नई दिल्ली: दिल्ली में ताजिया रखने का सिलसिला मुगलकाल से ही चला आ रहा है. अब 700 साल में ऐसा पहली बार होगा कि मुहर्रम पर ताजिये तो रखे जाएंगे, लेकिन इनके साथ निकलने वाला जुलूस नहीं निकल सकेगा. यह बात हजरत निजामुद्दीन औलिया दरगाह शरीफ के प्रमुख कासिफ निजामी ने कही.


निजामी ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, "भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय यानी 1947 में भी दरगाह से ताजियों के साथ निकालने वाले जुलूस पर पाबंदी नहीं लगी थी, लेकिन इस बार कोरोना संक्रमण के चलते दिल्ली और केंद्र सरकार से धार्मिक सामूहिक कार्यक्रम की अनुमति नहीं है. इसलिए मोहर्रम पर ताजिये के साथ जुलूस निकलने की अनुमति भी नहीं मिली है."


उन्होंने बताया, "700 सालों से अधिक समय से दरगाह से कुछ ही दूरी पर स्थित इमामबाड़ा में सबसे बड़ा फूलों का ताजिया रखा जाता है. यहां और चार ताजिये रखे जाते हैं. 10वीं मोहर्रम पर दरगाह से ताजियों के साथ छुरी और कमां का मातमी जुलूस निकलता है. नौजवान हजरत इमाम हुसैन की शहादत को याद करके अपने बदन से लहू बहाते हैं, लेकिन इस बार कोरोना संक्रमण के चलते इन सब पर पाबंदी लगी है. इसलिए इस बार कर्बला में सिर्फ ताजिये का फूल भेजा जाएगा."


इमामबाड़ा में मजलिस का आयोजन
दिल्ली के अलीगंज जोरबाग में शा-ए-मरदान दरगाह व अंजुमन कर्बला कमेटी के सदस्य गौहर असगर कासमी ने बताया, "हर साल मोहर्रम की पहली तारीख से ही मजलिसें शुरू हो जाती हैं. ज्यादा जगहों पर ताजिया भी रख दिए जाते हैं. दस तारीख को लगभग यहां 70 बड़ी ताजियों के साथ जुलूस पहुंचता है. यहां पर ताजियों को दफन किया जाता है. 12 तारीख को तीज पर मातम का जुलूस निकलता है. लेकिन इसबार प्रशासन से अनुमति नहीं मिली है. सिर्फ इमामबाड़ा में मजलिस का आयोजन हो रहा है. कोरोना वायरस के चलते हो रही मजलिस का सोशल डिस्टेंसिंग के साथ आयोजन में भाग लेने की अनुमति दी जा रही है."


उन्होंने बताया, "जोरबाग की कर्बला सबसे पुरानी कर्बला है. यहां तैमूर लंग के शासनकाल से ताजिये रखने का सिलसिला चला आ रहा है. कर्बला में दिल्ली के आखिरी सुल्तान बहादुर शाह जफर की दादी कुदशिया बेगम की भी कब्र है."


शोक का प्रतीक मोहर्रम
मोहर्रम पर हर साल हिंदू-मुस्लिम एकता भी देखने को मिलती है. हजारों की संख्या में लोग मोहर्रम के मातमी जुलूस में शामिल होने के लिए पहुंचते थे. हजरत निजामुद्दीन औलिया दरगाह से जुड़े मोहम्मद जुहैब निजामी ने बताया, "आसपास के कई हिंदू परिवार भी आस्था के कारण कई सालों से ताजिये रखते चले आ रहे हैं. वहीं महरौली का एक हिंदू परिवार तो कई दशकों से ऐसा कर रहा है."


मोहर्रम के दिन मुस्लिम समुदाय के लोग हुसैन की शहादत में गमजदा होकर उन्हें याद करते हैं. शोक के प्रतीक के रूप में इस दिन ताजिये के साथ जूलूस निकालने की परंपरा है. ताजिये का जुलूस इमाम बारगाह से निकलता है और कर्बला में जाकर खत्म होता है.


भारत में ताजिये का इतिहास
ताजिये का भारत में इतिहास के बारे में बताया गया है कि इसकी शुरुआत तैमूर लंग के दौर में हुई. ईरान, अफगानिस्तान, इराक और रूस को हराकर भारत पहुंचे तैमूर लंग ने यहां पर मुहम्मद बिन तुगलक को हराकर खुद को शहंशाह बनाया. साल में एक बार मुहर्रम मनाने वह इराक जरूर जाता था. लेकिन एक साल बीमार रहने पर वह मुहर्रम मनाने इराक नहीं जा पाया, दिल्ली में ही मनाया.


तैमूर के इराक नहीं जाने परे उसके दरबारियों ने अपने शहंशाह को खुश करने की योजना बनाई. दरबारियों ने देशभर के बेहतरीन शिल्पकारों को बुलवाया और उन्हें कर्बला में स्थित इमाम हुसैन की कब्र के जैसे ढांचे बनाने का आदेश दिया. बांस और कपड़े की मदद से फूलों से सजाकर कब्र जैसे ढांचे तैयार किए गए और इन्हें ताजिया नाम दिया गया और इन्हें तैमूर के सामने पेश किया गया.


उसके बाद शहंशाह तैमूर को खुश करने के लिए देशभर में ताजिये बनने लगे. ताजिये की यह परंपरा भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार में भी चली आ रही है.


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