आचार्य चाणक्य ने पाटलीपुत्र से तक्षशिला और तक्षशिला से पाटलीपुत्र के बीच कई यात्राएं कीं. पर्वतराज पौरस को हराने वाले सिकंदर की सेना को परास्त करने के दौरान उत्तरी सीमांत राज्यों में अनगिनत यात्राएं की. इस दौरान वे मित्रों और शिष्यों के आग्रह पर उनके यहां आश्रय लिया करते थे. वे यहां भोजनादि में अधिकार पूर्वक इच्छा जाहिर करते थे. इससे मित्रों, घनिष्ठों और शिष्यों का मान तो बढ़ता ही था आचार्य भी सहज रहा करते थे.
आचार्य का मानना था कि बड़े लक्ष्यों के प्रति समर्पण के भाव में साधारण परंतु अत्यावश्यक जरूरतों में व्यक्ति में संकोच का भाव नहीं होना चाहिए. आवश्यकता अनुसार अधिकारपूर्वक इच्छा स्पष्ट कर देना चाहिए. हालांकि इसमें यह ध्यान रखना जरूरी है कि जरूरत भर की ही पूर्ति हो. संग्रह और सुविधा का भाव न हो.
पाटलिपुत्र में धननंद के विरुद्ध गृहयुद्ध की रूपरेखा तैयार करने में चाणक्य को पारिवारिक निवास होने के बावजूद वहां बहुत समय तक अस्थिर ही रहना पड़ा. इस दौरान वे अपनों मित्रों के निसंकोच आश्रय लेते रहे. भोजनादि में अधिकार भाव के साथ रहे.
आचार्य विष्णुगुप्त सदैव अपनी रणनीति को महत्ता देते थे. इसके लिए जो उचित लगता था वे सहजता और मनोयोग से करते थे.
समाज में लोकोक्ति भी है कि ‘‘जानै की शरम वा के फूटे करम‘‘ अर्थात् जो शर्म करता है, उसका भाग्य उससे रूठ जाता है,
आचार्य इस कहावत को हृदय से आत्मसात कर चुके थे, यही कारण रहा िकि लंबी यात्राओं और देशाटन में सहजता से सफलता पूर्वक अपनी योजनाआंे को अंजाम दे सके,