'जब आप अपनी आलोचना सुनकर उत्तेजित हो जाते हैं तो आप आलोचना करने वालों की कठपुतली मात्र बनकर रह जाते हैं.'


आचार्य चाणक्य के इस कथन का अर्थ है कि मनुष्य को कभी भी अपनी आलोचना सुनकर उत्तेजित नहीं होना चाहिए. कई बार ऐसा होता है कि सामने वाले का आपको उत्तेजित करने का मकसद होता है. उस वक्त अगर आपने उत्तेजित होकर कोई फैसला ले लिया या फिर कोई बात कह दी तो हो सकता है कि वो आपके हित में ना हो.

असल जिंदगी में लोग आपकी आलोचना करने का मौका ढूंढते रहते हैं. इस हथियार का प्रयोग अक्सर सामने वाले को बिना युद्ध किए हुए ही परास्त करने के लिए किया जाता है. वैसे लोग अपनी आलोचना सुन कर उत्तेजित हो जाते हैं. उस उत्तेजना में कोई गलत निर्णय ले लेते हैं. नहीं तो भी उनका आत्मविश्वास डगमगा ही जाता है. वास्तव में सामने वाला यही तो चाहता होता है ताकि वह आप पर हावी हो सके. इस स्थिति का सबसे अच्छा उपाय है उस आलोचना को नजर अंदाज करना.

आचार्य कहते हैं कि हर समय हुई आपकी आलोचना का उद्देश्य आपका नीचा दिखाना नहीं होता है. कभी-कभी सामने वाले की मंशा आपको सावधान करना और आपका हित भी हो सकता है. ऐसा व्यक्ति आपकी आलोचना तो करेगा लेकिन वह यह भी देखेगा कि आपको कहीं बुरा तो नहीं लगा इसलिए ऐसे व्यक्तियों की आलोचना के पीछे की भावना को भी समझने का प्रयास करना चाहिए.


कहानी का सार यह है कि आचार्य चाणक्य का कहना है आलोचना पर कभी भी आपा नहीं खोना चाहिए आलोचना के पीछे के उद्देश्य को ध्यान में रखकर या तो उसे हंसकर टाल देना चाहिए या फिर उस आलोचना से सीख लेनी चाहिए.