वास्तुशास्त्र में दसों दिशाओं का अध्ययन किया जाता है. मुख्य दिशाएं पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर होती हैं. इन चार दिशाओं के चार कौनों दक्षिण-पूर्व, दक्षिण-पश्चिम, उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्व को मिलाकर आठ दिशाएं होती हैं. उक्त के अतिरिक्त आकाश और पाताल दो दिशाएं होती हैं. इन्हें उर्ध्वगामी और अधोगामी कहा जाता है.


उपर्युक्त आठ दिशाओं में ही वास्तु की सर्वाधिक गणना होती है. इन दिशाओं में पूर्व और उत्तर दिशा को वास्तु में अधिक महत्व मिला है. इसका कारण है. प्राचीन समय में बड़े भवनों और घरों का ही वास्तु देखा जाता था. कल कारखानों, बड़ी फैक्ट्रियों और आग भट्टी आदि उपयोग की भूमि का प्राचीन काल में इतना प्रभाव नहीं था. 


वर्तमान में भवनों के वास्तु से कहीं अधिक कार्य स्थल, ऑफिस, कारखाना और उद्योग भूमि का वास्तु है. पेचीदा भी है और वृहत भी है. 


भारी कारखानों और आग के काम से जुड़े उद्योग भवनों के लिए दक्षिण दिशा शुभकारी है. आग की आधिक्यता और भारी प्रभाव के कारण ये दिशा ऐसे कार्याें के लिए शुभकारी है. आयुध संस्थान इसी दिशा को ध्यान में रखकर बनाए जाने चाहिए.


इसी प्रकार बड़े बाजार, सुपर मार्केट, रसायनिक सामान की दुकानों का पश्चिम मुखी होना हितकर है. 


पूर्व दिशा शिक्षा, ज्ञान और ईश्वर आराधना के लिए शुभ है. ज्ञानार्जन के लिए श्रेष्ठ है.


उत्तर दिशा में सामान्य व्यवसायिक प्रष्तिठान और अन्य खरीदी बिक्री की दुकानों को खोला जाना श्रेयष्कर होता है. 


स्पष्ट समझें तो वास्तु की प्रत्येक दिशा उसके उपयोग अनुसार महत्वपूर्ण है.