हम सबने लक्ष्मण जी के भ्रातः (भाई) प्रेम पर बहुत कहानियां सुनी हैं लेकिन भरत जी के बारे में बहुत कम चर्चा की है. भरत जी का भ्रातः प्रेम लक्ष्मण जी से कम नहीं था. भरत के त्यागमय और उज्ज्वल पक्ष की प्रस्तुति इस लेख के माध्यम से समझिए, जिसका शास्त्रीय स्वरूप इस तरह से है-
रामायण अंक अनुसार, रामायण में भरत का एक विशेष स्थान है. यदि यह कहा जाये कि रामायण के पात्रों में भरत का चरित्र सबसे अधिक उज्ज्वल है तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी. भरत ने जितनी प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना किया और जिस धैर्य तथा साहस के साथ किया उतना कोई दूसरा नहीं कर सकता. जितनी परीक्षाएं भरत ने दी उतनी यदि किसी दूसरे के सामने आयी होतीं तो वह कमजोर पड़ जाता. दुनिया एक ओर है और भरत एक ओर हैं. घर के सब सगे सम्बन्धी उन्हें उनका हित सुझा रहे थे. उनके जन्म से ही पहले उनकी माता कैकेयी के विवाह से भी पूर्व, उनके नाना ने महाराज दशरथ से प्रतिज्ञा करा ली थी कि कैकेयी का पुत्र ही राज्य का अधिकारी होगा. इसी शर्त पर कैकेयी का विवाह हुआ था. मन्थरा के उपदेश से कैकेयी ने इस मनोरथ के लिये घर में युद्ध मचा दिया था. एक प्रकार से भरत के मार्ग के कांटे, राम को जड़ से उखाड़ फेंका था.
नाना, मामा आदि सबके सब राज-कार्य के तजुर्बेकार और भरत के हर तरह से मददगार थे. 14 वर्ष का समय भी कम नहीं होता. इतने समय में भरत प्रजा को अच्छी तरह काबू में कर सकते थे. यदि कोई अड़चन होती तो उनके सहायक भी कम नहीं थे. आखिर भरत का इसमें क्या दोष था? वह अपने 'जन्म-सिद्ध अधिकार' को कैसे छोड़ दें? फिर कैकेयी को मिले वरदान भी तो कम न थे! माना कि भगवान राम, लक्ष्मण को महर्षि विश्वामित्र ने जो दिव्य ज्ञान दिये थे वे भरत के पास नहीं थे.
भरत: राम वन में रहें और भरत राज्य का सुख भेागें यह सम्भव नहीं
14 वर्ष वनवास के दौरान राम अपने राज्य के लिये लड़ सकते थे. 14 वर्ष के समय की शर्त 'राम-वनवास' के साथ लगायी गयी थी, भरत राज्य के साथ नहीं. कैकेयी ने जो दो वरदान मांगे थे, उनमें यह नहीं था कि भरत 14 वर्ष राज्य करें और बाद में आकर राम राज्य ले लें. उसने साफ कहा था कि 'भरत का राज्य बिना किसी शर्त के और राम 14 वर्ष वन में रहें,' यदि 14 वर्ष के बाद राम चाहते तो नगर में आ सकते थे, लेकिन राज्य वह कभी नहीं ले सकते थे. कैकेयी की राजनीतिक गुरु मन्थरा इतनी भोली नहीं थी जो ऐसी कच्ची बात सिखाती और न कैकेयी के पिता ने ही ऐसी कमज़ोर शर्त की थी. वाल्मीकि ने मन्थरा की उक्ति इस प्रकार लिखी है-
तौ च याचस्व भर्तारं भरतस्यामिषेचनम् । प्रब्राजनं च रामस्य वर्षाणि च चतुर्दश ।। चतुर्दश हि वर्षाणि रामे प्रब्राजिते बनम् । प्रजाभावगतस्नेहः स्थिरः पुत्रो भविष्यति। (वाल्मिकी रामायण बाल कांड 9.20–21)
अर्थ: – भरत का राज्य और राम का 14 वर्ष का वनवास वरदान में मांगो. 14 वर्ष तक जब राम वनवासी रहेंगे तो इतने दिनों में 'पुन्न' भरत-प्रजा का स्नेह-भाजन हो जायेगा और प्रजा के हृदय में स्थान पा लेने पर वह भरत स्थिर हो जायेगा.
फिर उसका राज्य किसी के हिलाये न हिलेगा. "राम को यदि क्रोध करना या लड़ना था तो अपने पिता से निबटते, जिन्होंने उनका अधिकार नष्ट किया.
फलतः यह सिद्ध है कि भरत का राज्य निष्कण्टक था. उनके नाना ने ही इसका बीज बो रखा था. मन्थरा ने उसे अंकुरित और पल्लवित किया था, कैकेयी ने उसे पुष्प-फल- सम्पन्न बनाया था और भरत केवल उसके उपभोग के अधिकारी थे. माता उन्हें राज्य दे रही थी, पिता ने उन्हें राज्य देने की बात कहकर ही प्राण छोड़े थे, वशिष्ठ आदि समस्त ऋषिगण और मन्त्रिगण उनके राज्याभिषेक की तैयारी किये बैठे थे. सम्पूर्ण सामन्त लोग चुपचाप यह दृश्य देखने को प्रस्तुत थे.
इससे स्पष्ट है कि भरत ने किसी राजनीतिक कारण से राज्य का परित्याग नहीं किया. राजनीतिक कारण तो उनके राज्य लेने के ही अनुकूल थे. अपनी दुर्बलता या अयोग्यता के कारण भी उन्होंने राज्य-त्याग नहीं किया था. किसी के डर से, लोकापवाद के भय से, साथियों के विरोध से या और किसी ऐसे ही कारण से उन्होंने राज्य नहीं छोड़ा था. वस्तुतः भरत के चरित्र में राजनीतिक बातों की खोज करना एक तरह से उनका अपमान करना है. भरत विशुद्ध भक्ति के अवतार हैं.
भरत का मूलमंत्र: मेरे तो राम दूसरा न कोई
”मेरे तो राम दूसरा न कोई” यही भरत का मंत्र रहा है. मातृपक्ष छोड़ा, मां छोड़ी, राज्य दौलत छोड़ी, सुख सम्पत्ति छोड़ी, एक रामनाम से सब संसार छोड़ा, अपना पराया छोड़ा. इसी से हम कहते हैं कि भरत में राजनीतिक बातों को ढूंढ़ना उनके चरित्र का अपमान पर पवित्र गंगा की धारा में शेर की मांद ढूंढ़ना हैं. दशरथ ने कैकेयी को समझाते बहुत ठीक कहा था कि “रामादपि हितं मन्ये धर्मतो” अर्थात धर्म में भरत को मैं राम से भी बढ़कर समझता हूं. राम के बिना भरत कभी राज्य स्वीकार न करेंगे. राम के चरित्र में राजनीति और धर्मनीति की गंगा-यमुना बहती हैं, परन्तु भरत का चरित्र तो पवित्र गङ्गोत्तरी है.
जितनी प्रतिकूल परिस्थिति का सामना,जिस धैर्य के साथ भरत ने किया, उतनी सफलता के साथ रामायण का कोई दूसरा पात्र कर सकता या नहीं, इसमें सन्देह ही है. भरत जब नाना के यहां से बुलवाये गये तो सीधे कैकेयी के पास पहुंचे. नगर और राजमहल के शोक मिश्रित सन्नाटे को देखकर वह कुछ खटक तो गये ही थे, जाते ही उन्होंने दशरथ,राम आदि के सम्बन्ध में पूछताछ शुरू की.
अभिषेक्ष्यति रामं तु राजा यज्ञं नु यक्ष्यति । इत्यहं कृतसंकल्पो हटो यात्रामयाशिषम् ।। तदिदं ह्यन्यथाभूतं व्यवदीर्ण मनो मम । पितरं यो न पश्यामि नित्यं प्रियहिते रतम् ।। यो मे भ्राता पिता बन्धुर्यस्य दासोऽस्मि संमतः । तस्य मां शीघ्रमाख्याहि रामस्याक्लिष्टकर्मणः ।। पिता हि भवति ज्येष्ठो धर्ममार्यस्य जानतः । तस्य पादौ ग्रहीष्यामि स हीदानीं गतिर्मम।। (वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 72. 27-28,32-33)
अर्थात मैं तो यह सोचकर चला था कि या तो राजा (दशरथ) श्रीराम का अभिषेक करेंगे या कोई यज्ञ करेंगे. परन्तु यहां तो मैंने कुछ और ही देखा, जिससे मेरा हृदय विदीर्ण हो गया. आज मैं अपने प्रिय और हितचिन्तक पिता जी को नहीं देख रहा हूं. जो मेरे भाई, पिता, बन्धु आदि सब कुछ हैं, जिनका मैं दास हूं, उन श्रीराम का पता मुझे शीघ्र बताओ. बड़ा भाई पिता के सदृश होता है, मैं राम के पैरों पडूंगा, आज वही मेरे लिये सब कुछ हैं.'
जब कैकेयी ने कहा कि राम को वनवास दे दिया गया, तो भरत डर गये. उन्हें सन्देह हुआ कि राम से कोई अनुचित कार्य तो नहीं हो गया जिसका यह दण्ड मिला. लेकिन कैकेयी ने बताया कि “यह सब कुछ मैंने तुम्हारे लिये किया है. तुम अब राजगद्दी पर बैठो” इत्यादि. इसके उत्तर में भरत ने जो कुछ कहा है, उसमें आप भरत के हृदय का सच्चा चिन्ह देख सकेंगे और भरत के पवित्र चरित्र का अविकल रूप पा सकेंगे. सुनिये-
दुखी होकर भरत बोले कि शोक सन्तप्त मेरे जैसा अभागा राज्य लेकर क्या करेगा, जो आज पिता से भी हीन है और पितृतुल्य बड़े भाई से भी हीन है. कैकेयी, तूने मुझे दुःख पर दुःख दिया, तूने मेरे कटे पर नमक छिड़का, राजा को मारा और राम को वनवास दिया. मैं समझता हूं कि तुझे यह मालूम नहीं है कि मेरा राम के प्रति कैसा भाव हैं, इसी कारण तूने राज्य के लोभ से यह अनर्थ किया. मैं राम और लक्ष्मण के बिना किसके बल पर राज्य करूंगा? अच्छा, यदि बुद्धि और नीति के बल पर मैं राजकाज चला सकता हूं तो भी मैं तेरा मनोरथ पूरा न होने दूंगा. तू अपने पुत्र को राजा देखना चाहती है, लेकिन मैं तुझे यह न देखने दूंगा. यदि राम तुझे सदा माता के तुल्य न समझते होते तो आज तुझ जैसी पापिनी का त्याग करने में भी मुझे कोई संकोच न होता.
कैकेयी, तू राज्य से भ्रष्ट हो, अरी दुष्टा, क्रूरे ! तू धर्म से पतित है, ईश्वर करे, मैं मर जाऊं और तू मेरे लिये रोया करे. तू माता के रूप में मेरी शत्रु है. तूने राज्य के लोभ से पति की हत्या की है. तू मुझसे बात न कर. तू याद रख, पिता और भाई के प्रति जो तूने पाप किया है, मैं उसका पूरा प्रायश्चित्त करूंगा और अपना यश भी बढ़ाऊंगा. राम को राज्य देकर मैं अपना पाप धोऊंगा और तब अपने को कृतकृत्य समझूंगा.'
इस वर्णन में आप देखेंगे कि कैकेयी के कृत्य से भरत को मर्मान्तक वेदना हो रही है. वह अपने राजनीतिक हितैषी को सीधे शत्रु कहकर पुकार रहे हैं. उनका हृदय धार्मिक भावना से परिपूर्ण हैं. उनको राज्य दिलाने के लिये उनकी माता ने जो कार्य किया है उसे वह घोर पाप समझ रहे हैं एवं इसके प्रायश्चित के लिये अपनी मृत्यु मांग रहे हैं.
भरत ने इस अवसर पर सबका सब दोष माता के ऊपर ही रखा है. पिता दशरथ के विरुद्ध उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा. यह भी भरत के चरित्र की एक विशेषता है. लक्ष्मण और शत्रुघ्न ने तो बड़े स्पष्ट शब्दों में चाहे परोक्ष में ही सही दशरथ को खरी-खोटी सुनायी है, परन्तु भरत के मुंह से उनके लिये एक भी कटु शब्द नहीं निकला. यों तो राम की भी पितृभक्ति आदर्श है. उचित अनुचित का विचार छोड़कर, पिता की आज्ञा का पालन जैसा राम ने किया वैसा कोई क्या करेगा! परन्तु राम के पीछे दशरथ ने भी तो अपने प्राण तक गंवा दिये थे. अपनी प्राणाधिक प्रियतमा कैकेयी को भी उन्होंने राम के पीछे ही तिलाञ्जलि दी थी. यह बात कही जा सकती है कि दशरथ राम को प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे, परन्तु भरत के सम्बन्ध में यही बात नहीं कही जा सकती.
भरत राम के प्रेम में सराबोर थे. उनके सर्वस्व राम थे. राम के पसीने की जगह भरत खून गिराने को तैयार हो जाता था. राम का प्रेम ही उनका प्रेमपात्र था और राम विपक्षी उनका घोर शत्रु था. वह तो राम के प्रेम के भूखे थे.
हन्यामहमिमां पापां कैकेयीं दुष्टचारिणीम् । यदि मां धार्मिको रामो नासूयेन्मातृधातकम् ।।
(वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 78.22)
अर्थ:– मैं इस पापी और दुष्ट कैकेयी को मार डालूंगा यदि धर्मात्मा राम मुझसे ईर्ष्या न करते तो मैं अपनी माता का विनाशक बन जाता.
इन बातों से स्पष्ट है कि भरत का पवित्र हृदय राम की भक्ति में तल्लीन और राम के प्रेम में न था. उनका यही मंत्र था कि 'मेरे तो एक रामनाम दूसरा न कोई'.
कैकेयी से मिलने पर जब भरत को सब बातें मालूम हुई और भरत के आने की खबर कौसल्या के कान तक पहुंची तो वह भी सुमित्रा के साथ रोती, कलपती और कांपती हुई वहीं पहुंचीं. अब वहीं से भरत की कठोर परीक्षाएं आरम्भ होती हैं. भरत इन्हें किस धैर्य और कितनी दृढ़ता से पार करते हैं, यह आप आगे देखेंगे-
भरतं प्रत्युवाचेदं कौसल्या भृशदुःखिता ।। इदं ते राज्यकामस्य राज्यं प्राप्तमकण्टकम् । सम्प्राप्तं बत कैकेय्या शीघ्रं करेण कर्मणा ।। क्षिप्रं मामपि कैकेयी प्रस्थापयितुमर्हति ।। अथवा स्वयमेवाऽहम् ... कामं वा स्वयमेवाद्य तत्र मां नेतुमर्हसि । इदं हि तत्र विस्तीर्ण धनधान्यसमाचितम् । हस्त्यश्वरथसम्पूर्ण राज्यं निर्यातितं तया ।। इत्यादिबहुभिर्वाक्यैः कूरैः संमर्टिसतोऽनघः । विव्यथे भरतस्तीनं ब्रणे तुखेन सूचिना ।। पपात चरणौ तस्यास्तदा सम्भ्रान्तचेतनः । विलप्य बहुधाऽसंज्ञो लब्धसंशस्तदानवत् ।। (वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 75.10–13)
अर्थ:– आर्या मनस्विनी कौसल्या भी दुःख से रो पड़ीं और उन्हें छाती से लगाकर अत्यन्त दुःखित हो भरत से इस प्रकार बोलीं- "बेटा ! तुम राज्य चाहते थे न? सो यह निष्कण्टक राज्य तुम्हें प्राप्त हो गया; किंतु खेद यही है कि कैकेयी ने जल्दी के कारण बड़े क्रूर कर्म के द्वारा इसे पाया है. क्रूरतापूर्ण दृष्टि रखने वाली कैकेयी न जाने इसमें कौन-सा लाभ देखती थी कि उसने मेरे बेटे को चीर वस्त्र पहनाकर वन में भेज दिया और उसे वनवासी बना दिया. अब कैकेयी को चाहिये कि मुझे भी शीघ्र ही उसी स्थान पर भेज दे, जहां इस समय सुवर्णमयी नाभि से सुशोभित मेरे महायशस्वी पुत्र श्रीराम हैं. अथवा सुमित्रा को साथ लेकर और अग्निहोत्र को आगे करके मैं स्वयं ही सुखपूर्वक उस स्थान को प्रस्थान करूंगी, जहां श्रीराम निवास करते हैं. यह धन-धान्य से सम्पन्न तथा हाथी, घोड़े एवं रथों से भरा-पूरा विस्तृत राज्य कैकेयी ने (श्रीराम से छीनकर) तुम्हें दिलाया है. इस तरह की बहुत-सी कठोर बातें कहकर जब कौसल्या निरपराध भरत की भर्त्सना की, तब उनको बड़ी पीड़ा हुई; मानो किसी ने घाव में सूई चुभो दी हो.
राम-वनवास पर व्याकुल कौसल्या की दयनीय दशा देखकर भरत का कोमल हृदय दुःख से कातर हो उठा. उनका कांपना, कलपना और बिलखना देखकर भरत घबरा गये और जब उन्होंने देखा कि कौसल्या राम-वनवास का कारण उन्हीं (भरत) को समझ रही हैं तब तो उनके दुःख का पारावार न रहा. कौसल्या के कठोर आक्षेपों से भरत का चित्त विचलित हो गया और वह मूर्छित होकर कौसल्या के चरणों पर गिर पड़े. जब होश में आये तो आंसू भरे नेत्र और कण्ठ पे 'हा राम' 'हा राम' कहकर इधर उधर पागलों की भांति ताकने लगे. उन्होंने कौसल्या को विश्वास दिलाने के लिये सैकड़ों शपथें ऐसी ऐसी कड़ी शपथें की जिन पर पत्थर का भी कलेजा दहल जाये. जिसकी अनुमति या जानकारी में राम को वनवास हुआ हो, वह रण में भागता हुआ मारा जाये, घोर से घोर पाप का फल उसे भोगना पड़े इत्यादि. भरत की इस दशा को देखकर कौसल्या के हृदय पर गहरी चोट लगी। उन्होंने स्पष्ट देखा कि भरत को राम के वियोग का दुःख उनसे (कौसल्या से) कम नहीं है और उनके अनुचित आक्षेपों ने भरत के हृदय को व्याकुल कर दिया है. इससे कौसल्या भी घबरा गयीं और भरत को गोद में बिठाकर स्वयं रोने लगीं. उन्होंने कहा-
मम दुःखमिदं पुत्र भूयः समुपजायते । शपथैः शपमानो हि प्राणानुपरुणत्सि मे।। दिष्टया न चलितो धर्मादात्मा ते सहलक्षणः । वत्स सत्यप्रतिशो हि सतां लोकानवाप्स्यसि । इत्युक्त्वा चाङ्कमानीय भरतं भ्रातृवत्सलम् । परिष्वज्य महाबाई रुरोद भृशदुःखिता।।
(वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 75.60-63)
अर्थ:–'बेटा! तुम अनेकानेक शपथ खाकर जो मेरे प्राणों को पीड़ा दे रहे हो, इससे मेरा यह दुःख और भी बढ़ता जा रहा है. 'वत्स! सौभाग्य की बात है कि शुभ लक्षणों से सम्पन्न तुम्हारा चित्त धर्म से विचलित नहीं हुआ है. तुम सत्यप्रतिज्ञ हो, इसलिये तुम्हें सत्पुरुषों के लोक प्राप्त होंगे. ऐसा कहकर कौसल्या ने भ्रातृभक्त महाबाहु भरत को गोद में खींच लिया और अत्यन्त दुःखी हो उन्हें गले से लगाकर वे फूटकर रोने लगीं.
यह भरत की सबसे प्रथम और सबसे कठिन परीक्षा थी. यदि उनके हृदय में राम के प्रति अनन्त प्रेम न होता, यदि उनके व्यवहार में विशुद्ध धार्मिकता को छोड़कर कहीं ज़रा भी राजनीतिक चालों की गन्ध होती तो राम की माता- के हृदय को इतनी जल्दी दया कर लेना उनके लिये सम्भव ही नहीं था. भरत के चरित्र की यह सर्वोत्तम विजय हुई.
कुछ तो दशरथ की प्रतिज्ञा के कारण और कुछ राम- वनवास के कारण भरत की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गयी थी. बच्चा बच्चा उन्हें सन्देह की दृष्टि से देखने लगा था. पद-पद पर लोग उन्हें राम का विपक्षी रुमझने लगे थे.
राम के एक अनन्य भक्त को इससे बढ़कर दुःख क्या हो सकता था कि एक निषाद से लेकर बड़े से बड़े महर्षिं तक, बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी स्त्री-पुरुष उसे शंका की दृष्टि से- रामविरोधी की दृष्टि से देखने लगें. निषाद का यह कथन कि यदि उसके मन में कोई पाप न हुआ तब तो उसकी सेना पार उतार दी जायेगी, अन्यथा पहले हम सब लोग यहां मर मिटेंगे तब फिर राम पर आंच आयेगी. हमारे जीते जी कोई राम का बाल बांका न कर सकेगा.'
भरत के भाव को उन्होंने कितना उलटा समझा है? यह ठीक है कि निषादराज राम के ऊपर अपने प्राण देने को तैयार हैं, हमें देखना यही है कि आज परिस्थिति कितनी प्रतिकूल हो उठी है. आज उनके अमृतमय हृदय हर कोई विषमय समझने लगा है. भरत ने इसी प्रतिकूल परिस्थिति को सर्वथा अनुकूल बनाने का बीड़ा उठाया है.
निषादराज गुह भी बड़े अच्छे राजनीतिज्ञ थे. भरत की जितनी खोद-खोदकर परीक्षा इन्होंने की उतनी किसी ने नहीं की. इनकी हर एक चाल से राजनीतिज्ञता टपकती है. अभी आप देख चुके हैं कि यह अपने अनुचरों से क्या कह रहे थे. अब आगे देखिये कि भरत के सामने भेंट पेश करते हुए कैसे 'भीगी बिल्ली' बने बैठे हैं.
आगम्य भरतं प्रह्लो गुष्हो वचनमब्रवीत् ।। निष्कुटश्चैव देशोऽयं वञ्चिताश्वापि ते वयम् ।। निवेदयाम ते सबै स्वके दारागृहे वस । अस्ति मूलफले चैतत् निषादैः स्वयमर्जितम् ।।आर्शस स्वाशिता सेना वत्सत्यत्वेनां विभावरीम्।। (वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड अध्याय क्रमांक 84)
'भरत के पास आकर बड़ी नम्रता से 'गुह'ने कहा कि इन जंगलों को आप अपने घर-आंगन का बगीचा समझिये. आप हमलोगों को सेवा करने से वंचित कर दिया. 'यह स्थान सब आप ही का तो है. वहीं ठहरना चाहिये आपके दासों का लाया हुआ कन्द, मूल, फल और जङ्गल की छोटी बड़ी चीजें उपस्थित हैं.
इसी बातचीत में जब उसने कहा कि 'यह जङ्गल तो बड़ा दुर्गम होता है. तुम यह बताओ कि भरद्वाज मुनि के आश्रम को किस ओर से जाएं ?' इस पर कहा कि 'इस देश से जानकारी रखने वाले सैकड़ों निषाद तुम्हरे साथ जायेंगे. मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगा, परन्तु यह बताओ कि तुम्हारा हृदय तो शुद्ध है न? तुम किस भाव से धर्मात्मा राम के पास तो नहीं जा रहे हो तुम्हारी यह इतनी बड़ी सेना देखकर मुझे सन्देह होता है. यदि तुम्हारा हृदय दोषरहित है तो थोडे से आदमी लेकर राम के पास जा सकते थे. इस इतनी बड़ी फौज का क्या काम ?'
कचिन्न दुष्टो व्रजसि रामास्याक्लिष्टकर्मणः । इयं ते महती सेना शङ्कां जनयतीव मे ।। (वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 85.7)
तमेवमभिमापन्तमाकाश इव निर्मलः । भरतः लक्ष्णया वाचा गुहं वचनमब्रवीत् ।। मा भूत्स कालो यत्कष्टं न मां शङ्कितुमर्हसि । राधनः सहि मे आता ज्येष्ठः पितृसमो मतः ।। तं निवर्तयितुं यामि काकुत्स्यं वनवासिनम् । बुद्धिरन्या न मे कायी गुह सत्यं ब्रवीमि ते ।। (वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 85.8-10)
भरत ने बड़ी शान्तिपूर्वक मधुर भाषा में उत्तर दिया कि 'निषादराज, वह समय न आये कि मैं उस समय के लिये जीता न रहूं जिस अनिष्ट की तुम आशंका कर रहे हो. राम मेरे ज्येष्ठ भ्राता हैं, मैं उन्हें पिता तुल्य समझता हूं. उन्हें वनवास से वापस लाने के लिये जा रहा हूं मैं सत्य कहता हूं, तुम मेरी बात को अन्यथा न समझो.'
राम के वियोग से अति दुखी, दीन, मलीन भरत की बातचीत से जब गुहको निश्चय हो गया कि भरत के मन में कोई पाप नहीं है तब वह बोले-
धन्यस्त्वं न त्वया तुल्यं पश्यामि जगतीतले । अयत्नादागतं राज्यं यस्त्वं त्यक्तु मिहेच्छसि ।। शाश्वती खलु ते कीर्तिलोंकाननु चरिष्यति । यस्त्वं कृच्छ्रगतं रामं प्रत्यानयितुमिच्छसि ।। (वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 85.12-13)
'भरत, तुम धन्य हो, तुम्हारे समान धर्मात्मा पृथ्वी पर दूसरा नहीं है जो बिना यत्न के ही मिले हुए राज्य का त्याग कर रहे हो. तुम्हारी यह कीर्ति संसार में अमर रहेगी जो आज तुम वनवासी राम को कष्ट से छुड़ाने के लिये जा रहे हो.'
यहां आप देखेंगे कि निषाद की कठोर बात सुनकर भी भरत अधीर नहीं हुए. उन्हें ज़रा भी क्रोध नहीं आया. उन्होंने इस जंगली की धृष्टता से अपना अपमान नहीं समझा. भला एक मामूली मल्लाह की यह मजाल कि वह चक्रवर्ती के पुत्र भ्रातृवत्सल भरत पर सन्देह करे और तपाक से पूछ बैठे कि 'क्यों भला, तुम्हारे मन में कोई पाप तो नहीं है?' फिर राजकुमार इस बेहूदगी पर ज़रा भी न बिगड़े. प्रत्युत एक साधारण आदमी की तरह गिड़गिड़ाकर अपनी सफाई देने लगे.
भरत को आर्य सुमंत्र ने बता दिया था कि निषादराज राम का मित्र है. उन्होंने उसे (गुह को) 'मम गुरोः सखे' मेरे गुरु राम के मित्र कहकर सम्बोधन किया था, फिर वह उसका आदर क्यों न करते? इसके अतिरिक्त भरत अपनी परिस्थिति समझते थे. वह जानते थे कि एक गुह ही नहीं, बल्कि प्रजा उन्हें सन्देह की दृष्टि से देख रहा है. इसी प्रतिकूल भावना को बदलने के लिये तो उनका यह प्रयास था.
निषाद ने इतनी परीक्षा से ही भरत का पीछा नहीं छोड़ा. उसने उनकी और भी कड़ी जांच की. लक्ष्मण के साथ इसी जगह जो गुह की बातचीत हुई थी और राम को पार उतारते समय जो-जो घटनाएं घटी थीं, उनका गुह ने ऐसे मार्मिक शब्दों में वर्णन किया कि उसे सुनकर भरत मूर्च्छित हो गये.
इसके साथ ही गुह ने इसी अवसर पर बड़ी कुशलता से भरत को अपनी शक्ति का भी परिचय करा दिया था, उसने साफ सूचित कर दिया था कि इस घोर जङ्गल का चप्पा-चप्पा भर जमीन मेरी मंझाई हुई हैं. मैं चाहूं तो बड़ी से बड़ी सेना को इसमें भटका-भटका के मार सकता हूं.
यह सब बताने और सब तरह भरत की परीक्षा कर लेने के बाद भी गुह ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. उसे इस बात से सन्तोष नहीं हुआ कि भरत को रास्ता बताने के लिये कुछ आदमी उनके साथ कर दे या थोड़े-से आदमी लेकर स्वयं ही चला जाये. वह अपनी समस्त फौज लेकर भरत के साथ अन्तिम स्थान तक गया.
माना कि उस समय भरत का भाव ठीक था, परन्तु थे तो वह कैकेयी के ही पुत्र. राम से बातचीत होते होते ही कहीं मनमुटाव हो गया और किसी बात पर वहां खटक गयी तब? तब क्या वह अपने 'स्वामी और सखा' राम- को अकेले ही सेना सहित भरत से भिड़ने देगा? यह कैसे हो सकता है? इसलिये तो दल-बल-सहित निषादराज बड़ी सतर्कता से भरत का पीछा कर रहे थे. वस्तुतः निषाद के चरित्र में राजनीति-कुशलता के साथ साथ मित्र-प्रेम और स्वामी-भक्ति का सच्चा चित्र देखने को मिलता है. इसी से तो हम कहते हैं कि भरत की परीक्षा निषाद ने जितनी खोद-खोद के की उतनी किसी ने नहीं की, परन्तु भरत का चरित्र जितना जितना अग्नि-परीक्षा में तपता गया, उतना ही उतना कुन्दन के समान दमकता गया और तो और, दूर ही बैठे बैठे सब के हृदय को परखने की शक्ति रखने वाले, ऋद्धि-सिद्धि-सम्पन्न, त्रिकालदर्शी महर्षि भरद्वाज भी बेचारे भरत पर चोट करने से न चूके. वह भरत से पूछते हैं-
किमिहागमने कार्य तव राज्यं प्रशासतः । एतदाचश्व सर्वं मे नहि मे शुध्यते मनः ।। सुषुवे यममित्रनं कौसल्यानन्दवर्धनम् । भ्रात्रा सह सभार्याऽयं चिरं प्रव्राजितो वनम् ।। नियुक्तः खीनिमित्तेन पित्रा योऽसौ महायशाः । वनवासी भवेतीह समाः किल चतुर्दश ।। कचिन्न तस्याऽपापस्य पापं कर्तुमिहेच्छास । अकण्टकं मोक्तुमना राज्यं तस्यानुजस्य च ।।
(वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 90.10–13)
'तुम तो राज्य का शासन कर रहे थे, भला तुम्हारे यहां आने का क्या मतलब? मुझ से साफ साफ कहो. मेरा मन विश्वास नहीं करता. जिन बेचारे राम को कैकई के कहने से तुम्हारे पिता ने राम को 14 वर्ष का वनवास दे दिया है उन्हीं पाप रहित राम के प्रति तुम अपने मन में कुछ पाप तो नहीं रखते हो? कहीं निष्कण्टक राज्य भोगने की इच्छा से उनका वध करने के लिये ही तो तुम इतनी बड़ी सेना लेकर चढ़ाई नहीं कर रहे हो?'
वज्र से भी कठोर और बाण की नोक से भी पैने इन शब्दों को सुनकर भातृवत्सल भरत के कोमल मन की क्या दशा हुई होगी, इसका अनुमान पाठक स्वयं कर लें. कैसी भयानक अवस्था है?
एक उवाच तं भरद्वाजः प्रसादादू भरतं वचः । त्वय्येतत्पुरुषव्याघ्र युक्तं राघववंशजे । गुरुवृत्तिर्दमश्चैव साधूनां चानुयायिता ।। जाने चेतन्मनःस्थं ते दृढीकरणमस्त्विति । अपृच्छं त्वां तवात्यर्थ कीर्ति समभिवर्धयन् ।। (वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 90.20-21)
अर्थ: – हे भरत ! तुम रघुवंशी हो. तुममें ऐसे सद्भाव ही चाहिये. बड़ों की भक्ति, इन्द्रियों का दमन और सजा का अनुगमन यह सब तुममें होने ही चाहिये. मैं तुम्हारे मन की सब बातें पहले से ही जानता था, परन्तु तुम्हारे भावों को दृढ़ करने और तुम्हारी कीर्ति बढ़ाने के लिये तुम से यह प्रश्न किया था.
बात ठीक है, हमारी सम्मति में यह परीक्षा भरत के योग्य थी और भरत ही इस परीक्षा के योग्य थे एवं भरत जैसे महर्षि ही इस कठिन परीक्षा के परिक्षक होने योग्य हैं. हम भरत के इस पवित्र चरित्र का स्मरण करने में अपना धन्यभाग्य समझते हैं.
भरद्वाज के पूछने पर जब भरत ने अपनी सब माता का परिचय उनको दिया और उस समय दुःखावेश में आ कैकेयी को कुछ सख्त सुस्त कहा तब महर्षि ने रामवनवास के दैवी कारणों की ओर भी इशारा कर दिया था. उन्हे साफ कहा था-
न दोषेणावगन्तव्या कैकेयी भरत त्वया । रामप्रव्राजनं ह्येतत्सुखोदर्क भविष्यति।
(वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 92.29)
हे भरत, तुम रामवनवास में कैकेयी का दोष न समझो. राम के वन जाने से संसार का कल्याण होगा.
भरत की परीक्षाओं का यहीं अन्त हो गया हो सो बात नहीं है. भरद्वाज के आश्रम से जब वह सेना सहित चित्रकूट के पास पहुंचे तो इतनी बड़ी सेना की कल-कल और आकाश में उठी धूल को देखकर राम ने लक्ष्मण से कहा कि ज़रा देखो तो यह किसकी सेना है. लक्ष्मण ने एक ऊंचे-से साल वृक्ष पर चढ़कर भरत की सेना देखने के बाद जो कुछ कहा उसे सुनिये -
शशंस सेनां रामाय वचनं चेदमब्रवीत् ।। अग्निं संशमयत्वार्यः सीता च भजतां गुहाम् : सज्यं कुरुष्व चापं च शरांश्च कवचं तथा ।
(वाल्मिक रामायण अयोध्या काण्ड 96.13-14)
अर्थ: –आप (राम) जल्दी से आग बुझा दीजिये. सीता को किसी गुफा में भेज दीजिये, कवच पहन लीजिये और धनुष-बाण लेकर तैयार हो जाइये. जंगल में धुंआ उठता देखकर वहां रहने वाले मनुष्यों का पता शीघ्र लग जाता है, इसी से लक्ष्मण ने आग बुझाने को कहा है.
जब राम ने कहा कि ज़रा यह तो देखो कि यह सेना है किस की, तब धधकती हुई अग्नि की तरह क्रोध में भरे लक्ष्मण बोले- 'मालूम होता है कि राज्याभिषेक हो जाने के बाद अपने राज्य को निष्कण्टक बनाने के निमित्त कैकेयी का पुत्र भरत हम दोनों को मारने के लिये आ रहा है. रथ में कोविदार की ध्वजा है. आज यह हमारे काबू में आयेगा. जिस भरत के कारण इतना दुःख मिला है, उसे मैं आज समझूंगा. जिसके कारण आप अपने पैतृक राज्य से च्युत हुए हैं वह शत्रु (भरत) तो अवश्य ही वध के योग्य हैं. भरत के वध में कोई दोष नहीं है. अपने पुराने अपकारी को मारने में पाप नहीं लगता. राज्य की लोभिन कैकेयी आज देखेगी की उसका पुत्र मेरे द्वारा उसी प्रकार मरोड़ा जा रहा है जैसे कोई मस्त हाथी किसी वृक्ष को तोड़-मरोड़कर फेंक दे.
लक्ष्मण को क्रोधान्ध देखकर राम ने उनको शांत किया और भरत की एक और अग्नि परीक्षा होते होते रह गयी. राम बोले कि 'देखो लक्ष्मण, जब भरत स्वयं आये - तो फिर धनुष-बाण और ढाल-तलवार की आवश्यकता कहां है? जब मैं पिता के सामने राज्य छोड़ने की प्रतिज्ञा कर चुका तब फिर भरत के वध से कलंकित राज्य लेकर में क्या करूंगा?
'लक्ष्मण, भरत किसी दुर्भाव से नहीं आ रहे हैं. उन्होंने जब मेरे तुम्हारे और सीता के वनवास की बात सुनी होगी तब स्नेह और शोक से व्याकुल हो उठे होंगे. वह हम लोगों से मिलने आ रहे हैं, किसी बुरी नियत से नहीं. माता कैकेयी से अप्रसन्न होकर पिता को प्रसन्न करके भरत मुझे राज्य देने के विचार से आ रहे हैं. भरत के मन में कभी हम लोगों की बुराई नहीं आ सकती. क्या उन्होंने कभी तुम्हारे साथ कोई घात किया है? फिर आज तुम्हारे मन में ऐसी शंका और भय क्यों उठ रहे हैं? खबरदार, भरत के लिये कोई कटु-वाक्य न कहना. उनके प्रति कहा हुआ तुम्हारा अपशब्द मुझे लगेगा. यदि राज्य के लिये तुम ये बातें कह रहे हो तो भरत को आने दो, मैं उनसे कहकर राज्य तुम्हें दिला दूंगा. यदि मैं भरत से कहूं कि लक्ष्मण को राजगद्दी दे दो तो यह निश्चय है कि वह 'बहुत अच्छा' के सिवा और कुछ न कहेंगे’. राम की इन बातों ने लक्ष्मण को पानी-पानी कर दिया. वह लज्जा के मारे जमीन में गड़ गये. फिर उन्होंने भरत के विरुद्ध कभी आंख न उठायी.
उधर लक्ष्मण का तो ऐसा भाव था और इधर भरत को देखिये कि उनकी क्या दशा थी-
यावन्न रामं द्रक्ष्यामि लक्ष्मणं वा महाबलम् । वैदेहीं वा महाभागां न मे शान्तिर्भविष्यति ।।
(वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 98.16)
भरत की बराबर यही रट थी कि जब तक मैं राम, लक्ष्मण और सीता के दर्शन न कर लूंगा तब तक मेरे व्याकुल हृदय को शान्ति नहीं मिल सकती. जिन भरत के सम्बन्ध में लक्ष्मण समझते थे कि वह हमें मारने को आ रहे हैं, छत्र, चामर धारण करके राजा भरत हमारा वध करने के लिये सेना लेकर यहां पहुंचे हैं, वही भरत जब राम के सामने पहुंचे तो उनकी क्या दशा थी-
जटिलं चीरवसनं प्राञ्जलिं पतितं मुवि । दूरदर्शी रामो दुर्दर्श युगान्ते भास्करं यथा ।।
(वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 100.1)
दुःखामिततो भरतो राजपुत्रो महाबलः ।उक्त्वार्येति सकृद्दीनं पुननोवाच किंचन ।।
(वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 99.38)
भरत एक अपराधी की भांति हाथ जोड़े घबराते तथा कांपते हुए राम के पास पहुँचे और पहुंचते ही मूर्छित होकर उनके चरणों पर गिर पड़े. उस समय भरत के मुंह से 'हा आर्य' के अतिरिक्त और कोई शब्द नहीं निकल सका.
राम ने उठ के भरत को उठाया, प्रेमपूर्वक गोद में बिठाया और इसके बाद जो जो बातचीत हुई वह सभी जानते हैं। जब भरत किसी प्रकार राज्य लेने को राजी न हुए तो राम ने इतना मंजूर किया कि-
अनेन धर्मशीलेन बनात्प्रत्यागतः पुनः । भ्रात्रा सह भविष्यामि पृथिव्याः पतिरुत्तमः ।।
(वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 111.31)
'वन से लौटकर मैं धर्मात्मा भाई भरत के साथ राज्य स्वीकार करूंगा.' इधर ऋषियों ने देखा कि राम के ऊपर धीरे धीरे भरत का रंग चढ़ रहा है. उन्हें भय हुआ कि कहीं हमारा उद्देश्य ही नष्ट न हो जाये. इस कारण इसी समय ऋषिलोग बीच में कूद पड़े और उन्होंने भरत से कहा कि 'बस हो चुका, अब और ज्यादा जिद न करो. यदि तुम अपने पिता को सत्यवादी बनाये रखना चाहते हो तो राम की बात मान लो. इन्हें 14 वर्ष तक वन में रहने दो. बाद में तुम और यह मिलकर राज्य कर लेना’.
ततस्त्वृषिगणाः क्षिप्रं दशग्रीववधैषिणः । भरतं राजशार्दूलमित्यूचुः संगता वचः ।। आह्य रामस्य वाक्यं ते पितरं यद्यवेक्षसे ।।
(वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 112.5)
यदि भरत के कहने में आकर राम उसी समय राज्य स्वीकार कर लेते तब तो फिर राम के द्वारा रावण का वध कराने की जो योजना ऋषियों और देवताओ ने मिलकर तैयार की थी, वह सब धूल में मिल जाती.
यह सब कुछ होने पर भी भरत अपनी हठ से ना डिगे. उन्होंने कहा कि मैं अकेला इतने बड़े राज्य पर राज नहीं कर सकता. सब प्रजा आप ही को राजा चाहती हैं. आप इस राज्य को स्वीकार कर लीजिये. मैं आपके सेवक की हैसियत से आपके लौटने तक काम चलाता रहूंगा. दूरदर्शी भरत इसी आशय को ले सुवर्ण-पादुका तैयार करा के अपने लेते गये थे, वही उन्होंने पेश की और कहा:–
अधिरोहार्यपादाभ्यां पादुके हेममूषिते । एते हि सर्वलोकस्य योगक्षे!मं विधास्यतः ।। सोऽधिरुह्य नरव्याघ्रः पादुके व्यवमुच्य च । प्रायच्छत्सुमहातेजा भरताय महात्मने ।।
(वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 112.21)
हे आर्य ! आप इन खडाऊओं को पहनिये. ये ही की प्रतिनिधि होकर आपका राज्य सम्हालेंगी. राम ने खड़ाऊं पहनीं और फिर उतारकर भरत को दे दीं.
स पादुके संप्रणम्य रामं वचनमब्रवीत् । चतुर्दश हि वर्षाणि जटाचीरधरो ह्यहम् ।। फलमूलाशनो वीर भवेयं रघुनन्दन। तवागमनमाकाङ्क्षन् वसन् वै नगराद्बहिः ।। तव पादुकयोर्यस्य राज्यतन्त्रं परन्तप । चतुर्दशे हि सम्पूर्णे वर्षेऽहनि रघूत्तम ।। न द्रक्ष्यामि यदि त्वांतु प्रवेक्ष्यामि हुताशनम्।
(वाल्मिकी रामायण अयोध्या काण्ड 111.26)
अर्थ: –भरत ने पादुकाओं को प्रणाम किया और राम से कि 'चौदह वर्ष तक मैं एक वनवासी तापस के समान चीर-धारी होकर नगर से बाहर रहूंगा और आपकी प्रतीक्षा में फल-मूल से ही जीवन निर्वाह करूंगा. पादुकाओं को प्रतिनिधि समझो. यह राम की धरोहर है. जिस दिन ये पादुकायें और अयोध्या का राज्य, जो मेरे पास धरोहर के समान सुरक्षित रहेंगे, मैं भगवान् श्रीराम को वापिस दूंगा उसी दिन अपने को पाप से मुक्त समझूंगा.
भरत की इन बातों पर टीका टिप्पणी करना हम अनावश्यक समझते हैं. यहां किसी नीति को स्थान नहीं. यहां तो सरलता, पवित्रता और निर्मलता के साथ पवित्र प्रेम और विशुद्ध भक्ति की धारा बहती है. आप भी स्वयं विचार कीजिए की क्या भरत जैसा भाई अब तक पैदा हुआ हैं?
ये भी पढ़ें: त्रिदेव का रूप है ॐकार, जानें मंत्रों में सबसे अधिक प्रयोग होने वाले 'ॐ' का शास्त्रीय महत्व
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]