Mahima Shanidev ki : शनिदेव की मां को बचाने की कोशिश देवों के लिए बनी आफत
Shanidev :माता के स्वास्थ्य पर चिंतित शनिदेव को नहीं पता था कि माता के अंत की शुरुआत हो चुकी हैं. ऐसे में विश्वकर्मा, सूर्यदेव भी असफल हो गए तो खुद समाधान खोजने निकले, जिससे देवों में कोहराम मच गया.
Mahima Shanidev ki : कर्मफलदाता-न्यायधिकारी के तौर पर शनि (Shanidev) की पहचान करने के लिए देव और असुरों के संघर्ष के बाद उनकी एकता शनिदेव के लिए कष्टकारी रही. इंद्र ने नाना देवविश्वकर्मा (DevVishwakarma) के भवन में शनिदेव से दिव्यदंड (Divyadand) उठवाने के लिए शुक्राचार्य को उकसा कर महाशक्तिशाली चक्रवात का निर्माण कराया. इसके जरिए इंद्र ने देवलोक पर हमला करवाकर भगवान विश्वकर्मा के भवन को विध्वंस करने का प्रयास किया, जिसकी चपेट में आई मां छाया घायल हो गईं. उन्हें बचाने के लिए शनिदेव ने दिव्यदंड उठाकर चक्रवात का नाश कर दिया, लेकिन मां को लगे विचित्र घाव लंबे समय तक नहीं भर सके.
दरअसल यह घाव माता छाया के अंत की शुरुआत थी, क्योंकि यम की माता संध्या अपना तप पूरा करने वाली थी. ऐसे में उनकी छाया के तौर पर सूर्यमहल में रह रहीं माता छाया को विलुप्त होना था. यह बात देवविश्वकर्मा को पता चल चुकी थी. ऐसे में एक दिन जब खुद माता छाया ने उनसे घाव के ठीक नहीं होने की वजह पूछी तो विश्वकर्मा ने सच्चाई बयां कर दीं. इधर, मां की चोट से परेशान शनिदेव उनकी देखभाल के लिए धर्मराज प्रतियोगिता में शामिल नहीं होना चाहते थे, लेकिन पिता सूर्यदेव और नाना विश्वकर्मा ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे माता छाया का घाव सही कर देंगे. हालांकि मां की हालत और बिगड़ गई तो शनि ने धर्मराज प्रतियोगिता छोड़ दी और सूर्यमहल लौट आए. यहां पिता सूर्य और नाना विश्वकर्मा को उनका वादा पूरा नहीं करने पर कड़ी नाराजगी जताई.
मां को बचाने के लिए कैलास चल दिए शनि
शनिदेव को नाना ने बताया कि पिता अपना आधा तेज देकर भी मां को नहीं बचा सकते हैं. ऐसे में अब खुद महादेव ही उन्हें बचा सकते हैं. यह सुनकर शनिदेव ने कैलास जाकर महादेव की उपासना कर मां को बचाने का प्रयास करने का फैसला किया, लेकिन यह बात पूरे देवलोक के लिए संकट का कारण बन गया. चूंकि माता छाया का समय निकट आ चुका था और एक न्यायधिकारी के तौर पर खुद शनि को उनसे अलग होना था, मगर वह उनके और करीब होते जा रहे थे, उनका नियति को बदलने का प्रयास ही देवताओं के लिए सबसे बड़ी चिंता बन गया, क्योंकि उन्हें अब न्यायधिकारी के तौर पर कर्म फल देना था, जिसके लिए उन्हें किसी भी प्रेम, शत्रुता आदि भावों से मुक्त होने की जरूरत थी.
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