आचार्य चाणक्य धन संचय को एक सीमा तक उचित मानते हैं. विपत्ति में वे बुद्धि से ही काम लेने को महत्व देते हैं. उनके इस श्लोक से बुद्धि की श्रेष्ठता को स्पष्ट समझा जा सकता है.


आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतां कुत आपदः ।
कदाचिच्चलते लक्ष्मीः सञ्चितोऽपि विनश्यति ॥


भावार्थ- आपदा काल के लिए धन की रक्षा करिए. ये न सोचें कि आपदा धनी व्यक्तियों के लिए नहीं होती है. लक्ष्मी तो चंचला है कभी कभी उसका संचय भी समाप्त हो सकता है.

आचार्य चाणक्य का कहना है कि विपत्ति किसी भी मनुष्य पर आ सकती है. व्यक्ति को बुरे दिनों का सामना करने के लिए धन का संचय करना चाहिए. अब यह भी सवाल उठ सकता है कि जब मनुष्य के पास धन-संपत्ति होगी, तो वह धन-धान्य से समृद्ध होगा तो फिर उस व्यक्ति पर विपत्ति कैसे आएगी. लेकिन ऐसा नहीं है विपत्ति सभी पर आती है और कभी-कभी आपका संचित धन भी खत्म हो जाता है.

वास्तव में आचार्य कहना चाहते हैं कि विपत्ति के लिए धन संचय आवश्यक है. याद रखें कि संचय की भी एक सीमा होती है. इसलिए विपत्ति के समय़ व्यक्ति की सूझबूझ ही महत्वपूर्ण होती है. आपकी सूझबूझ से ही उस कठिन समय का उचित सामना किया जा सकता है.

परंतु इस परामर्श का तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं कि मनुष्य धन संचय न करे. कठिन समय के लिए हर कोई संचय करता है यहाँ तक कि चीटिंया संचय करके रखती हैं. उसे भी वर्षा ऋतु की चिंता होती है. अर्थात सभी अपनी हैसियत और क्षमता के अनुसार विपत्ति के लिए धन संचय करता है. यह कोई बड़ी बात नहीं है. अतएव धन संचय आवश्यक है लेकिन उस पर निर्भरता मूर्खता होगी.

अगर इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि धन संचय करके बुरे समय के लिए निश्चिंत नहीं हो जाना चाहिए क्योंकि धन बुरे समय में हमारी रक्षा नहीं कर सकता - धन तो पता नहीं कब चला जाए. बुरे समय में सूझबूझ पर अधिक ध्यान रखना चाहिए.

आचार्य चाणक्य के श्लोक के दूसरी लाइन से ही उनका मंतव्य स्पष्ट होता है कि विुत्ति के लिए धन संचय आवश्यक है लेकिन उसके बाद भी विपत्ति से निकलने के लिए आपकी सूझबूझ जरुरी है.