धार्मिक कथाओं में भोलेनाथ ने देवी पार्वती को कथा सुनाई कि सतयुग में ज्योतिरूप में मेरे अंश का रामेश्वर शिवलिंग था. ब्रह्मा आदि देवों ने उसका विधिवत पूजन-अर्चन किया था. इसका परिणाम यह हुआ कि मेरे अनुग्रह से वाणी देवी सबकी प्रिया हो गईं. वह भगवान विष्णु को सतत प्रिय हो गईं.


भोलेनाथ कथा सुनाते हुए कहते हैं कि विष्णु को वाणी प्रिय होने पर महालक्ष्मी रुष्ट हो गईं. श्रीशैल पर्वत पर जाकर तपस्या करने लगीं. महालक्ष्मी ने उत्तम स्थान का निश्चय करके शिव विग्रह की उग्र तपस्या शुरू कर दी. कुछ समय बाद महालक्ष्मी ने शिव विग्रह से थोड़ा उर्ध्व में एक वृक्ष का रूप धारण कर लिया. अपने पत्तों और पुष्प के जरिए निरंतर मेरा पूजन करने लगीं.


इस तरह महालक्ष्मी ने कोटि वर्ष (एक करोड़ वर्ष) तक घोर आराधना की. आखिरकार उन्हें अनुग्रह प्राप्त हुआ. उन्होंने वर मांगा कि श्रीहरि के हृदय में मेरे प्रभाव से वाग्देवी के लिए जो स्नेह हुआ है वह समाप्त हो जाए. तब भगवान शंकर ने समझाया कि श्रीहरि के हृदय में आपके अतिरिक्त किसी और के लिए कोई प्रेम नहीं है. वाग्देवी के प्रति उनका प्रेम नहीं अपितु श्रद्धा है. यह सुनकर लक्ष्मीजी प्रसन्न हो गईं. इस कारण हरिप्रिया उसी वृक्षरूप में सर्वदा अतिशय भक्ति से भरकर यत्नपूर्वक मेरी पूजा करने लगीं.


शिवजी ने कहा कि हे पार्वती, इसी कारण बिल्व का वृक्ष, उसके पत्ते, फलफूल आदि मुझे बहुत प्रिय है. मैं निर्जन स्थान में बिल्ववृक्ष का आश्रय लेकर रहता हूं. जो बिल्व पर चंदन से मेरा नाम अंकित करके मुझे अर्पण करता है मैं उसे सभी पापों से मुक्त करके अपने लोक में स्थान देता हूं. मेरी पूजा के लिए बेल के उत्तम पत्तों का ही प्रयोग करना चाहिए.