला कि हमने ऑपरेशन के सारे चरण को शानदार ढंग से पार कर लिया है. मैं बस बाहर निकलकर अपना सिर साफ करके जल्दी से नहा कर और कपड़े बदलने के लिए घर वापस चलने का फैसला किया. वापस जाते समय, मैं चिकित्सा अधीक्षक डॉ. डेव से मिला और उन्हें यह न्यूज दी. उन्होंने मुझे जाने और तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री और एम्स अध्यक्ष बी शंकरानंद को सूचित करने के लिए अपने साथ खींच लिया. जो हॉस्पिटल में मौजूद थे. उन्होंने जोर देकर कहा कि हम एक प्रेस रिलीज जारी करें.
आईसीयू में लौटने और मरीज की जांच करने के बाद मैंने सबसे पहला काम यह किया कि फोन उठाया और डॉ. गोपीनाथ को उनके प्रीत विहार स्थित घर पर कॉल किया. वह बहुत खुश थे. क्योंकि हमारे इतने दिनों का सपना साकार हुआ है. हमनें एक सपने को मुमकिन कर दिखाया था. मैं थोड़ा शाई किस्म का आदमी हूं तो मुझे सुर्खियों को दूर छिपने की आदत थी. लेकिन बाद में मुझे एहसास हुआ है कि यह मेरा कर्तव्य है कि मुझे मीडिया में आकर बात करना चाहिए. जिसे मैंने पूरा किया. देश, मीडिया और उन आम लोगों को लेकर मेरी जिम्मेदारी थी जिन्हें यह बात और इस केस से जुड़ी सभी बात पता होना चाहिए. अगले कुछ दिन, सप्ताह और महीने रोलर-कोस्टर बन गए, जहां एक दिन हम देश में सबसे ज्यादा प्रशंसा प्राप्त कर रहे थे और अगले ही दिन हम नकारात्मकता के दलदल में फंसे जा रहे थे.
4 अगस्त, 1994 को जब देश सुर्खियों में आया, तो तुरंत उत्साह का माहौल था. बहुत से लोग बारीकियों को नहीं समझते थे. लेकिन यह तथ्य कि हमारे ही देश में हमारे अपने डॉक्टरों द्वारा एक अविश्वसनीय चिकित्सा उपलब्धि हासिल की गई थी. जिसके कारण खुशी और आशा फैली हुई थी. कम ही लोग जानते थे कि फरवरी 1968 में किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल के डॉ. पीके सेन ने मानव-से-मानव हृदय प्रत्यारोपण का प्रयास किया था. लेकिन कुछ ही घंटों में मरीज की मृत्यु हो गई थी. इसलिए जो लोग जानते थे. उनके लिए यह एक बड़ी अविश्वसनीय सफलता थी.
5 अगस्त को संसद ने हमें स्टैंडिंग ओवेशन दिया.दूसरी ओर चिकित्सा पेशे से जुड़े कई लोगों ने इस उपलब्धि की आलोचना की. अफवाहें तेजी से उड़ीं मरीज वास्तव में मर गया था. यह मैं नहीं बल्कि भाभा नंद दास थे जिन्होंने ट्रांसप्लांट किया था.वगैरह-वगैरह. कुछ लोगों ने तो यहां तक कह दिया कि जिस देश में मलेरिया की बीमारी पर कंट्रोल पाना मुश्किल है वहां हार्ट ट्रांसप्लांट करने से क्या फायदा है. आपकी जानकारी के लिए बता दें कि स्कूपव्हूप में छपी खबर के मुताबिक मरीज देवी राम के 3 महीने से अधिक जिंदा रहने की उम्मीद नहीं थी लेकिन वह 15 साल जिंदा रहा. बाद में ब्रेन ट्यूमर से मरीज की मौत हो गई.
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