Pradosh Vrat: पहली बार चंद्र देव ने ससुर के श्राप से मुक्ति के लिए रखा था प्रदोष व्रत, पढ़ें प्राचीन कथा
अपने ही ससुर के श्राप के चलते क्षय रोग से जूझ रहे चंद्र देव ने नारद मुनि के परामर्श पर त्रयोदशी को प्रदोष पूजन किया. शिव-पार्वती की कृपा से रोग से मुक्ति मिली और शिवजी ने चंद्रमा शीश में धारण किया.
Pradosh Vrat: हर माह दो बार पड़ने वाली त्रयोदशी को प्रदोष भी कहते हैं. इसके अलग-अलग दिनों के पुण्य फल की मान्यता है. कहते हैं कि इस व्रत की शुरुआत खुद चंद्रदेव ने अपनी रोग मुक्ति के लिए की थी. फल स्वरूप क्षीण हो रहीं उनकी शक्तियां उन्हें वापस मिली और शिव ने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण कर लिया.
प्रदोष व्रत की शुरुआत चंद्र देव ने की थी. पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि चंद्रदेव यानी चंद्रमा का विवाह प्रजापति दक्ष की 27 नक्षत्र कन्याओं के साथ हुआ था. इन्हीं 27 नक्षत्रों के योग से एक चंद्रमास पूरा होता है. चंद्रमा खुद बेहद रूपवान थे और उनकी सभी पत्नियों में रोहिणी अत्यंत खूबसूरत थीं. इसलिए चंद्रमा का रोहिणी से विशेष लगाव था. रोहिणी के प्रति चंद्रमा के प्रेम और उनके बर्ताव से उनकी बाकी 26 पत्नियां दुखी हो गईं. उन्होंने पिता दक्ष प्रजापति से उनकी शिकायत की. बेटियों के दुख से दुखी होकर दक्ष ने चंद्रमा को श्राप दे दिया. इसके चलते चंद्रमा क्षय रोग से ग्रसित हो गए. धीरे-धीरे श्राप के कारण चंद्रमा की कलाएं क्षीण होने लगीं. इससे पृथ्वी पर भी बुरा असर पड़ने लगा. जब चंद्रदेव अंतिम सांसों के करीब पहुंचे तभी नारद जी ने उन्हें महादेव की आराधना करने के लिए कहा. इस पर चंद्र देव में त्रयोदशी के दिन महादेव का व्रत रखकर प्रदोष काल में उनका पूजन किया. व्रत और पूजन से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें मृत्युतुल्य कष्ट से मुक्त कर पुनर्जीवन प्रदान किया और अपने मस्तक पर चंद्रमा धारण कर लिया.
इस व्रत में प्रदोष काल में महादेव का पूजन किया जाता है, इसलिए इसे प्रदोष व्रत कहा जाता है. प्रदोष काल यानी सूर्यास्त्र और रात्रि के मध्य यानी गोधूलि बेला में शिव जी का पूजन किया जाता है.
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