Diwali 2023: दिवाली का त्योहार शुरू होने में कब कुछ ही दिन शेष है. इससे पहले लोग इसकी तैयारी में जोर-शोर से लग गए हैं. घर पर साफ-सफाई और रंग-रोगन का काम चल रहा है, लोग अपने घरों में रंग-बिरंगी लाइटे लगा रहे हैं, जिससे कि प्रकाश पर्व दिवाली पर रोशनी की कमी न रहे. कुछ लोग अभी से ही रंगोली की डिजाइन सेलेक्ट करने में लगे हैं तो कुछ जमकर शॉपिंग कर रहे हैं.


दिवाली मनाने की परंपरा में समय-दर-समय बहुत बदलाव आ गया है. रीति-रिवाजों और परंपरा से भली-भांति अवगत न होने की वजह से लोगों ने दिवाली को अपने-अपने तरीकों से रूपान्तरित कर लिया है. दीपों के पर्व दिवाली को कार्तिक मास की अमावस्या तिथि पर मनाया जाता है. इस साल यह तिथि 12 नवंबर 2023 को पड़ रही है.


दिवाली पर लोग दीप जलाते हैं, मिठाईयां खाते और खिलाते हैं, घर पर लक्ष्मी-गणेश का पूजन होता है और सभी एक दूसरे को दिवाली की शुभकामनाएं देकर खुशियां मनाते हैं. लेकिन इसी के साथ दिवाली पर खूब पटाखे भी जलाए जाते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि, दिवाली पर आतिशबाजी की परंपरा की शुरुआत कैसे हुई.


दिवाली पर दीप जलाने के संबंध में तो कई पौराणिक लेख मिलते हैं. लेकिन इस दिन आतिशबाजी करने के संबंध में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता और ना ही यह भारतीय सभ्यता-संस्कृति का परिचायक है. आप भी दिवाली पर आतिशबाजी करते हैं तो पहले जान लीजिए इससे जुड़े इतिहास के बारे में.


भारत में कब हुई आतिशबाजी की शुरुआत


क्यों मनाई जाती है दिवाली: दिवाली पर आतिशबाजी का इतिहास जानने से पहले यह जान लेते हैं कि, दिवाली क्यों मनाई जाती है. दिवाली पर्व मनाए जाने की परंपरा का संबंध भगवान श्रीराम से है. धार्मिक कथाओं के अनुसार, भगवान श्रीराम जब 14 साल का वनवास पूरा कर अयोध्या लौटे थे तब अयोध्यावासियों ने इस खुशी में घी के दीप जलाकर उनका स्वागत किया था. इस दिन कार्तिक माह की अमावस्या तिथि थी. इसलिए इस दिन दीप जलाने का महत्व है. लेकिन दिवाली पर आतिशबाजी करने या पटाखे जलाने की परंपरा का कोई प्रमाण धार्मिक ग्रंथों में नहीं मिलता है. ऐसे में सवाल यह है कि, फिर ये परंपरा किसकी देन है?




दिवाली पर पटाखे जलाने की परंपरा


दिवाली अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व है. धार्मिक ग्रंथों में इस दिन पूजा-पाठ करने और दीप जलाने का जिक्र मिलता है. लेकिन दिवाली पर पटाखे जलाने का जिक्र कहीं नहीं मिलता. इस दिन पटाखे जलाने या आतिशबाजी करने की परंपरा का कोई धार्मिक महत्व नहीं है. लेकिन आज जो लोग खुशियों और प्रकाश के पर्व दिवाली पर पटाखे जलाते हैं या आतिशबाजी करते हैं वह, रिवाज बिल्कुल नया है.




पटाखे का इतिहास


पटाखों के प्रलचन और इसके इतिहास को लेकर ऐसा कहा जाता है कि, पटाखे जलाने की परंपरा की शुरुआत मुगलकाल से हुई थी. वहीं कुछ इतिहासकारों को मानना है कि सातवीं शताब्दी में चीन में पटाखों में आविष्कार हुआ था. इसके बाद 1200-1700 ईस्वी तक यह दुनिभार में पटाखे जलाना लोगों की पसंद बन गया.


भारत में आतिशबाजी का इतिहास


दिवाली अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व है और इसका आध्यात्मिक महत्व है. लेकिन दिवाली पर आतिशाबाजी की कोई धार्मिक प्रमाण नहीं मिलता. हां, आकाशदीप जलाने और मिथिला में पितृकर्म के लिए ऊक चलाने की परंपरा रही है, लेकिन आतिशबाजी की परंपरा भारतीय नहीं है.


इतिहासकारों का मानना है कि, भारत में पटाखे या आतिशबाजी मुगलों की ही देन है. क्योंकि मुगलवंश के संस्थापक बाबर के देश में आने बाद ही यहां बारूद का इस्तेमाल होने लगा. इसलिए भारत में इसकी शुरुआत मुगलकाल से मानी जाती है.  


हालांकि प्रमाण के साथ यह कहना मुश्किल है कि, देश में पटाखे या आतिशाबाजी का प्रचलन कब शुरू हुआ. लेकिन यह तय है कि यह परंपरा चीन की देन है और आज भी यहां पटाखे जलाने की परंपरा प्रचलित है. चीन के लोगों का ऐसा मानना है कि, आतिशबाजी के शोर से बुरी आत्माएं, विचार, दुर्भाग्य आदि दूर होते हैं.




पटाखों का बांस से लेकर रिमोट तक का सफर



  • समय के साथ-साथ पटाखों का स्वरूप भी बहुत बदल गया है. सबसे पहला पटाखा चीन में 600-900 एडी के आसपास बांस से बनाया गया था. इसके बाद 10वीं सदी में चीनवासियों ने कागज से पटाखे बनाने की शुरुआत की.

  • कागज के पटाखे बनाने के 200 साल बाद चीन में हवा में फूटने वाले पटाखे बनाने का निर्माण शुरू हुआ है और 13वीं सदी आते-आते यूरोप और अरब देशों में भी बारूद का विकास कार्य शुरू हो गया.

  • आज पटाखों का स्वरूप इतना बदल गया है कि, केवल चीन और यूरोप देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर में पटाखों के आधुनिक किस्से मौजूद हैं और बांस या कागज से बनने वाले पटाखों की आतिशबाजी अब रिमोट से होने लगी है.


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