आचार्य विष्णुगुप्त यानी चाणक्य के पिता आचार्य चणक थे. विष्णुगुप्त किशोर थे. तब उनके पिता को मगध सम्राट धननंद ने नैतिक आदर्शाें के लिए आवाज उठाने पर राजद्रोह में कैद कर लिया था. कहते हैं उनके पिता की मृत्यु कारागार में ही हो गई. लेकिन राजसत्ता उसे निर्वासन अर्थात देशनिकाला बताती रही. विष्णुगुप्त की माता पति के कैद और निर्वासन के दुख में मृत्यु को प्राप्त हो गईं.


माता-पिता को खोने के बाद चाणक्य को भी मगध में आश्रय मिलना बंद हो गया. इस पर चाणक्य ने पाटलिपुत्र से कोसों दूर तक्षशिला गुरुकुल जाने का निर्णय लिया. तक्षशिला गुरुकुल में सब कुछ भूलकर पूरे मनोयोग विद्या ग्रहण की. राजनीति के आचार्य की उपाधी प्राप्त की. तक्षशिला के गुरुकुल में ही वे शिक्षक बनकर विद्यार्थियों को पढ़ाने लगे. 


आचार्य ने जीवन में आए कठिन दौर का दुख मनाने में समय नष्ट नहीं किया. उन्होंने दुख को भुलाकर एक लक्ष्य निर्धारित किया और जुट गए. लगातार कई वर्षाें तक वहां अध्यापन करने के बाद भी उन्होंने गृहक्षेत्र की ओर रुख नहीं किया. आचार्य ने कभी अपने व्यक्तिगत बदले के भाव से मगध के राजा धननंद के विरुद्ध संघर्ष का मार्ग नहीं अपनाया.


उन्होंने भारत को एक सूत्र में पिरोने और आर्यवर्त की भूमि को विदेशी आक्रांताओं से बचाने और देश को सबल बनाने का प्रयास किया था. इसमें वे सफल भी हुए.  उनका जीवन दर्शन सबल और सक्षम नीतियों को प्रकाशित करता है. प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में दुख, कष्ट, रोग और अवरोध आदि आते हैं. इन्हें पकड़कर बैठने की जगह इनसे मुक्त हो आगे बढ़ने में ही सफल व्यक्ति होने का प्रमाण है.