आजकल राम मंदिर की प्रतिस्थापना को लेकर कई तरह की चर्चाएं की जा रही हैं, एक तो यह है कि, चंपत राय जोकि वर्तमान में श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के महासचिव हैं, इनका कहना है कि, राम मंदिर रामानन्द सम्प्रदाय को सौंप दिया जाएगा. लेकिन क्यों उन्होंने इस सम्प्रदाय की देख रेख में मंदिर सौंप देने की बात कही. इसे समझने के लिए थोड़ा इसके इतिहास का भी अवलोकन करना जरूरी है.


रामानन्दाचार्य को इस सम्प्रदाय का जनक माना गया है जब उन्होंने पन्द्रहवी शताब्दी में इस मत के अनुयायियों को तैयार किया जो मूलतः वैष्णव विचारो विशेषतः विशिष्ट अद्वैतवाद के आराधक थे. प्रभु राम विष्णु के अवतार होने के कारण उनकी आराधना की जाती रही है.


संत अंक (कल्याण) अनुसार, रामानंद जी समय संत-समुदाय के लिए स्वर्णकाल ही था. 'साधु', 'संत' और 'महात्मा' शब्द वैरागियों के लिए प्रयोग होने लगे. जगद्‌गुरु ने अन्तर्हित रहकर ही जगत् का हित किया. उनका ऐसा स्वभाव भी था और अलौकिकता भी. यदि कभी किसी सुपात्र को सौभाग्य से उनके दर्शन हो गए तो वह एक दिव्य अनुभूति होती थी. वे अपने स्थान में रहते हुए भी सदा सभी जगह रहते थे और न रहते हुए भी सदा सर्वत्र रहते हैं.


राजनैतिक क्षेत्र में भी वे उसी प्रकार चमकते थे जिस प्रकार धार्मिक क्षेत्र में. भारतवर्ष के उस  समय में आर्य जाति और आर्यधर्म के उत्थान के साथ ही विश्व-कल्याण एवं धर्म के उत्थान के लिए आवश्यकता थी, जगद्‌गुरु वैसे ही थे. सब उनमें हार्दिक श्रद्धा रखते थे. भारतवर्ष के अतिरिक्त ईरान और अरब आदि देशों के भी संत उनकी सेवा में आते थे और पूर्ण काम होकर जाते थे. सभी सम्प्रदाय के अनुयायी महात्मा उनसे लाभ उठाते थे. वे सम्प्रदाय परिवर्तन नहीं कराते थे और शिष्य को कृतार्थ कर देते थे. आचार्यों की अनुग्रहशक्ति तो व्यापक रहती थी, परन्तु आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने अपनी निग्रह शक्ति से भी काम लिया है.


जब मुस्लिम शासक तुग़लक का क्रूर शासन हिंदुओं के लिए पीड़ादायक बन रहा था और रोज नए अत्याचार हो रहे थे तब यतिराज ने उसका शासन किया था, जो समस्त भारतवर्ष के मुसलमानों में व्याप्त हो गया था. विवश होकर तुग़लक को श्री स्वामीजी के दूत से क्षमा मांगनी पड़ी और सन्धिपत्र लिखकर उनकी हिन्दू धर्म रक्षा विषयक बारहों शर्तें मंजूर करनी पड़ी.

श्रीभगवत्पादाचार्य का वह समय था जब बाहर बादशाह का अत्याचार तथा भीतर मत-मतान्तरों मे द्वेष और कलह से धर्म  छिन्न-भिन्न हो रहा था. जब आर्यजाति हताहत हो रही थी और उसके प्राण कण्ठगत हो रहे थे तब उन महाप्रभु रामानन्द की ही अचिन्त्य महिमा थी जिसने नवजीवन प्रदान कर उनकी रक्षा की. उग्ररूप से फैले हुए राग-द्वेष को मिटाकर शान्ति-सुख का साम्राज्य स्थापित कर दिया. वास्तव में श्रीयतिराज महाराज युगप्रवर्तक महापुरुष थे. भागवत धर्मप्रधान धार्मिक शान्ति का जो सात्त्विक युग उन्होंने उपस्थित कर दिया, वही अबतक सनातन धर्म के नाम से चल रहा है. उनके दिव्य प्रभाव से उनका आविर्भाव होते ही बाह्याभ्यन्तर प्रकृति में सत्त्वगुण का ऐसा संचार हुआ जिससे देश- काल का भी संशोधन हुआ.

जगद्‌गुरु महाप्रभु 'सबके प्रिय सबके हितकारी' थे. वैष्णव, शैव-शाक्तादि भी अपने-अपने तौरपर अपने को 'रामानन्दी' मानते थे.


'रा' शक्तिरिति विख्याता 'म' शिवः परिकीर्तितः,
तदानन्दी शान्तचित्ती प्रसन्नात्मा विचारधृक् ॥
सर्वत्र रामरूपश्च 'रामानन्दी' प्रकीर्तितः।


उनकी इस सर्वप्रियता और विश्व वरेन्यता कारण यही था कि वे समदर्शी और नीरदवत् सर्वत्र करुणा बरसाते थे-


जगद्‌गुरु महाप्रभु ने देश के लिए किए तीन काम


सब मम प्रिय सब मम उपजाया।
सबपर मोरि बराबर दाया॥


श्री स्वामी जी ने देश के लिए तीन काम मुख्यतः किए. प्रथम तो यह कि उन्होंने घोर साम्प्रदायिक (गृह) कलह शान्त कर दिया. दूसरा यह कि सम्राट् गयासुद्दीन तुगलक की हिन्दू-संहारिणी सत्ता को पूर्णतः दबा दिया. तीसरा यह कि हिन्दुओं का आर्थिक संकट भी दूर कर दिया. संवत् 1454 का समय हिन्दुओं के लिए बड़ा ही विकट था. उस विपत्ति काल में देश और धर्म की रक्षा करने के लिए रामानन्द महाप्रभु-जैसे सर्वशक्तिशाली सन्त की आवश्यकता थी.


रामानन्द जी अपनी पुनीत गुफ़ा से गंगा स्नान के लिए बाहर निकलते थे. उनके शिष्यों की संख्या पांच सौ से अधिक थी. उस शिष्य समूह में द्वादश गुरु के विशेष कृपापात्र हैं-कबीर, पीपा और रैदास आदि. भागवतों के इस समुदायका नाम 'विरागी' (वैरागी) हैं, जो लोक-परलोक की इच्छाओं का त्याग करता है, उसे भाषा में 'विरागी' कहते हैं.


कहते हैं कि इस सम्प्रदाय की प्रवर्तिका (ऋषि) जगजननी (श्री) सीता जी हैं. उन्होंने प्रथमतः अपने विशेष सेवक पार्षदरूप (श्री) हनुमान् (जी) को उपदेश किया और उन ऋषि (आचार्य) के द्वारा संसार में उस रहस्य (मन्त्र) का प्रकाश हुआ. इस कारण इस सम्प्रदायका नाम ‘श्रीसम्प्रदाय’ है और उसके मुख्य मन्त्र को 'रामतारक' कहते हैं और यह कि उस पवित्र मन्त्र की गुरु शिष्यके कान में दीक्षा देते हैं और ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक लाम व मीम के आकार का ललाट तथा अन्य ग्यारह स्थलों पर लगाते हैं.


तुलसी का 'हीरा' जनेऊ में गूंथकर शिष्य के गले में पहनाते हैं. उनकी जिह्वा जप में और मन सच्चे प्रियतम के दर्शन करने में रहा करता हैं. पूर्णतः भजन में ही रहना इस सम्प्रदाय की रीति है. अधिकांश संत आत्मारामी अथवा परमहंसी जीवन निर्वाह करते हैं. रीति-निर्वाहार्थ वैश्वानर संहिता का निम्नस्थ श्लोक उद्धृत है-


सोऽवातरज्जगन्मध्ये जन्तूनां भवसङ्कटात् ।


पारं कर्तुं हि धर्मात्मा रामानन्दः स्वयं हरिः ।।


इसी प्रकार अगस्त्यसंहितादिमें भी कहा है।


'जन्म कर्म च मे दिव्यम्'


यह श्रीमुखवाक्य जगद्‌गुरु के जीवन में अक्षरशः चरितार्थ हुआ है. उनका सम्पूर्ण जीवन ही दिव्यता और अलौकिकता से ओतप्रोत है. यह तो थी रामानन्द जी की संशिप्त जीवनी. राम मन्दिर को इनकी देख रेख में रखना भले ही जैसा विचार हो लेकिन दूसरे संप्रदायों को नीचा नहीं दिखाना है, क्योंकि इस राम मंदिर आंदोलन में लगभग सारे संप्रदायों का योगदान हैं


चंपत राय के कथन का तात्पर्य यह भी हो सकता है कि मंदिर ट्रस्ट का कारोबार रामभक्तों के हाथ में सौंपा जाएगा, राम की भक्त वैसे तो सारी दुनिया है. यहां तिल का ताड़ बनाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि उपरोक्त कथन एक प्रश्न का उत्तर था. ट्रस्ट के अध्यक्ष नृत्य गोपाल दास हैं जो रामानन्द सम्प्रदाय के ही हैं. छोटी छावनी के श्री महंत हैं. वैसे तो मंदिर के मालिक सभी रामभक्त हैं. हालांकि सहयोग सबका है, पर अध्यक्ष होने के नाते इनका सहयोग माना जाएगा. वैसे तो सहयोग सबका ही हैं.


वह स्थान टूटने के पहले वहां सियाराम शरण जी हनुमानगढ़ी की देखरेख में पूजा अर्चना करते थे जो रामानन्द सम्प्रदाय के ही हैं. तीन अखाड़े हैं रामानन्द सम्प्रदाय के



  1. निर्वाणी

  2. निर्मोही

  3. दिगम्बर


हालांकि मन्दिर निर्माण में शैव, शाक्त आदि सभी सनातनियों का सहयोग हैं. मन्दिर प्रतिस्थापना में तो तेरह के तेरह अखाड़े आमंत्रित हैं और वे सभी सम्मिलित होंगे. तीन अखाड़े रामानन्द सम्प्रदाय के, सात सन्यासियों के, दो अखाड़े उदासियों के और एक अखाड़ा नाथ सम्प्रदाय का है. मंदिर की देख–रेख निर्मोही अखाड़ा ही करता है. रामानुजाचार्य और रामानन्दाचार्य बैरागी होते हैं और शंकराचार्य सन्यासी होते हैं. सभी सम्प्रदायों ने विशेषतः वामदेवजी ने मंदिर के लिए आंदोलन किया हैं. सभी ने गोलियों की बौछार झेली है.


वैसे रामानन्द सम्प्रदाय के मुखिया जगतगुरु होते हैं. इस समय कई जगतगुरु हैं जिनमे रामभद्राचार्य भी हैं. रामानंद और हनुमानगढ़ी से कई वर्षों तक जुड़े स्वामी अंजनी नंदन दास का भी इस राम जन्मभूमि आंदोलन में बहुत बड़ा योगदान है, उन्होंने कई वर्षों तक “सीताराम महायज्ञ” आयोजित कर रामजन्म भूमि के लिए प्रभु से प्रार्थना की, उन्होंने अयोध्या में ही कई वर्षों तक सीताराम महायज्ञ का आयोजन करवाया और रामायण कथा ज्यादा से ज्यादा प्रसारित करने का काम किया. इस आंदोलन में महंत नृत्यगोपालदास जी की भी अहम भूमिका है.


नृत्यगोपालदास जी मनीराम छावनी के मुखिया हैं. नृत्यगोपालदास वयोवृद्ध सन्त बड़े त्यागी प्रवृति के हैं. उनका स्थान रामजन्मभूमि आंदोलन के दरम्यान भक्तों को सारी सुविधा उपलब्ध कराता था. इस आंदोलन के वे अगुवाकार थे. दिन रात वहां सेवा चलती रहती है. वहां संतों का निरन्तर भंडारा चलता है. सबकुछ निशुल्क है. वहां वाल्मीकि भवन बना है जहां भजन कीर्तन चलता रहता है.दीनबन्धु अस्पताल उन्हीं के द्वारा बनाया गया है. सन्त समाज में वे ही सबसे शीर्ष हैं. 


गुरु रामानन्द जी के पश्चात् उनके कई अनुयाइयों ने राम भक्तों की वृद्धि करने का सफल प्रयास किया. उन्होंने राम कथा पूरे भारत में प्रसार किया. रामानन्द संम्प्रदाय का वर्चस्व केवल भारत तक ही नहीं पूरे विश्व भर में प्रसिद्ध हैं. ऐसे में रामानन्द सम्प्रदाय को राम मंदि मंदिर की देखरेख के अधिकारी हैं.


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