प्रत्येक व्यक्ति की जन्मकुंडली में 12 भाव होते हैं. इसमें नौवां भाव भाग्य का कहलाता है. भाग्य में प्रमुखता से पाप-पुण्य विवेक, दान, उदारता, साधना, पर्यटन, पौत्र सुख, संपन्नता, उच्चशिक्षा, साहित्य रचना, लंबी दूरी की यात्राएं, शासन-प्रशासन, ज्योतिष, नेतृत्व, आदर्श और संतान-पिता का साथ देखे समझे जाते हैं.
इन्हीं बातों को जीवन में बढ़ाया जाए और निखारा जाए तो भाग्यवृद्धि होती है. पर्यटन भारत में सदियों से धार्मिक अधिक रहा है. साथ ही व्यापार के लिए लोग पर्यटन करते थे. वर्तमान में मन-मस्तिष्क को तनाव रहित करने के लिए लोग यात्राएं करते हैं. यात्रा किसी भी रूप में व्यक्ति के अनुभव में वृद्धि करती है. अनुभव भाग्य निर्माण में सहायक होता है.
संपन्नता स्वयं में भाग्य कारक है. विवेकपूर्ण धनधान्य का संग्रह सौभाग्य लाता है. साहित्य रचना और सृजनात्मकता व्यक्ति को लंबे समय तक प्रभावी बनाए रखते हैं. भाग्य दीर्घायु होना भी है. शासन-प्रशासन से करीबी भाग्यकारक होती है. व्यक्ति को मान सम्मान और बल प्राप्त होता है. इससे वह सभी क्षेत्रों में सफलता अर्जित कर सकता है. वर्तमान में शासकीय सेवा और संबंधित कार्याें से जुड़े लोगों को निश्चित औरों से बेहतर माना जाता है.
पाप-पुण्य का विवेक भाग्य वृद्धि में सबसे महत्वपूर्ण है. भाग्य स्थान पुण्य से ही प्रबल होता है. महाभारत की कथा के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने विराट यज्ञ किया था. इसमें एक नेवला भी आया. नेवले का आधा शरीर सोने का था. उसे युधिष्ठिर के यज्ञ का प्रसाद लिया लेकिन वह पूरा सोने का नहीं हुआ. इस पर उसने युधिष्ठिर के यज्ञ को उस भूखे ब्राह्मण के दान से कमतर बताया जिसे खाकर वह आधा सोने का हो गया था.
इस कथा से युधिष्ठिर को समझ आया कि क्षमतावान के बडे़ पुर्ण्याजन से भी कहीं अधिक महत्व कमजोर का औरों के लिए कुछ करना. उक्त तथ्यों को गहराई से समझकर जीवन में अपनाने से भाग्य को बली बनाया जा सकता है.