पौष मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि अर्थात 22 जनवरी 2024 जैसे-जैसे निकट आ रही है देश का वातावरण राममय होता जा रहा है. जहां तक राम जन्मभूमि अयोध्या की बात है तो यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि वह उस अनुभव का साक्षात्कार कर रही है जो त्रेतायुग में हुआ होगा.
देशभर में अनेक प्रकार के आयोजन चल रहे हैं, अयोध्या पहुंचने वाले रामभक्तों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है. चारों ओर राम नाम के भजनों की धुन बज रही है ऐसे राममय वातावरण में राम के चरित्र-चित्रण या फिर जीवन चरित्र पर दृष्टि डालना अत्यंत आवश्यक हो जाता है. विशेषकर भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में तो नितांत आवश्यक है.
आखिर राम में ऐसा क्या है जो आज तक भारतीय समाज सहित सम्पूर्ण विश्व के लिए प्रासंगिक है. यहां ध्यान रखना आवश्यक है कि शास्त्रों के अनुसार राम त्रेतायुग में हुए हैं और त्रेतायुग लाखों-करोड़ों वर्ष पूर्व हुआ है. वर्तमान डेटिंग विशेषज्ञों या फिर कालगणना विशेषज्ञों की मानें तो भी राम लगभग 7-8 हजार वर्ष पूर्व हुए हैं. आज की पीढ़ी की बात करें तो शायद ही किसी को अपनी पिछली 10 पीढ़ियों का इतिहास याद हो! लेकिन त्रेतायुग के श्रीराम के बारे में सब जानते हैं. भारतीय जनमानस के ऊपर राम की इस अमिट छाप के पीछे क्या कारण हो सकता है? आज भी हिन्दू समाज में अंतिम यात्रा में ‘राम नाम सत्य है’ ही कहा जाता है. आईये विश्लेषण करते हैं:-
भारतीय जनमानस पर कैसे पड़ी राम की अमिट छाप
राम के जीवन चरित्र या फिर चरित्र दर्शन के लिए वाल्मीकि रामायण का पठन पाठन या फिर श्रवण आवश्यक है. रामायण युगपुरुष, अवतार पुरुष, संस्कार पुरुष, राम की शौर्यगाथा है. यह राम ही हैं जिन्हें आदर्श पुरुष, धर्म की प्रतिमूर्ति, आर्यश्रेष्ठ, नरश्रेष्ठ और पुरुषोत्तम कहा जाता है. रामायण परिवार, समाज और राष्ट्रनिर्माण की कथा है. रामायण का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से पता चलता है कि राम का सम्पूर्ण चरित्र और जीवन संस्कारों से परिपूर्ण या फिर संस्कारों पर ही आधारित था. राम भारत देश की आत्मा है, संस्कारों से निर्मित भारतीय संस्कृति के इष्टदेव हैं. राम के बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना करना असंभव है. शस्त्र और शास्त्र के अलौकिक संगम अथवा समन्वय से निर्मित प्रभु राम का जीवन और चरित्र ही भारत और भारतीय समाज की गौरव गाथा का प्रेरणा स्त्रोत है. राम का जीवन वास्तव में आदर्श संस्कार कथा है ऐसा कहने में कोई अतिश्योक्ति नही है.
भारतीय समाज सनातन सनातन धर्म अथवा सनातन संस्कृति का अनुयायी या फिर वाहक है. सनातन धर्म अथवा सनातन संस्कृति हर प्रकार से प्रत्येक काल में समस्त जीवों के लिए सर्वथा हितकारी रही है. सनातन संस्कृति में व्यक्ति-निर्माण के द्वारा समाज-निर्माण और समाज-निर्माण के द्वारा विश्व के हित अथवा कल्याण ही मुख्य उद्देश्य है. इस सनातन संस्कृति के मूल में उन्हीं संस्कारों का समावेश है जो प्रभु श्रीराम के चरित्र में समावेशित थे, इसलिए कहा जाता है कि श्रीराम के बिना भारतीय अर्थात सनातन संस्कृति की कल्पना करना असंभव है.
आदर्श समाज और राज्य है रामराज्य
लेकिन अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इतनी उच्च सनातन अथवा भारतीय संस्कृति का पतन कैसे और क्यों हुआ? जब हम उत्तर ढूढने निकलेंगे तो पायेंगे कि इसका मूल कारण है हमारे भीतर आई संस्कारों की कमी. संस्कारों की इसी कमी के कारण आज का समाज या फिर आज के लोग शिक्षित समाज की बात करते हैं, संस्कारी समाज की नही. पश्चिमी समाज के प्रभाव (दुष्प्रभाव) में आकर सिविलाइज़्ड सोसाइटी की बात करता है जबकि करना चाहिए संस्कारी समाज की बात. हमारे संस्कारों से संस्कृति का निर्माण होता है, जिससे सभ्यता बनती है, जबकि पश्चिम कल्चर और सिविलाइजेशन की बात करता है.
सिविलाइज्ड सोसाइटी में कानून द्वारा व्यवस्था लागू की जाती है, जबकि संस्कारों द्वारा यह सहर्ष स्वीकार की जाती है. संस्कारी समाज आत्म-नियंत्रित होता है, जबकि सिविलाइज्ड सोसाइटी में बाह्य-नियंत्रण होता है. एक प्रेम की व्यवस्था है तो दूसरी डर की. एक स्वतःस्फूर्त है तो दूसरी बाध्यकारी. यदि हम श्रेष्ठ होना या फिर आर्य होना या फिर संस्कारी होना, इसके श्रेष्ठतम उदाहरण ढूंढने के लिए निकलेंगे तो हम श्रीराम तक ही पहुंचेंगे. आदर्श समाज या और राज्य की तलाश करेंगे तो रामराज्य ही मिलेगा.
वास्तव में राम का जीवन अपने आप में एक शास्त्र है. श्रीराम अवतार-पुरुष के साथ-साथ संस्कार-पुरुष भी हैं. बिना संस्कार के संस्कृति संभव नहीं और संस्कृति के बिना समाज संभव नहीं. राम संस्कार के लिए आदर्श चरित्र हैं ऐसा कहने में कोई अतिश्योक्ति नही है. आखिर सनातन समाज के परिवारों में बच्चों के जन्म, विद्यालय में प्रवेश, विवाह संस्कार कथा और अंत्येष्टि संस्कार में श्रीराम का स्मरण क्यों किया जाता रहा है? ऐसा इसलिए है क्योंकि श्रीराम पुरुषोत्तम हैं. उनका जीवन-चरित्र संस्कार कथा का उत्तम उदाहरण है. जब तक इसका अनुसरण किया जाता रहा, तब तक भारतीय समाज श्रेष्ठ बना रहा और इन संस्कारों से दूर होते ही पतन होना प्रारंभ हुआ.
इस बात को कोई नकार नही सकता है कि वर्तमान में हमारा भौतिक विकास तो हुआ है लेकिन उतना ही नैतिक पतन भी हुआ है. इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि परिवार और समाज में अशांति है, मानवीय संबंधों की गरिमा नष्टप्राय है और जीवन नीरस हो चुका है या फिर होने के मार्ग पर अग्रसर है. इसलिए रामायण अर्थात राम के व्यक्तित्व, चरित्र और जीवन की कथा की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है क्योंकि रामकथा में नैतिक मूल्यों के प्रति आंतरिक आग्रह है और यही कारण है कि श्रीराम और उनकी रामकथा हर युग में या फिर हर कालखंड में संदर्भित और प्रासंगिक होकर समाज में प्रचलित और स्थापित होती रही.
कोई भी समाज नैतिक मूल्यों के बिना जीवित नहीं रह सकता, इस बात को नकारना मुर्खता ही होगी और साथ ही इस बात को भी हमें स्वीकार करना होगा कि नैतिक मूल्यों का मूल स्त्रोत संस्कार ही हैं. हमारे समाज में सद्भावना और सामंजस्य युक्त जीवन के लिए इसकी अनिवार्यता स्वतः सिद्ध है. आधुनिक युग का तथाकथित आधुनिक समाज इस तथ्य को स्वीकार नहीं करता. अतः इसका पतन हो रहा है. जहां तक नैतिक मूल्यों की बात है तो वे काल-निरपेक्ष होते हैं अर्थात् नित्य कहे जाते हैं. यही सनातन संस्कारों के मूल में है.
इनका परिपालन हर वर्ग, वर्ण और व्यक्ति को प्रत्येक काल और स्थान में करना अपेक्षित है और यही श्रीराम के जीवन में भी व्याप्त है और रामकथा के मूल में भी है. मानव समाज को इनकी हर युग में आवश्यकता पड़ती है. इनके द्वारा ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का कल्याण संभव है. रामकथा के उदात्त पात्रों में सनातन के नैतिक मूल्यों और वैदिक संस्कारों का साक्षात् स्वरूप दिखाई देता है. अतः राम की कथा हर युग में संदर्भित है.
नैतिक मूल्यों का आचरण है राम का चरित्र
राम का चरित्र नैतिक मूल्यों का आचरण है. उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं. वे उच्च आदर्शों और नैतिक मूल्यों के साक्षात् स्वरूप हैं. वे विपरीत परिस्थितियों मैं भी अपना संतुलन नहीं खोते. नीतिमत्ता उनके जीवन-मूल्य हैं. श्रीराम सदा मूल्यों और मर्यादाओं के प्रति समर्पित रहे. उन्होंने व्यक्तिगत सुख के लिए जीवन नहीं जिया बल्कि परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया. विशेषकर पारिवारिक संबंधों की सुरक्षा के लिए वे सदैव तत्पर रहें. इन सबके लिए वे सत्य, दान, तप, त्याग, मित्रता, पवित्रता, सरलता, दया, करुणा, सेवा भाव, कृतज्ञता से जीवनपर्यंत ओतप्रोत रहे. यही नहीं, उनसे प्रेरित परिवार के अन्य सदस्यों ने भी उनकी इस प्रतिबद्धता से अपने आपको जोड़ा.
भाई के रूप में भरत और लक्ष्मण दोनों आदर्श रूप में युगों-युगों से स्थापित हैं. एक ने भक्तिपूर्ण संपूर्ण समर्पण तथा आत्मोत्सर्ग किया तो दूसरे ने असंदिग्ध आज्ञाकारी होकर अक्षरशः अनुसरण किया. पवित्रता से भरपूर सीताजी का चरित्र नारी जीवन का आदर्श बन गया. वहीं रामभक्त हनुमान निस्स्वार्थ और अथक सेवा के प्रतीक बनकर युगों से हमारे समाज में स्थापित और सुशोभित हैं. इस तरह के अन्य अनेक चरित्रों के माध्यम से सनातन संस्कृति के वाहक भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों और संस्कारों को रामकथा में पिरोया गया, जिसके श्रवण मात्र से सुख की प्राप्ति और मानव का कल्याण होता है. संक्षिप्त में कहें तो समाज को राममय बनाने का अर्थ है-लोक को मंगलमय बनाना.
राम एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति, आदर्श राजा, आदर्श समाज-सुधारक और आदर्श योद्धा के श्रेष्ठतम उदाहरण हैं. राम समाज के हर घर-परिवार के सदस्य लगते हैं. उनके भीतर समस्त मानवीय गुण हैं, जहां देवत्व की गरिमा के द्वार खुलते हैं. गोस्वामी तुलसीदास तो कलियुग में कहते भी हैं कि राम निर्गुण ब्रह्म होते हुए भी भक्तों के लिए शरीर धारण करते हैं. (रा.मा. 1.115.1-2).
रामायण का अर्थ है राम का मार्ग अर्थात सम्पूर्ण समाज के कल्याण का मार्ग. यह राम-रामा (सीता) का वह मार्ग है, जिस पर चलते हुए राम के पांव लहूलुहान हो गए, परंतु उन्होंने धर्म और नीति का साथ नहीं छोड़ा. रामकथा समाज के नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण यात्रा की गतिशीलता को व्यक्त करके, मानव जीवन के लिए उच्चतम लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग निर्धारित करके आदर्श स्थापित करती है.
भारतीय समाज और राम का चरित्र
राम के जीवन और चरित्र का गुणगान करने वाली रामकथा का बालकांड व्यक्तिगत और सामजिक जीवन की सरलता का कांड तो प्रेम से परिपूर्ण अयोध्याकांड जीवन के सत्य का कांड है, वहीं अरण्यकांड जीवन के त्याग का कांड है. किष्किंधा कांड जीवन के संघर्ष का कांड है तो मित्रभाव से परिपूर्ण सुंदरकांड मृत जीवन में नवजीवन का कांड है, युद्धकांड जीवन में धर्मयुद्ध का कांड है और जहां तक उत्तरकांड की बात है तो यह जीवन में धर्मस्थापना का कांड है.
सनातन संस्कृति और समाज में राम के अमिट प्रभाव को इस तरह से समझा जा सकता कि हिंदू परिवार में जन्म और विवाह के अवसर पर रामजन्म और राम-विवाह संबंधी गीत गाए जाते हैं तथा अंतिम यात्रा में 'राम नाम सत्य है' कहा जाता. आज के समाज में हर कोई चाहेगा कि उनका भाई, पिता, पुत्र, मित्र, राजा राम के जैसा अर्थात गुणों और संस्कारों वाला हो. संस्कार पुरुष राम का रामराज्य एक आदर्श राज अथवा शासन व्यवस्था है. इसका संदर्भ सदियों से लिया जाता रहा है. इसकी अनेक विशेषताएं हैं. उदाहरणार्थ, रामराज्य में अपराध नहीं होते थे. रामराज्य में हर एक के भीतर वैराग्य होता था. रामराज्य में भेद नहीं होता था. लेकिन रामराज्य परिवार में भी होना चाहिए, तभी समाज में होगा. यह राम के परिवार से भी समझा जा सकता है.
मानव के सर्वांगीण विकास में परिवार का योगदान सर्वोपरि है. यही कारण भी रहा कि सनातन समाज में परिवार के प्रति विशेष प्रेम की भावना प्रारंभ से रही है. समय-समय उसमें उत्पन्न अवरोध-विरोध को निर्मूल करने के लिए विशेष प्रयत्न हुए. रामकथा में इसे देखा और समझा जा सकता है. यहां पारिवारिक संबंधों की गरिमा देखते ही बनती है. जहां हर पात्र त्याग और प्रेम की भावना से प्रयासरत है. मात्र इसी कारण से यह पारिवारिक प्रेम की कथा अद्भुत बन जाती है.
सनातन परंपरा में माता-पिता का सर्वोच्च स्थान है. 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव' का पालन श्रीराम आजीवन करते रहे. राम पिता की अनुमति से ही सभी कार्य करते हैं. यहां तक कि धनुर्भग के बाद भी पिता की स्वीकृति के बिना श्रीराम सीता से विवाह के लिए तैयार नहीं हुए (वा.रा. 2.118.51).
राम की पितृभक्ति एकपक्षीय नहीं है. दशरथ भी राम के प्रति असीम प्रेम रखते हैं. यहां तक कि गुणों के वर्णन में वे अपने से अधिक राम के गुणों को महत्त्व देते हैं. तभी तो वे कैकेयी से कहते हैं कि मैं कौसल्या और सुमित्रा को भी छोड़ सकता हूं, राजलक्ष्मी का भी परित्याग कर सकता हूं, परंतु प्राणस्वरूप अपने पितृभक्त राम को नहीं छोड़ सकता (वा.रा. 2.12.11).
वे तो यह भी कहते हैं कि राम के बिना मेरे शरीर के प्राण नहीं रह सकते (वा.रा. 2.12.13). श्रीराम की मातृभक्ति तो अलौकिक है. केवल अपनी सगी मां कौसल्या ही नहीं, बल्कि कैकेयी और सुमित्रा के प्रति भी उनके प्रेम में कोई कमी नहीं. श्रीराम और रामकथा के विशिष्ट होने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि यह पारिवारिक संघर्ष की कथा नहीं, बल्कि पारिवारिक प्रेम की श्रेष्ठ गाथा है. सनातन समाज का आधार है परिवार. पारिवारिक एकता, समरसता व सौमनस्यता के लिए परिवार के सभी सदस्यों में प्रेम का होना अत्यंत आवश्यक है और विशेषकर भाइयों के बीच तो प्रेम का होना अपरिहार्य है.
बड़ा भाई पितृवत् पूज्य व आदरणीय माना जाता, साथ ही बड़े भाई को अपने प्रेम और त्यागपूर्ण आचरण को प्रस्तुत करना पड़ता है. भातृप्रेम की बात करें तो श्रीराम और लक्ष्मण तथा भरत और शत्रुघ्न की जोड़ी आदर्श मानी जाती है. श्रीराम का जीवन सनातन संस्कृति का उत्तम उदाहरण है, जिसके पालन से श्रेष्ठ समाज का निर्माण संभव है इसलिए ऋषियों ने मुनियों ने, ब्राह्मणों ने वनवास में भी श्रीराम का स्तुतिगान किया. वास्तव में श्रीराम द्वारा स्थापित आदर्शों के बिना परिवार और समाज का कल्याण संभव नही है.
श्रीराम की जीवन कथा अर्थात रामकथा परिवार की कथा है. गृहस्थों का आदर्श है. परिवार नगर में रहे या वन में, परिवार मानव का हो, वानर का हो या दानव का, हर समय यह उदाहरण प्रस्तुत करती है. हर परिवार के हर सुख-दुःख में साथ खड़ी होती है, तभी तो परिवार की सुरक्षा के लिए युद्ध का निर्देश देती है फिर चाहे शत्रु राक्षस रावण ही क्यों न हों.
आज की बात करें तो राम के देश में संस्कारहीनता के कारण वृद्धाश्रमों का होना, सामाजिक भेदभाव होना, परिवारों का टूटना, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होना, युवा वर्ग का अनुशासनहीन होना आदि अपने आप में बहुत बड़ी विडंबना है. प्रभु राम ने न तो कभी धर्म को छोड़ा और न ही कभी किसी अधर्मी को छोड़ा- यह बात आज के भारतीय समाज के लिए बहुत बड़ा संदेश है. जिस तरह समय-समय पर उन्नति के लिए हरित क्रांति, दुग्ध क्रान्ति या फिर सूचना क्रान्ति की गयी, उसी तरह आज विश्व को ‘संस्कार क्रांति’ की आवश्यकता है तभी आज के मानव के मन में और समाज में शांति की स्थापना होगी. इस संस्कार क्रांति के मूल में राम और उनका जीवन चरित है इसलिए उसका अध्ययन पूर्ण मनोयोग से करना अत्यंत आवश्यक है.
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