शनिदेव शनैः-शनैः आगे बढ़ने वाला ग्रह माना जाता है. इससे लोगों ऐसा भ्रम हो जाता है कि वे आलस्य बढ़ाते हैं. इसके उलट सच यह है कि शनि आलस्य करने वालों से अप्रसन्न रहते हैं. कछुए और खरगोश की कहानी में भी आलसी खरगोश ही हारता है. धीमी गति के बावजूद निरंतर गतिशील कछुआ तेजचाल खरगोश से दौड़ जीत जाता है.


ध्यातव्य यह है कि शनि का धीमा होना आलस्य का परिचायक नहीं है. शनि का गति करने का ढंग है. यह सबका अलग होता है. समाज में भी सभी लोग अलग व्यवहार और सक्रियता वाले होते हैं. इनमें सर्वाधिक आगे वे आते हैं जो समय का प्रबंधन आलस्य मुक्त होकर करते हैं.


हाथ की लकीरों में भी इसकी स्पष्टता मिलती है. सबसे बड़ी अंगुली के नीचे के भाग को शनि पर्वत कहा जाता है. यह फ्लैट होने पर व्यक्ति आलस्य से दूर रहता है. जिनका यह पर्वत विशालता लिए हुए होता है, सपाट होता है, वे आलसी नहीं होते हैं. इससे उन्हें शनि की सर्वाधिक कृपा और आशीष प्राप्त होते हैं. जीवन में सहज गति की निरंतरता ही जीत की राह बनाती है.


शनि ढाई साल तक एक राशि में रहते हैं. धीमी चाल से ही वह प्रत्येक राशि को भ्रमण के दौरान उचित दंड दे पाते हैं. आलसियों को शनि की साढ़े साती और ढैया में इसी कारण अधिकाधिक कार्य करना पड़ता है.