आज 26 दिसंबर 2023 को दत्त जयंती या दत्तात्रेय जयंती है. अधिकांश लोग आज अपने यंत्रवत जीवन में से कुछ पल दत्त मन्दिर या मूर्ति के समक्ष नतमस्तक होकर अपने काम में पुनः व्यस्त हो जाएंगे. इसी मानसिकता ने आज हमें इस कगार पर ला दिया है कि फिर से हम पुनःजागृति की बात कर रहे हैं.


वैसे दत्त भगवान को महाराष्ट्र में गुरु के रूप में अधिक पूजे जाते हैं. साथ ही गुजरात, तेलंगाना और कर्नाटक के कुछ हिस्सों में भी उनकी पूजा होती है. आज की युवा पीढ़ी को शायद दत्त भगवान के संदर्भ में अल्प सी जानकारी है. इन बातों से जुड़े तथ्यात्मक, पौराणिक और लौकिक पक्ष पर चर्चा कर लेने में कोई उज्र नही.


अगर कोई दत्त भगवान की मूर्ति सर्वप्रथम देखता है तब प्रथमदृष्टया वह उनके तीन सिर के दर्शन करता हैं. ऐसा इसलिए है कि दत्त भगवान में तीनो देव अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और महेश समाहित हैं. मार्गशीर्ष की पूर्णिमा के दिन दत्तात्रेय का जन्म हुआ था. चालिए अब इसके शास्त्रीय स्वरुप पर दृष्टि डालते हैं.


किस दिवस भगवान का अवतरण हुआ था?


स्कन्दपुराण के सह्याद्रि खण्ड (मृगशीर्ष-युक्ते पौर्णमास्यां यज्ञस्य वासरे।: जनयामास देदीप्यमानं पुत्रं सती शुभम्॥) यह बात लिखी मिलती हैं कि मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन अत्रि की पत्नी सती अनुसूया ने प्रकाशमान पुत्र (दत्तात्रेय) को उत्पन्न किया.


भगवान का नाम ‘दत्तात्रेय’ कैसे पड़ा?


व्रत चंद्रिका उत्सव अध्याय 33 अनुसार, दत्तात्रेय के पिता का: नाम अत्रि और माता का नाम अनुसूया था. इनका जन्म होते ही अत्रि मुनि ने समझ लिया कि यह भगवान का अवतार हैं. इनका जन्म विष्णु के वरदान से हुआ हैं, अतः नाम दत्तात्रेय रखना चाहिए. विष्णु के द्वारा वरदान दिये जाने से दत्त तथा अत्रि के पुत्र होने के कारण आत्रेय होने से इनका नाम दत्तात्रेय (दत्त+आत्रेय) पड़ गया. अतः ये इसी नाम से प्रसिद्ध हैं.


दत्तात्रेय को त्रिदेव क्यों माना जाता हैं?


व्रत चंद्रिका उत्सव अध्याय क्रमांक 33 के अनुसार, एक बार त्रिदेवियां (पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती), माता अनुसूया की परीक्षा लेना चाहती थीं. नारद जी के अनुसार विश्व की सबसे पतिव्रता स्त्री माता अनुसूया थीं. एक बार त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) ने एक साथ ही अनुसूया की परीक्षा लेने के लिये अत्रि मुनि के आश्रम पहुंचे. त्रिदेवों ने भिक्षुक का वेश बनाकर अनुसूया से भिक्षा मांगी परन्तु जब वह भिक्षा देने लगी तब त्रिदेवों ने कहा कि हम भिक्षा न लेकर इच्छानुसार भोजन करेंगे. अनुसूया ने बहुत ही सुन्दर तथा स्वादिष्ठ भोजन बनाया और त्रिदेवों को खाने के लिये निमन्त्रित किया.


परन्तु इन भिक्षुकों ने यह कह कर भोजन करने से इनकार कर दिया कि जब तक तुम हमारे सामने दिगंबर होकर भोजन न परोसोगी तब तक हम भोजन नहीं करेंगे. इसे सुनकर पहले तो अनुसूया क्रुद्ध हुईं परन्तु अपने पातिव्रत भंग करने के उद्देश्य को जान लिया. वह अपने पति अत्रि के पास गयी और उनका पैर धोकर देवताओं के ऊपर डाल दिया जिसके प्रभाव से वे तीनों देव बच्चे बन गये. तब अनुसूया ने दिगंबर होकर इन्हें इच्छा भर भोजन कराया, इसके पश्चात दूध पिलाया और फिर झूले में झुलाने लगीं. ये तीनों देवता घर लौट कर जब नहीं आये तब उनकी स्त्रियों (तत्रिदेवियां) बहुत दुःखी हुई और नारद जी से उनका पता लगा कर अत्रि मुनि के आश्रम पर आ पहुंची.


अनुसूया से अपने पति का समाचार पूछने पर उसने पालने (बच्चों का झूला) की ओर ईशारा किया परन्तु तीनों की रूपा–कृति एक समान होने के कारण वे उन्हें न पहचान सकीं. उनके प्रार्थना करने पर अनुसूया ने कहा कि इन तीनों ने मेरा दूध पान किया है. अतः इन्हें हमारे बच्चे बनकर रहना पड़ेगा. इस पर तीनों- देवताओं के संयुक्त अंश से एक मूर्ति बन गयी जिसके तीन सिर और छः भुजायें थीं. इस प्रकार दत्तात्रेय का जन्म हुआ. अनुसूया के द्वारा पति के चरण का जल पुनः छिड़कने पर इन तीनों बच्चों को तीनों देवताओं का पूर्वरूप पुनः प्राप्त हो गया. दत्तात्रेय के जन्म की यही रहस्यमय कथा है.


क्या दत्तात्रेय जी का तंत्रों में भी वर्णन मिलता है?


तंत्रों में एक प्रसिद्ध ग्रंथ है "दत्तात्रेय तंत्र" जिसमें भगवान शिव जो है साक्षात दत्तात्रेय जी को तंत्र विद्या का ज्ञान देते हैं.


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