नई दिल्ली: होली का त्योहार अब बस आने ही वाला है. हर किसी को रंगों के इस खूबसूरत त्योहार का इंतजार रहता है. रंग, गुलाल से सजे माथे, गुझिया और मालपुओं की मिठास, अपनों का होना इसे और भी खूबसूरत बनाता है. इस बार 9 मार्च को होलिका दहन है और 10 मार्च को देशभर में होली मनाई जाएगी. पर क्या आप जानते हैं कि होली पर रंग क्यों लगाया जाता है? होली पर रंग लगाने की परंपरा कब शुरू हुई? होली पर गुझिया क्यों बनाई जाती है? नहीं जानते तो आइए हम बताते हैं.


होली पर रंग लगाने की परंपरा कब शुरू हुई
होली को लेकर कई तरह की बातें कही जाती है. कुछ का मानना है कि पहली होली भगवान कृष्ण ने राधा और गोपियों के साथ खेली थी. धार्मिक किताबों में भी ब्रज की होली का प्रमाण मिलता है. कुछ लोगों का मानना है कि द्वापर युग में होली पर रंग लगाने की परंपरा शुरू हुई. पहले फूलों, चंदन और कुमकुम से होली खेली जाती थी. फिर धीरे धीरे रंग भी इसमें शामिल हो गए.


प्राचीन काल में होली को विवाहित महिलाएं परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाती थीं. होली के दिन पूर्ण चंद्रमा की पूजा करने की परंपरा थी. वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था. प्राचीन समय में खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान था. अधपके अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा.


कहते हैं आर्यों में भी होली पर्व का प्रचलन था. होली अधिकतर पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था. होली का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है. वहीं मुगल काल में होली को ईद-ए-गुलाबी कहा जाता था. प्रमाण के मुताबिक, मुगल बादशाहों ने भी होली खेली थी. प्राचीन काल में यज्ञ के बाद गाने गाए जाते थे.


अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे. इतना ही नहीं अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है. शाहजहां के ज़माने में होली को आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) नाम से मनाया जाता था.


होली पर क्यों बनाई जाती है गुझिया?
होली पर बनने वाली गुझिया का भी अपना इतिहास है. ये भारतीय नहीं है. कहा जाता है कि गुझिया तुर्की और अफगानिस्तान जैसे देशों से आई है. होली पर इसका भोग लगाने की भी परंपरा है. इसको बनाने के तरीके भी बहुत से हैं. सूखे मेवे और खोए से बनी गुझिया का स्वाद अपने आप में अनोखा है. ये होली पर ही विशेष रूप से क्यों बनाई जाती है इसकी कोई पुख्ता जानकारी नहीं है.


होली और फाग के गीत 
होली के दिन गाए जाने वाले फाग के गीत कई सालों से चले आ रहे हैं. गाने-बजाने का ये कार्यक्रम होलिका दहन के बाद से ही शुरू हो जाता है. होली में मटकी फोड़ने का भी प्रचलन है. मोहल्ले के गोविंदाओं की टोली जोर शोर से मटकी फोड़ कार्यक्रम में हिस्सा लेती है.


भांग से जुड़ी कुछ भ्रांतियां
होली पर भांग पीने की परंपरा है. भांग पीना शास्त्रीय परंपरा नहीं है. भांग नशा है. होली उत्साह और उमंग का पर्व है इसमें नशा का कोई स्थान नहीं है. होली के दिन भांग और शराब से दूर रहें.


देश में है कई तरह की होली का प्रचलन


हमारे देश में विविध ढंग से होली मनाई और खेली जाती है, जैसे कि कुमाऊं की बैठकी होली, बंगाल की दोल-जात्रा, महाराष्ट्र की रंगपंचमी, गोवा का शिमगो, हरियाणा के धुलंडी में भाभियों द्वारा देवरों की फजीहत, पंजाब का होला-मोहल्ला, तमिलनाडु का कमन पोडिगई, मणिपुर का याओसांग, एमपी मालवा के आदिवासियों का भगोरिया आदि. लेकिन ब्रजभूमि की होली; विशेषकर बरसाने की लट्ठमार होली तो  पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है.


महाकवि रसखान लिखते हैं- ‘फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है, नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है.सांझ सकारे वहै रसखानि सुरंग गुलाल ले खेल रच्यौ है, कौ सजनी निलजी न भई अब कौन भटू बिहिं मान बच्यौ है.’


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