Amalaki Ekadashi 2024: हमारे सनातनी परम्पराओं में प्रत्येक तिथि के पीछे कोई न कोई कथानक और मान्यताएं रहती हैं. सालभर के 365 दिन आप उत्सव मना सकते हैं अथवा उस दिन उपवास करना होता है. ऐसा ही दिन होता है एकादशी का जो महीने में दो बार आती है. एकादशी व्रत का अपना महत्व होता है. प्रत्येक एकादशी का अलग फल होता है. ऐसा ही महत्वपूर्ण दिन होता है ’आमलकी’ एकादशी. आइये उससे जुडी रोचक बातें जाने शस्त्रों के अनुसार-


कैसे हुई आंवला वृक्ष की उत्पत्ति


पद्म पुराण उत्तरखण्ड (एकादशी माहात्म्य अध्याय क्रमांक 47) के अनुसार, भगवान् श्रीकृष्ण ने इस एकादशी का महत्व बताते हुए कहा कि जिसे राजा मान्धाता के पूछने पर महात्मा वशिष्ठ ने उस समय कहा था वह बतलाता हूं. फाल्गुन शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम “आमलकी एकादशी” है. पृथ्वीपर 'आमलकी' या आंवला की उत्पत्ति बताते हुए उन्होंने आगे कहा कि आमलकी एक महान वृक्ष है, जो सब पापों का नाश करने वाला है. भगवान विष्णु की लार से चन्द्रमा के समान एक चमकदार बिन्दु प्रकट हुआ, वह बिन्दु पृथ्वी पर जब गिरा तो उसी से आमलकी (आंवले) का महान वृक्ष उत्पन्न हुआ. यह सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है.


इसी समय समस्त प्रजा की सृष्टि करने के लिए भगवान ने ब्रह्मा जी को उत्पन्न किया. उन्हीं से इन प्रजाओं की सृष्टि हुई. देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा महर्षियों को ब्रह्माजी ने जन्म दिया. उनमें से देवता और ऋषि उस स्थान पर आये, जहां आमलकी का वृक्ष था. उसे देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ. वे एक-दूसरे पर दृष्टिपात करते हुए उस वृक्ष की ओर देखने लगे और खड़े-खड़े सोचने लगे कि प्लक्ष (पाकड) आदि वृक्ष तो पूर्व कल्प की ही भांति है, जो सब-के-सब हमारे परिचित है, किन्तु इस वृक्ष को हम नहीं जानते.


वैष्णव वृक्ष है 'आंवला'


उन्हें इस प्रकार चिन्ता करते देख आकाशवाणी हुई- 'महर्षियो ! यह सर्वश्रेष्ठ आमलकी का वृक्ष है, जो भगवान विष्णु को प्रिय है. इसके स्मरणमात्र से गोदान का फल मिलता है. स्पर्श करने से इससे दूना और फल भक्षण करने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है. इसलिए सदा प्रयत्नपूर्वक आमलकी का सेवन करना चाहिए. यह सब पापों को हरने वाला वैष्णव वृक्ष बताया गया है. इसके मूल में भगवान विष्णु, उसके ऊपर भगवान ब्रह्मा, भगवान स्कन्ध में परमेश्वर भगवान रुद्र, शाखाओं में मुनि, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद् तथा फलों में समस्त प्रजापति वास करते है. आमलकी को सर्वदेवमयी बताया गया है (तस्या मूले स्थितो विष्णुस्तदूवै च पितामहः। स्कन्धे च भगवान् रुद्रः संस्थितः परमेश्वरः ॥ शाखासु मुनयः सर्वे प्रशाखासु च देवताः। पर्णेषु वसवो देवाः पुष्पेषु मरुतस्तथा॥) अतः विष्णुभक्त पुरुषों के लिए यह परम पूज्य है.'


ऋषि बोले की अदृश्य स्वरूप से बोलने वाले महापुरुष! हमलोग आपको क्या समझें- आप कौन है? देवता है या कोई और? हमें ठीक-ठीक बताइए. आकाशवाणी हुई- "जो सम्पूर्ण भूतों के कर्ता और समस्त भुवनों के स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान् पुरुष भी कठिनता से देख पाते हैं, मैं वही सनातन विष्णु हूं." देवाधिदेव भगवान विष्णु का कथन सुनकर उन ब्रह्मकुमार महर्षियों के नेत्र आश्चर्य चकित हो उठे. उन्हें बड़ा विस्मय हुआ, वे भगवान की स्तुति करने लगे. ऋषियों के इस प्रकार स्तुति करने पर भगवान श्रीहरि संतुष्ट हुए और बोले- महर्षियो! तुम्हें कौन-सा  वरदान दूं ?


ऋषि बोले- भगवन! यदि आप संतुष्ट हैं तो हम लोगों की भलाई के लिए कोई ऐसा व्रत बतलाइये, जो स्वर्ग और मोक्षरूपी फल प्रदान करने वाला हो. श्री विष्णु बोले- महर्षियो! फाल्गुन शुक्लपक्ष में यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त तिथि हो तो वह महान पुण्य देनेवाली और बड़े-बड़े पापों का नाश करनेवाली होती है. आमलकी एकादशी में आंवले के वृक्ष के पास जाकर वहां रात्रि में जागरण करना चाहिए. इससे मनुष्य सब पापों से छूट जाता और सहस्त्र गोदानों का फल प्राप्त करता है.


आमलकी एकादशी व्रत की विधि


एकादशी को प्रातःकाल शौच के बाद यह संकल्प करे कि “मैं एकादशी को निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा. अपने मन को वश में रखते हुए नदी में, पोखर में, कुएं पर अथवा घर में ही स्नान करें. स्नान के पहले शरीर में मिट्टी लगाए." 


मिट्टी लगाने का मन्त्र : –
अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे । मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोट्यां समर्जितम् ।।
(पद्म पुराण उत्तर खण्ड 47, 43)


अर्थात – "हे वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतार के समय भगवान विष्णु ने भी तुम्हें अपने पैरों से नापा था. मैंने करोड़ों जन्मों में जो पाप किये हैं, मेरे उन सब पापों को हर लो.”


स्नान -मन्त्र : –
त्वं मातः सर्वभूतानां जीवनं तत्तु रक्षकम् । स्वेदजोद्भिज्जजातीनां रसानां पतये नमः ॥ स्त्रातोऽहं सर्वतीर्थेषु हृदप्रस्त्रवणेषु च। नदीषु देवखातेषु इदं स्त्रानं तु मे भवेत् ॥
(पद्म पुराण उत्तर खण्ड 47.44–45)


अर्थात – ”जल की अधिष्ठात्री देवी! तुम सम्पूर्ण भूतों के लिये जीवन हो. वही जीवन, जो स्वेदज जाति के जीवों की भी रक्षक हैं. तुम रसों की स्वामिनी हो. मेरा यह स्नान उक्त सभी स्नानों का फल देनेवाला हो.”


विद्वान् पुरुष को चाहिए कि वह परशुराम जी की सोने की प्रतिमा बनवाए. प्रतिमा अपनी शक्ति और धन के अनुसार एक या आधे माशे सुवर्ण की होनी चाहिए. स्नान के पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करें. इसके बाद सब सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष के पास जाएं. वहाँ वृक्ष के चारों ओर की जमीन झाड़-बुहार, लीप-पोतकर शुद्ध करें. शुद्ध की हुई भूमि में मन्त्रपाठ- पूर्वक जल से भरे हुए नवीन कलश की स्थापना करें. कलश में पंच रत्न और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दें. श्वेतचन्दन से उसको रंग करें. कण्ठ में फूल की माला पहनाए. सब प्रकार के धूप की सुगन्ध फैलाए. जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखें. पूजा के लिए नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मंगाकर रखे. कलश के ऊपर एक पात्र रखकर उसे दिव्य खीलों से भर दे. फिर उसके ऊपर सुवर्णमय परशुराम जी की स्थापना करें. तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से शुद्ध फल के द्वारा देवाधिदेव परशुरामजी को अर्घ्य प्रदान करें. अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है-


नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोऽस्तु ते। गृहाणार्घ्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे। (पद्म पुराण उत्तर खण्ड 47.57)


अर्थात् – "देवदेवेश्वर ! जमदग्निनन्दन ! परशुरामजी ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है. आंवले के फल के साथ दिया हुआ मेरा यह अर्घ्य ग्रहण कीजिए."


तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से जागरण करें. नृत्य, संगीत, वाद्य, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णुसम्बन्धिनी कथा-वार्ता आदि के द्वारा वह रात्रि व्यतीत करें. उसके बाद भगवान विष्णु के नाम ले-लेकर आमलकी वृक्ष की परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करें. फिर सबेरा होने पर श्री हरिकी आरती करें. परशुरामजी का कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएं दान कर दे और यह भावना करे कि ”परशुराम जी के स्वरूप में भगवान विष्णु मुझ पर प्रसन्न हों.” तत्पश्चात् आमलकी का स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करें और स्नान करने के बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराए. तदनन्तर कुटुम्बियों के साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करें. ऐसा करने से सम्पूर्ण तीर्थो के सेवन से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने से जो फल है, वह सब उपर्युक्त विधि के पालन से सुलभ होता है. 


वसिष्ठजी कहते हैं - महाराज! इतना कहकर देवेश्वर भगवान विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गए. तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियों ने उक्त व्रत का पूर्णरूप से पालन किया. इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए.


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- युधिष्ठिर! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्य को सब पापों से मुक्त करने वाला है. इस प्रकार जो भी व्यक्ति इस उत्तम व्रत को करता है उसे बड़ी सरलता से वैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है और वह मोक्ष का अधिकारी होता है. 


आंवला को आयुर्वेदिक चिकित्सक क्यों अमृत का दर्जा देते हैं? 


आंवला को यूं ही नहीं अमर–फल कहा गया है. उसके चमत्कारी औषधीय, पौष्टिक और स्वाद से भरपूर तत्वों के फल स्वरूप ही यह अमर–फल के पद तक पहुंचा है. यह एक अत्यंत प्राचीन फल है जिसका उल्लेख हमारे शास्त्रों में पाया जाता है. आप इस फल का सेवन किसी भी रूप में कर सकते हैं. सर्दियों में आंवला कच्चा ही खा सकते हैं, चटनी बना सकते है.  आप इसका मुरब्बा बना सकते हैं, शर्बत बना सकते हैं या अचार या पाउडर बना सकते हैx. आंवले की प्रकृति ऐसी है कि इसकी पौष्टिकता में पकाने पर, सुखाने पर या किसी अन्य प्रक्रिया करने पर कोई ज्यादा असर नहीं होता. इसीलिए आप इसका प्रयोग वर्ष भर कर सकते हैं. बड़े महानगरों में तो कच्चे आंवले वर्ष भर उपलब्ध रहते हैं. आयुर्वेदिक चिकित्सकों के अनुसार आंवला 100 से अधिक रोगों को ठीक कर सकता हैं वो भी वैज्ञानिक प्रमाण अनुसार.


आंवले का शास्त्रीय स्वरूप


आंवले के वृक्ष की उत्पत्ति और उसका माहात्म्य का आगे वर्णन है. स्कंद पुराण (वैष्णवखण्ड, कार्तिकमास-माहात्म्य अध्याय क्रमांक 12) के अनुसार, कार्तिक के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को आंवले का पूजन करना चाहिए. आंवले का वृक्ष सब पापों का तिरोहित करने वाला है. इस चतुर्दशी को वैकुण्ठ चतुर्दशी भी कहते हैं.  इसके साथ ही फाल्गुन शुक्ल की एकादशी को भी आंवला वृक्ष का पूजन करने का महत्व है. उस दिन आंवले की छाया में बैठकर श्रीहरि का पूजन करें. 


पूर्वकाल में जब सारा संसार जल में डूब गया था, समस्त चराचर प्राणी नष्ट हो गये थे, उस समय ब्रह्माजी परब्रह्म का जप करने लगे थे. ब्रह्म का जप करते-करते उनका श्वास निकला. साथ ही भगवत दर्शन के प्रेमवश उनके नेत्रों से जल निकल आया. वह जलकी बूंद पृथ्वी पर गिर पड़ी. उसी से आँवले का वृक्ष उत्पन्न हुआ, जिसमें बहुत सी शाखाएं और उप–शाखाएं निकली थीं. वह फलों के भार से लदा हुआ था. सब वृक्षों में सबसे पहले आंवला ही प्रकट हुआ, इसलिए उसे 'आदिरोह' कहा गया. ब्रह्मा जी ने पहले आंवले को उत्पन्न किया. उसके बाद समस्त प्रजा की सृष्टि की. जब देवता आदि की भी सृष्टि हो गयी, तब वे उस स्थान पर आये जहां भगवान विष्णु को प्रिय लगने वाला आंवले का वृक्ष था. उसे देखकर देवताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ. उसी समय आकाशवाणी हुई - “यह आंवले का वृक्ष सब वृक्षों से श्रेष्ठ है; क्योंकि यह भगवान विष्णु को प्रिय है”. इसके दर्शन से दो गुना और फल खाने से तीन गुना पुण्य होता प्राप्त होता है. इसलिए प्रयत्न करके आंवले का सेवन करना चाहिए. क्योंकि वह भगवान विष्णु को प्रिय एवं सब पापों का नाश करने वाला है. आंवले की छाया में व्यक्ति जो भी पुण्य करता है, वह कई गुना हो जाता है.


पूजा में आंवले का उपयोग:



  • अग्नि पुराण 72.12–14 के अनुसार, भगवान को सुगन्ध और आंवला आदि राजोचित उपचार से स्नान कराने का विधान है.

  • अग्नि पुराण 78.39–40 अनुसार, अघोर-मन्त्र के अन्त में 'वषट्‌' जोड़कर उसके उच्चारण पूर्बक उत्तर दिशा में आंवला अर्पित करने का विधान है.


स्वास्थ के लक्षण में शास्त्र आँवला  के बारे में क्या कहते हैं?



  • अग्नि पुराण 279.24 अनुसार आंवला वात रोग (Arthritis) को ठीक कर सकता है.

  • अग्नि पुराण 279.34–37 अनुसार आंवला विसर्पी (फोड़े-फुंसी) को ठीक कर सकता है.

  • अग्नि पुराण 273.34–40 अनुसार आंवला विसर्प रोग (खुजली) को ठीक कर सकता है.

  • अग्नि पुराण 275.1–5 अनुसार आंवला ज्वर रोग (बुखार) को ठीक कर सकता है.

  • अग्नि पुराण 275.1–5 अनुसार आंवले, नीम आदि का काढ़ा शरीर की बाहरी शुद्धि के लिए भी गुणकारी है.

  • सुश्रुत संहिता (उत्तर तंत्र अध्याय 12) के अनुसार, आंवला आंखों के रोग के लिए लाभकारी है.

  • अग्नि पुराण 222.7–10 के अनुसार आंवला विष पिए हुए व्यक्ति को भी ठीक कर सकता है.

  • आयुर्वेद में आंवला को मुख्य स्थान दिया है, लगभग सारे रोगों का निवारण आंवला करता है.

  • पुरातात्विक साक्ष्य (Archaeological evidence) के अनुसार  ऋग्वैदिक काल में भी मिलते हैं.

  • गिलौई के बाद आंवला को संजीवनी कहना मेरे अनुसार कुछ गलत नहीं है.


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