Brihadaranyakopanishad: बृहदारण्यकोपनिषद् क्या है ? शास्त्र और हमारे जीवन में इसका महत्व जानें
Brihadaranyaka Upanishad: उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है. उपनिषद् ही सभी भारतीय दर्शनों की जड़ माना जाता है. इसमें बृहदारण्यक उपनिषद् का क्या महत्व है जानें.
Brihadaranyaka Upanishad: उपनिषद् का अर्थ है- 'अध्यात्मविद्या'. 'उप' तथा 'नि' उपसर्गपूर्वक सद् धातुमें क्विप् प्रत्यय जोड़ने पर 'उपनिषद्' शब्द निष्पन्न होता है. जिसके परिशीलन से संसार को कारण भूता अविद्या का नाश हो जाता है, गर्भवासादि दुःखों से सर्वथा छुटकारा मिल जाता है और परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है, उसी का नाम उपनिषद् है.
उपनिषद् की संख्या अनेक और अनंत हैं. सब उपनिषद् की अपनी अपनी खासियत है, इनमे से बृहदारण्यकोपनिषद् को हमारे संत समाज ने बहुत महत्त्व देते है, इसलिए आज इसपर एक झलक डालेंगे.
बृहदारण्यक उपनिषद् यजुर्वेद की काण्वी शाखा के वाजसनेय ब्राह्मण के अन्तर्गत है. कलेवर की दृष्टि से यह समस्त उपनिषदों की अपेक्षा बृहत् है तथा अरण्य (वन) में अध्ययन की जाने के कारण इसे 'आरण्यक' कहते हैं. इस प्रकार 'बृहत्' और 'आरण्यक' होने के कारण इसका नाम 'बृहदारण्यक' हुआ है. वार्त्तिककार श्रीसुरेश्वराचार्य तो अर्थतः भी इसकी बृहत्ता स्वीकार करते हैं-
'बृहत्त्वाद्यथन्तोऽर्थाच्च बृहदारण्यक मतम्।' (सं० वा० ९)
उनकी यह उक्ति अक्षरशः सत्य है. उपनिषद्भाष्यों में इसे हम उनकी सर्वोत्कृष्ट कृति कह सकते हैं.
इस प्रकार सामान्य दृष्टि से विचार कर के अब हम संक्षेप में इसके कुछ प्रधान प्रसङ्गों का दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न करते हैं. ग्रन्थ के आरम्भमें अश्वमेध ब्राह्मण है. इसमें यज्ञीय अश्व के अवयवों में विराट् के अवयवों की दृष्टि का विधान किया गया है.
इसके कुछ आगे प्रजापति के पुत्र देव और असुरों के विग्रह का वर्णन है. इन्द्रियों की दैवी और आसुरी वृत्तियाँ देव और असुररूप से भी मानी जा सकती हैं. इन्द्रियां स्वभावतः बहिर्मुख ही हैं.
'पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूः।' (क० उ० २।१।१)
अतः सामान्यतः वैषयिक या आसुरी वृत्तियों की ही प्रधानता रहती है. इसी से असुरों को ज्येष्ठ और देवों को कनिष्ठ कहा गया है. पुण्य और पाप संस्कारों के कारण इन दोनों प्रकार की वृत्तियों का उत्कर्ष और अपकर्ष होता रहता है.
शस्त्रविहित कर्म और उपासना से दैवी वृत्तियों का उत्कर्ष होता है और उन्हें छोड़कर स्वेच्छाचार करने से आसुरी वृत्तियों का बल बढ़ जाता है. एक बार देवताओं ने उद्गीथ के द्वारा असुरों का पराभव करने का निश्चय किया. उद्गीथ एक यज्ञकर्म का अङ्ग है, उसके द्वारा उन्होंने आसुरी वृत्तियों को दबाने का विचार किया. उन्हों ने वाक्, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र और त्वक्के अभिमानी देवताओं से अपने लिये उद्गान करने को कहा.
उन देवताओं में से प्रत्येक ने अपने-अपने कर्मद्वारा दैवी वृत्तियों की प्रबलता के लिये उद्गान किया; किन्तु उस कर्म का कल्याणमय फल स्वयं ही भोगना चाहा। यह उनका स्वार्थ था. ऋत्विक् का धर्म है कि वह जो कुछ क्रिया करे उसका फल यजमान के लिये ही चाहे. यह स्वार्थ स्वयं ही आसुरी वृत्ति है, इसलिये उनका वह कर्म व्यर्थ हो गया.
अन्त में मुख्यप्राण से इस कर्म के लिये प्रार्थना की गयी. प्राण परम उदार और सर्वथा अनासक्त है. वह किसी भी विषय को स्वयं नहीं भोगता तथा उसकी कृपा से सारी इन्द्रियाँ अपने विषयों को भोगती हैं. अन्य सब इन्द्रियाँ सोती भी हैं और जागती भी, किन्तु प्राण सर्वदा सजग रहता है. अतः उसके उद्गान करने पर असुरों का दाँव बिलकुल खाली गया और देवताओं की विजय हुई.
इस आख्यायिका से श्रुति यही बताती है कि पापवृत्तियों का मूल वस्तुतः स्वार्थ ही है; जबतक हृदय में स्वार्थका कुछ भी अंश है तबतक जीव भोगासक्ति रूप पापमय बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता और जिसने स्वार्थ का सर्वथा त्याग कर दिया है उसपर संसार के किसी भी प्रलोभन का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता.
इसके बाद द्वितीय अध्याय के आरम्भमें दृप्तबालाकि गार्ग्य और अजातशत्रुका संवाद है. काशिराज अजातशत्रु तत्त्वज्ञ था और गार्ग्य दृप्त-ज्ञानाभिमानी था. उसने जब अजातशत्रु से कहा कि मैं तुम्हें ब्रह्म का उपदेश करता हूँ तो राजा ने उसे उसी क्षण एक सहस्र सुवर्णमुद्रा भेंट किये. इससे श्रुति यह सूचित करती है कि जो सच्चे महानुभाव होते हैं वे दूसरे के दोष की ओर न देखकर उसका आदर ही करते है.
साथ ही इससे ब्रह्मविद्या की महत्ता भी सूचित की है, जिसकी केवल प्रतिज्ञा करने पर ही गुणग्राही विद्वान्ने वक्ताके प्रति अपनी अनुपम उदारता व्यक्त कर दी. इसके पश्चात् गार्ग्य ने जिन-जिन आदित्यादिके अभिमानी पुरुषों में ब्रह्मत्व का आरोप किया, राजा अजातशत्रु ने उन्हें परिच्छिन्न दवमात्र बताकर उनकी उपासना का भी विशिष्ट फल बताते हुए उन सबका निषेध कर दिया.
इस प्रकार अपनी बुद्धि की गति कुण्ठित हो जाने से गार्ग्य का अभिमान गलित हो गया और उसने ब्रह्मज्ञान के लिये राजा की ही शरण ली. राजा उसका हाथ पकड़कर महल के भीतर ले गया और वहाँ सोये हुए एक पुरुष के पास जाकर प्राणके अभिमानी चन्द्रमा के 'बृहत्, पाण्डरवास, सोम, राजन्' इत्यादि नाम लेकर पुकारा. किन्तु इन नामोंसे पुकारनेपर वह पुरुष नहीं उठा. तब राजाने उसे हाथसे दबाया और वह तुरंत उठकर खड़ा हो गया. इस प्रसङ्गद्वारा श्रुति यह बताती है कि जितने भी नाम-रूपाभिमानी देव हैं वे वस्तुतः विज्ञानमय आत्मा नहीं है; विज्ञानात्मा नाम-रूपसे परे है.
सामान्यतया सर्वत्र व्याप्त होनेपर भी हृदयदेश में उसकी विशेष अभिव्यक्ति होती है. वस्तुतः वही सबका प्रेरक और सच्चा भोक्ता है, अन्य इन्द्रियाभिमानी देव भी उसीकी विभूतियाँ हैं, उसकी सत्ताके बिना उनकी स्वतन्त्र शक्ति कुछ भी नहीं है. इन्द्रियों को प्रेरित करनेके कारण ये प्राण हैं किन्तु प्राणोंका भी प्रेरक होनेसे वह प्राणों-का-प्राण है. इसी अध्यायके चौथे ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का संवाद है.
याज्ञवल्क्य की दो स्त्रियाँ थीं- मैत्रेयी और कात्यायनी. उनमें मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी और कात्यायनी स्त्रियों के समान बुद्धिवाली. सम्प्रदायभेद से इसी उपनिषद्में यह प्रसङ्ग चतुर्थ अध्याय के पञ्चम ब्राह्मण में फिर आया है. वहाँ इन दोनों के विषयमें यह बात स्पष्ट कही है.
जब याज्ञवल्क्य की इच्छा संन्यास लेनेकी हुई और उन्हों ने दोनों स्त्रियों को अपनी सम्पत्ति बाँटने का प्रस्ताव किया तो कात्यायनी के मुखसे तो कुछ निकला नहीं, क्योंकि वह प्रेयः कामिनी थी, उस धनमें ही उसका सारा सुख निहित था; किन्तु मैत्रेयी थी श्रेयः कामिनी.
उसने कहा, 'यदि धनसे भरी हुई यह सारी पृथिवी मेरी हो जाय तो क्या मैं अमर हो जाऊँगी?' 'याज्ञवल्क्य बोले- धन से अमरता की आशा तो नहीं की जा सकती; हाँ, सम्पन्न पुरुषों का जैसा भोगमय जीवन होता है वैसा ही तुम्हारा हो सकता है?' बस, अब मैत्रेयी को सच्ची कुंजी हाथ आ गयी और उसने कहा- 'जिससे मैं अमर नहीं हो सकती उसे लेकर मैं क्या करूँगी ? मुझे तो वही बात बताइये जिससे मैं अमर हो सकूँ.'
वस्तुतः यही विवेक और वैराग्य का सच्चा स्वरूप है, जिसके हृदय में यह वृत्ति जाग्रत् नहीं हुई वह किसी भी प्रकार परमार्थतत्त्व को ग्रहण नहीं कर सकता. मैत्रेयी की उत्कट जिज्ञासा देखकर भगवान याज्ञवल्क्य ने उसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया.
उन्होंने ब्रह्म और आत्मा का अभेद प्रतिपादन करते हुए आत्मा के लिये ही सबकी प्रियता, आत्मज्ञान से ही सबका ज्ञान, आत्मा से भिन्न किसी भी वस्तु को देखने में पराभव, आत्मा से ही सम्पूर्ण भूतों के उत्पत्ति और प्रलय तथा अज्ञान में ही अनात्मवस्तुओं की सत्ता बताकर अन्त में यह उपदेश किया कि जिसकी दृष्टि में सब कुछ आत्मा ही हो जाता है उसके लिये कर्ता, क्रिया और करण का सर्वथा अभाव हो जाता है.
वहाँ सूँघना, सुनना, मनन करना और जानना आदि कोई क्रिया नहीं रहती तथा वह आत्मतत्त्व किसी का ज्ञेय भी नहीं है, क्योंकि सबका ज्ञाता तो वह स्वयं ही है.
इसके आगे मधुब्राह्मण है. मधु अनेकों प्रकार के पुष्पों का सार या कार्य होता है तथा पुष्प उसके कारण होते हैं. मधु उपकार्य है और पुष्प उपकारक हैं. यह उपकार्य-उपकारकभाव ही इस ब्राह्मण में 'मधु' नाम से कहा गया है.
अतः यहाँ यह दिखाया है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, विद्युत् और दिशा आदि सभी पदार्थ चारों भूतों के कार्य हैं तथा भूत उनके कारण हैं. इस प्रकार उनका परस्पर उपकार्य-उपकारक सम्बन्ध है और इस नातेसे वे एक दूसरे के मधु हैं. यह तो हुई व्यावहारिक दृष्टि, किन्तु परमार्थतः उनका अधिष्ठान वह ज्योतिर्मय, अमृतमय पुरुष ही है.
वही उनका अध्यात्म - मूलभूत अर्थात् वास्तविक स्वरूप है. इसीका नाम आत्मा है और यह आत्मा ही अमृत ब्रह्म और सर्वरूप है. इस प्रकार इस ब्राह्मण में अधिष्ठान-दृष्टि से सम्पूर्ण प्रपञ्च की ब्रह्मरूपता का प्रतिपादन किया गया है और 'इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते' (२.५.१९) इस श्रुति से स्पष्ट कह दिया है कि वह आत्मतत्त्व ही अपनी मायाशक्ति से अनेकों आकार धारण करके क्रीडा कर रहा है.
यहाँ मधुकाण्ड समाप्त होता है. इसके आगे दो अध्याय याज्ञवल्कीय काण्ड के हैं. इसके आरम्भ में ही राजा जनक के बहुत दक्षिणा वाले यज्ञका प्रसङ्ग है. उनके यहाँ पाञ्चालदेश के सभी विद्वान् ब्राह्मण एकत्रित हुए थे. उन्होंने यह घोषणा कर दी कि जो उनमें सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी हो वह मेरी गौशाला में बँधी हुई दस सहस्र गौएँ जिनके सींगों में दस-दस सुवर्णमुद्रा बँधे हुए हैं, ले जाय.
एकत्रित ब्राह्मणों में से किसीका ऐसा साहस न हुआ जो ब्रह्मज्ञानी जनक के सामने अपने को सर्वश्रेष्ठ तत्त्ववेत्ता घोषित कर सके. उस समय याज्ञवल्क्य ने उठकर अपने ब्रह्मचारी को आज्ञा दी कि इन गौओं को खोलकर ले जाओ. इससे ब्राह्मणों में बड़ा क्षोभ हुआ और उनमें से एकने पूछा कि क्या तुम ही हम सबमें विशेष ब्रह्मज्ञानी हो?
इसपर याज्ञवल्क्य ने जो उत्तर दिया वह एक सच्चे महानुभाव के अनुरूप ही था. वे बोले 'ब्रह्मिष्ठ को तो हम नमस्कार करते हैं, हम तो गौओं की इच्छावाले हैं.' इसके पश्चात् एक-एक करके उनमें से कई ब्राह्मणों ने याज्ञवल्क्य से प्रश्न किये और उन्होंने उन्हें समाधानकारक उत्तर देकर शान्त कर दिया. अन्त में गार्गी खड़ी हुई। ब्रह्मवादिनी गार्गी ने इस लोक से आरम्भ करके उत्तरोत्तर प्रत्येक कारण का कारण पूछा.
अन्त में जब ब्रह्मलोक का भी कारण पूछा तो याज्ञवल्क्य ने उसे रोक दिया, क्योंकि यह अति प्रश्न था. जहाँ किसी विषय का निर्णय करने के लिये प्रश्नोत्तर होता है वहाँ निःसन्दिग्ध वस्तुके विषय में भी सन्देह करना एक अपराध माना जाता है.
इसी प्रकार के नियम को भङ्ग करने से शाकल्य का सिर कट गया था, जिसका आगे नवें ब्राह्मण में उल्लेख है. इसके पश्चात् याज्ञवल्क्य ने प्रश्न किये, किन्तु उपस्थित ब्राह्मणों में से कोई भी उनका उत्तर देनेका साहस नहीं कर सका. इस प्रकार तृतीय अध्याय समाप्त होता है.
चतुर्थ अध्यायके प्रथम ब्राह्मण में जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद है. जनक ने भिन्न-भिन्न आचार्यों से वाकू, प्राण चक्षु आदि को ही ब्रह्मरूप से सुना था. याज्ञवल्क्य ने उनमें से प्रत्येक के आयतन (गोलक) और प्रतिष्ठा (अधिष्ठान) पूछे. किन्तु जनक ने उन आचार्यों से उनके विषय में कुछ सुना नहीं था. तब याज्ञवल्क्य जी ने उनके आयतन और प्रतिष्ठा बताकर उनकी भिन्न-भिन्न प्रकार से उपासना करने का विधान किया और उनमें से प्रत्येक की उपासना से देवलोक की प्राप्ति बतलायी.
जनक ने प्रत्येक उपासना का फल सुनने पर उसीको परम पुरुषार्थ मानकर याज्ञवल्क्य को एक हजार गौ देना चाहा. किन्तु याज्ञवल्क्य ने कहा कि शिष्य को कृतार्थ किये बिना धन लेना मेरे पिता के सिद्धान्त के विरुद्ध है, इसलिये मैं यह दक्षिणा स्वीकार नहीं कर सकता.
द्वितीय ब्राह्मण में जनक को अधिकारी समझकर याज्ञवल्क्य जी ने विराट् का वर्णन करते हुए उस सर्वात्मा का प्रत्यगात्मा में उपसंहार करके परब्रह्मका उपदेश किया है. इससे जनक कृतकृत्यता का अनुभव करके अपना सारा राज्य गुरुदेव के चरणों में समर्पण कर देते हैं. इस प्रकार इस प्रकरण का उपसंहार होता है.
इस अध्याय के तीसरे और चौथे ब्राह्मणों में भी जनक और याज्ञवल्क्य का ही संवाद है. इस प्रकार यद्यपि याज्ञवल्क्य इस संकल्प से गये थे कि मैं स्वयं जनक से कुछ नहीं कहूँगा. परन्तु पहले वे उन्हें इच्छानुसार प्रश्न करने का वर दे चुके थे. इसलिये उन्होंने स्वयं ही प्रश्न कर दिया कि 'यह पुरुष किस ज्योतिवाला है?' बस, यहीं से प्रश्नोत्तर के क्रमसे इन दोनों ब्राह्मणों में आत्मतत्त्व का बड़े विस्तार–पूर्वक विवेचन हुआ है.
यहाँ विविध प्रकार से यही निर्णय हुआ है कि आत्मा ही चरम ज्योति है. वह स्वयंप्रकाश है. स्वप्रावस्था में वही सम्पूर्ण दृश्य को खड़ा कर लेता है. सम्पूर्ण विषयों का भोक्ता होने पर भी वह सर्वथा असंग है. सुषुप्तावस्था में वह सारे प्रपञ्च का उपसंहार करके अपने आनन्दमय स्वरूप में स्थित रहता है.
वही द्रष्टा की दृष्टि, ब्राता की घ्राति, रसयिता की रसनाशक्ति, वक्ता की उक्ति, श्रोता की श्रुति, मन्ता की मति और विज्ञाता की विज्ञाति है. इस प्रकार सबका स्वरूप होनेसे उसका कभी अभाव नहीं होता, क्योंकि जब जो कुछ रहता है उसका वास्तविक स्वरूप अनभिज्ञता प्रकट की.
तब वे पिता-पुत्र दोनों प्रवाहण के पास गये और उससे उन प्रश्नों का उत्तर पूछा. प्रवाहण ने उन्हें पञ्चाग्ग्रिविद्या का उपदेश किया. इस प्रसङ्ग का निरूपण छान्दोग्योपनिषद् में भी है. शाखाभेद से एक ही विद्या का अनेक स्थानों पर उल्लेख हो जाता है.
इसके पश्चात् तीसरे और चौथे ब्राह्मणों में क्रमशः श्रीमन्थ और पुत्रमन्थ कर्मों का वर्णन है. ये दोनों कर्म परस्परसम्बद्ध हैं. इनका प्रधान प्रयोजन सत्सन्तति की प्राप्ति है. पाँचवें ब्राह्मण में खिलकाण्ड की आचार्य-परम्परा है. इस प्रकार यह उपनिषद् समाप्त होती है.
यहाँ तक संक्षेप में इस महाग्रन्थ के प्रधान-प्रधान प्रसङ्गॉपर दृष्टिपात किया गया है. इस उपनिषद् की प्रतिपादन शैली बहुत ही सुव्यवस्थित और युक्तियुक्त है. उपर्युक्त विवेचन के अनुसार इसमें दो-दो अध्यायों के मधु, याज्ञवल्कीय और खिलसंज्ञक तीन काण्ड हैं. इनमें से मधु और खिलकाण्डों में प्रधानतया उपासना का तथा याज्ञवल्कीय काण्ड में ज्ञान का विवेचन हुआ है.
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