तक्षशिला के आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य गंभीर चर्चाएं समकक्ष लोगों से किया करते थे. किसी समस्या पर उन्हें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष मार्गदर्शन चाहिए होता था तो मित्र आचार्याें से मंत्रणा करते थे. आचार्य का मानना था कि आपके संघर्ष को वही समझ सकता है जिसने आपके जैसा अनुभव जिया हो. वे राजपुरुषों, शिष्यों और अन्य अनुभवहीन लोगों से मंत्रणा नहीं करते थे. विष्णुगुप्त के पिता आचार्य चणक के कई शिष्य विष्णुगुप्त के बालसखा और मित्र थे. इसी प्रकार तक्षशिला के साथीगण उनके मंत्रणा के योग्य थे.


आचार्य मानते थे कि जिसने समतुल्य अनुभव नहीं पाए हैं, उसे अपनी पीड़ा बताकर कोई लाभ नहीं होता है. वे उस कष्ट, संघर्ष और परेशानी को महसूस ही नहीं कर सकते जिसे उन्होंने स्वयं न देखा, समझा और भोगा हो. उक्तरोक्त के अतिरिक्त आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य यह भी कहते हैं कि संसार में कई ऐसे लोग हैं जो किसी की भी परेशानी नहीं समझते हैं. इनसे कोई चर्चा करना समय और ऊर्जा को व्यर्थ नष्ट करना है.


चाणक्य के अनुसार राजा पर आपकी बातों का कोई असर नहीं होता है. बालक से कुछ भी कहना अनुचित है. चोर, वेश्या और याचक अपने स्वार्थ पर केंद्रित होने से आपकी बात को अनसुना करते हैं. इन पर किसी भी दुख का कोई असर नहीं होता है. ग्रामवासियों को कष्ट देने वालों से भी मंत्रणा व्यर्थ ही होती है. चाणक्य कहते हैं कि ऐसे लोगों पर दूसरे के दुख का कोई असर नहीं होता है. उक्त लोगों से कभी भी दर्द साझा नहीं करना चाहिए. अपना दुःख बताने पर वे उसे उपहास में लेते हैं. इससे यह और बढ़ सकता है.